पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२७८

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भिटाना भिलावा भिटाना:-क्रि० स० दे० "भटाना"। भिनसा-ST. मं० विनिमा ] सर्वरा। प्रभात । प्रातः- भिड़-संज्ञा स्त्री० [हिं० बरे वरें। ततैया। काल। भिड्ना -क्रि. अ. [ हि अनु० ? ] (1) एक चीज़ का बद भिनहीं-*.वि दिनिशा ] सवेरे । तरके। प्रात:- कर दूपरी चीज़ से टक्कर ग्वाना । टकराना । (२) लड़ना कार। अगहनी । लदाई करना । (३) समीप पहुँचना । पाप पहुँ. भिन्न-वि० [म. (१) अलग । पृथक । जुदा । जैसे,--ये दोनों चना । पटना । () पलंग करना। मथुन करना। (वानारू। बानं एक तृपर से भिन्न हैं। (२) इतर । दूसरा । अन्य । संयां० कि०-जाना ।-पड़ना। जैस, --इनसे भिन्न और कोई कारण हो ही नहीं सकता। भिडज-संशा yo [it भिटना? शूर । वीर पुरुष । (दि.) १३-1 10 (5) नीलम का एक दोष जिसके कारण पहननेवाले भिज्जॉ -संज्ञा पुं० [ ? घोड़ा। (डि.) को पति, पुत्रादि का शोक प्राप्त होना माना जाता है। भितल्ला-संशा पु० [हिं० भानर +7 ] दोहरे कपरे में भीतरी और 1) वट संख्या जो एकाई में कुछ कम हो। (गणित) का पल्ला । कपड़े के भीतर का परत । अम्नर । (३) किपी तेज धारवाले शस्त्र आदि से शरीर के किसी वि० भीतर का । अंदर का । भाग का कट जाना । ( वैग्रक) भितल्ली-संज्ञा स्त्री॰ [दि. भातर+नल ] चक्की के नीचे का पाट | भिन्नक-माए में ८ ] बौद्ध । भिताना-*-क्रि०म० मं. मांति डरना। भयभीत होना। भिन्नता-मशः श्री. सं० 1 भिन्न होने का भाव । अलग होने का खौफ ग्वाना। 30--(क)जानि के जार करी परिनाम भाव । अलगाव । भेद । अंतर । तुम्हे परतही में न भितहों।-तुलपी । (म्ब) हो सनाय भिन्नत्व-मंशा पु.म. भिन्न होने का भाव । जुदाई। दही मही तुमह अनाथ पनि जो रू.चुतहि न भितहो।- भियना*-fit, * म० भन] भयभीत होना । डरना। मुलपी। उ.---(क) कलि मल बस दल देवि भारी भीति भियो भित्ति-संक्षा स्त्री० [सं०] (1) दीवार । (२) र भय । भीति । है। तुलसी । (ग्व) दीली करि दाँबरी बावरी साँवरेहि (३) टुकड़ा । (डिं.) (४) चिन खींचने का आधार । वह देखि, पकुचि पहामि पिसु भारी भय भियो है।-तुलपी । पदार्थ जिस पर चित्र बनाया जाय। भिया-सा पुहि भैया : भाई । भ्राता। भिद-संज्ञा पुं० [सं० भिट! भेद । अंतर । उ.-(क) मम मरूप भिग्ना-... स, दे० "भिड़ना"। के माहि जहाँ यमरूप जुनिकरै । यो मारुप्य निबंध नाहि भिरिंग-मशः एद. "ग"। भिद पहिलो उफरै ।—मनिराम । (ख) मोक्ष काम गुरु भिलनी-संशा रा [भिल ] भील जाति की स्त्री । शिष्य लखि ताको माधन ज्ञान । वंद उक्त भाषण ग मंशा 1 8. एक प्रकार का धारीदार कपड़ा या जीव ब्रह्म भिद भान ।-निश्चल ।। चारवाना। भिदना-कि० अ० [सं० मिद (१) पवस्त होना । धुप जाना। भिलावा-मंशा पू । म भलातक (1) एक प्रसिद्ध जंगली वृक्ष फँस जाना । (२) छेदा जाना । (३) घायल होना । उ० जो सारे उत्तरी भारत में आसाम से पंजाब तक और हिमा- बन्न सरिस बर बान, हन्यो स्वहि रिपुदमन पुनि । भिदि लय की नगई में ३५०० फुट की ऊँचाई तक पाया जाता तासों बलवान, कियो क्रोध पिय पुत्र अति।-श्यामबिहारी। है। इपके पत्ते गमा के पतों के समान होते हैं। इसके भिदर-संशा पुं० [सं० भिदिर ; वन उ. अशनि कुलिय पवि नने को पालने से एक प्रकार का रम निकलता है जिससे भिदुर पुनि वज्र हादिनी आहि-नंददास । वार्निश बनता है। इसमें जामुन के आकार का एक प्रकार भिनफना-क्रि० अ० [ अनु० ] (1) भिन भिन शब्द करना । का लाल फर लगता है जो सूग्यने पर काला और चिपटा (मक्खियों का) हो जाना है और जो बहुधा औषध के काम में आता है। मुहा०—किसी पर मक्खियाँ भिकना-1. किस का इतना कच्चे फलों का नरकात भी बनती है । पक्के फल को जलाने अशक्त हो जाना कि उम पर माविम्बया भिनभिनायः कर और सं एक प्रकार का नल निकरता है जिसके शरीर में लग वह उन्हे उड़ा न सके । नितांत असमर्थ हो जाना । बहुन जाने में बहुत जलन और सूजन होती है। इस तेल से गंदा होना । अत्यत मालिन रहना । बहुधा भारत के धोषी कपड़ों पर निशान लगाते हैं जो (२) किसी काम का अपूर्ण रह जाना। (३) घृणा उत्पन्न कभी हटता नहीं। इसमें फिटकिरी आदि मिलाकर रंग भी होना। जैसे,-अब तो उनकी सरत देखकर जी भिन बनाया जाता है। कच्चे फल का ऊपरी गृदा या भीतरी गिरी कहीं कहीं ग्वाने के काम में भी आती है। वैद्यक में भिनभिनाना-क्रि० अ० [अनु. भिन भिन शब्द करना । इसे कसैला, गरम, शुक्रजनक, मधुर, हलका तथा वात, कफ