पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२८६

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भीष्मपंचक २५७७ भुइँतरवर भीष्मपंचक-संज्ञा पुं० [सं० ] कार्तिक शुक्ला एकादशी से पंचमी (ब) खोइ बसुधातल सुधा तर मिनि । भय भंजिनि भ्रा तक के पांच दिन । इन पाँच दिनों में लोग प्रायः त । भेक भुगिनि ।-नुकसं। (ग) कहा कृषण की माया रखते हैं। फितनी करत फिरत अपनी अपनी । बार न सके बरच भीष्मपितामह-संशा पुं० दे० "भीम"। नहि जान ज्यों भुअंग रिवर रहत मना ।—सूर । भीष्ममणि-संज्ञा स्त्री० [सं०] हिमालय के उत्तर में होनेवाला भुअंगम-संज्ञा पुं० [सं० भुजगम् ] सौ।। उ०-माई री मोहि एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर या मणि जिपका धारण .. शुस्यो मुअंगम करो।-सूर । करना बहुत शुभ समझा जाता है। भुवन-संगा पुं० दे० "भुवन" । भीष्मसू-संशा स्त्री० [सं०] गंगा। भुश्रा-संशा पु० [सं० बहु वा भूय अथवा पूक प्रा० अ] सेमर भीष्मस्वरराज-संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम । आदि क. रूई जो फल के भता भरी रहता है और डोळे भीष्माष्टमी-संश. श्री० [सं० 1 माघ शुक्ल अष्टमी, जिस दिन के सूखने पर कारकिरता है। भीष्म ने प्राण सागे थे। इस दिन भ.एम के नाम का तर्पण भुर*-संज्ञा पुं० दे० "भुल"। और दान आदि करने का विधान है। भुआल*-संज्ञा पुं० [सं० भूपाल, प्रा. भुअल ] राजा। उ०- भीसम*-संज्ञा पुं० दे. "भं.म"। धंदा अवध भुआल मत्य प्रेम जे हि राम पद । विदरत दोन मुँह-संज्ञा स्त्री० [स० भूमि ] पृथिवी। भूमि । उ०-अति दयाल तनु तृन इन छिन परिहरेउ। तुलसी। अनीति कुरीति भइतरनि हूँ ते ताति।जाउँ कहँ बलि भुई*-संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि ] भूमि । पृथ्वी। उ.-विनि वीज जाउँ कहूँ न ठाउँ मति अकुलाति ।-तुलसी। वर्षा रितु री । र म कु-ति कैकई केर-तुलदी। भुंधरा-संज्ञा पुं० दे० "इहरा"। मुहा०-गुस् लाना-झुकाना । उ०—कुंडल, गहेमीस मुँहफोर-संज्ञा पुं० [हिं० भुई+फोडना ] एक प्रकार की भी जो लावा पावर सुअन जहाँ व पात्रा-जाया। दरसात के दिना में बाँधी के आस पाल निकलती है। यह भुइँआँवला-संज्ञा पुं० [सं० भूम्यामलक ] एक घास का गम जो तरकारी के काम आती है। गरजुआ। बरपात में ठंडे स्थान में प्राय: धरों के आस पास होती है। भुंइहरा-संज्ञा पु० [हिं० भुर+घर ] (1) वह स्थान जो भूमि के इपकी पत्तियाँ छोटी हो। एक वीक में दोनों और होती नीचे रोकर बनाया गया हो। उ०—अस कहि थैलि हैं और इसीके में पत्तियों की जड़ों में सरसों के बराबर भुइहरा माहीं। कियो समाधि तीन दिन काहीं।-रघुराज।। छोटे छोटे फूलों की कोठों लगता है जिनके फूल फूरने पर (२) पृथ्वी के नीचे बना हुआ कमरा । तहखाना । इसने छोटे होते है कि उनकी बदियाँ स.ए नहीं दिखाई अँगाल-संज्ञा पुं० [ अनु० ] तुरुही वा भोगा जिसके द्वारा सैनिक देहपके फूलों के प्रहाने परई के बराबर हीटर नावों पर अध्यक्ष अपनी आशा की घोषणा करता है। (रु.श०) फल लगता है। यह धार औषधि के काम में आती है। भुंजना-के० अ० [ हिं• भुनना ] (1) भूनने का अकर्मक रूप। वैद्यक में कास्वाद कड़वा, कसै. और मधुर तथा प्रकृति भूना जाना । (२) झुलसना। शीतल और गुण खाँसी, क..स, कफ और पांडवोग का भुजवा -संज्ञा पुं० [हि. भूजना ] भदभूत। नाशक लिया है। यह बातकारक और दाहनाशक है। भुंदा-संशा पु० दे. "भुट्टा"। भद्रमांवला। भुंडली-संशा स्त्री० [हिं० भूरा वा मुंडा ] एक क.पा जिसे जिल्ला पर्या०-भूम्यामली । शिवा । ताली । क्षेत्रमली । शारिका । भी कहते है । इसके शरीर पर काल होते है जो स्पर्श होने भद्राम.की। की दशा में शरीर में भ जाते हैं और खुलाहट उत्पन्न भुइँकाँडा-संज्ञा पुं० [हिं० भु+कद | एक धाम जिसकी पत्तियाँ करते हैं। कमला। सुंदी। लहसुन की पत्तियों से घोड़, होता है और जिस की में भुंडा-वि० [सं० रुंड का अनु० ] [ स्त्री० भुंडी] बिना हींग का। प्याज की तरह गोल गॉर्ट की है। यह समुद्र के किनारे जिसके सींग न हो। (पशु) वा जलाशयों के पास होता है। की अनेक नातिर्थी हैं। मुंडी-संशा स्त्री० [हि. भुंडा ] एक होती महली जिसके मूळ नहीं : इसके फूल लंबे होते हैं और इंच का एक डर के ऊपर होगी। यह गिरई की जाति का होता है। गंवारों की धारणा रे पर गुरुले में लगते है। सफेद रखप भी कहते है कि इसके खाने से स्वानेवालों को भूछ नहीं निकलतीं। भुभंग-संज्ञा पुं० [सं० भुजंग | [ स्त्री. भुअगिन ] साँप । सर्प। भुइँडल-संज्ञा पुं० [हिं० भुर+डोलना ] भूकंप । भूचाल । उ.--(क) रिह भुअंगहि तन इसा मंत्र न लागै कोय। भातरवर-संज्ञा पुं० [हिं० भुई तरुवर ] सराय की जाति का विरह वियोगी क्यों जिये जिये तो औरा होय।-कबीर। एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ सनाय के नाम से बाजारों में