पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२८८

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२५७९ भुजपाश श्हा की आँखें टेढ़ी हो जाती है। इस रोग में रोगी का ज्वर ! भुगिनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) गोपाल नामक छंद का दूपरा अधिक बढ़ जाता है, उन्माद के कारण वह बकझक करता नाम । (२) खोनि । नागिन । है और उसके अवयवों में सूजन आ जाती है। यह अाय ! भुजंगी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) योपिन । नागिन । (२) एक रोग है और इसकी अवधि शास्त्रों में आठ दिन कही गई है। वक वृस्ति का नाम जिसके प्रत्येक घरण में ग्यारह वर्ण भुथड-वि० [हिं० भूत+चढ़ना ] जो पमनाने पर भी न सम होते हैं जिनमें पहले तीन यगण आते हैं और अंत में एक प्रता हो । मूर्ख । बेवकूफ़। रू.घु और एक गुरु रहता है। भुजंग-संज्ञा पुं० [सं०] (1) माँप । (२) स्त्री का यार । जार। भुजंगेति-संज्ञा पुं० [सं० ] एक छंद का नाम । (३) राजा का एफ पार्श्ववर्ती अनुचर । (४) सीसा नामक ! भुजगेश-संशा पुं० [सं०] (1) वासुकि । (२) शेष । (३) पिंगल धातु। मुनि का नाम । (४) पतंजलि का एक नाम । भुजंगमा तिनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] काकोली। भुज-मंशा पुं० [सं०] (9) बाहु । वाह । भुजंगजिला-संशा स्त्री० [सं०] महासपंगा । कँगहिया। मुहा०-भुज में भरना=आलिंगन करना । अंक भरना। गले भुजंगदमनी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] नाकुली कंद । लगाना । उ.---कहा बात कहि पिया जगाऊँ। कैसे भुज भुजंगरी-संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदम्नी । भार कंठ लगाऊँ। भुजंगपुष्य-संज्ञा पुं० [सं०] (1) एक फूल के पेड़ का नाम । (२) हाथ । (३) हाथी का । (४) शाखा । डाली। (२) सुश्रुत के अनुसार एक क्षुप का नाम । (५) प्रत । किनारा। मेंह। (६) लपेट । फॅटी 1 (७) भुजंगप्रयात-संशा पुं० [सं०] एक वनिक छंद जिसके प्रत्येक ज्यामिति वा रेग्यागणित के अनुसार किमी क्षेत्र का घरण में बारह वर्ण होते हैं, जिनमें पहला, चौथा, यातवाँ किनारा वा किनारे की रेवा।। और दसवाँ वर्ण लघु और शेष गुरु होते हैं; अथवा प्रत्येक यौ०-द्विभुज । त्रिभुज । चतुर्भुज इत्यादि। चरण चार यगण का होता है । उ०--कहूँ शोभना इंदभी (6) त्रिभुज का आधार । (९) छाया का मूल वा आधार । दीह बाजै। कहूँ भीम भंकार कर्माल साजै। कहूँ सुदरी (१०) समकोणों का पूरक कोण । (11) दो की संख्या का खेनु बीना बजा । कहूँ किरी कि जरी लय सुनावै। बोधक शब्द-संकेत । (१२) ज्योतिषशास्त्र के अनुसार तीन भुजंगभुज-संज्ञा पुं० [सं०] (१) गरुब (२) मयूर । सराशियों के अंतर्गत ग्रहों की स्थिति वा खगोल का वह भुजंगभोजी-संज्ञा पुं० [सं० भुजंगभोजिन् ] [स्त्री. भुजंगभोजिनी ] अंश जो तीन राशि से कम हो। (1) गरड़ । (२) मथूर । मोर। भुजकोटर-संज्ञा पुं० [सं० ] बगल । काँम्ब । भुजंगम--संज्ञा पुं० [सं० भुजंगम् ] (१) साँप । (२) सीमा।| भुजग-संज्ञा पुं० [सं०] (1) सौर । (२) अश्लेषा नक्षत्र । (३) भुजंगविज़भित-संज्ञा पुं० [सं०] एक वाक छ। जिसके प्रत्येक सीसा । धरण में २६ वर्ण इस क्रम से होते हैं.--आदि में दो भुजगनिसृता-संशा स्त्री० [सं०] एक वार्षिक वृत्त का नाम जिसके मगण, फिर एक तगण, तीन नगण, फिर गण, सगण और प्रत्येक चरण में नौ अक्षर होते हैं जिनमें छठा, आठवाँ और अंत में एक लघु और एक गुरु।। नयाँ अक्षर गुरु और शेष लघु होते हैं। भुजंगसंगता-संशा स्त्री० [सं०] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक | भुजगाति-संज्ञा पुं॰ [सं०] वासुकि । अनंत । चरण में नौ नौ वर्ण होते हैं, जिनमें पहले सगण, मध्य में | भुजगपुष्प-संशा पुं० [सं०] (1) एक प्रकार का फूल । (२) जगण और अंत में रगण होता है। इस फूल का पौधा। भुजंगा-संज्ञा पुं० [हिं० भुजंग ] (1) काले रंग का एक पक्षी भुजगशिशुभृता-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक व त्ति का नाम जिरकी लंबाई प्राय: डेढ़ बालित होती है। यह काने जिपके प्रत्येक चरण में नौ अक्षर होते हैं जिनमें पहले दो मकोड़े खाता है और बड़ा नीठ होता है। यह भारत, चीन ! नगण और अंत में एक मगण होता है। इसे भुजगशिशु- और स्याम देश में पाया जाता है। यह प्रातःकाल बोता सुता भी कहते हैं। है और इसकी बोली सुहावनी लगती है। यह एक बार भुजगेंद्र-संज्ञा पुं० [सं०] शेष । वासुकि । में चार अंडे देता है। इसकी अनेक अवांतर उपजातियाँ भुजगेश, भुजगेश्वर-संशा पुं० [सं०] भुजगेंद्र । वासुकी । होती है; जैसे, केशराज, कृष्णराज इत्यादि। भुजैटा। भुजज्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिकोणमिति के अनुसार भुज कोतवाल । (२) दे. "भुजंग"। की ज्या। भुजंगाक्षी-संज्ञा स्त्री० [सं०] राना। भुजदंड-संज्ञा पुं० [सं० ] बाहुदे। भुजंगाव्य-संज्ञा पुं० [सं०] नागकेसर । भुजपाश-संज्ञा पुं॰ [सं०] गलकाहीं। गले में हाथ गलना ।