पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३१९

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मंडलपुञ्छक २६१० मंडलपुच्छक-संज्ञा पुं० [सं०] एक कीड़ा जिसको सुश्रुत में | मँडा -संज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का कदम। प्राणनाशक लिखा है। इसके काटने से सर्प का सा विष | मंडूक-संज्ञा पुं० [सं०] (1) मैठक । (२) एक ऋषि । (३) दोहा चढ़ता है। छंद का पाँचवाँ भेद जिसमें १८ गुरु और १२ लघु अक्षर मंडलाकार-वि० [सं० ] गोल । होते हैं। (४) रुद्रताल के ग्यारह भेदों में से एक। मंडलाप्र--संज्ञा पुं० [सं०] चीर कार में काम आनेवाला एक ! (५) प्राचीन काल का एक बाजा । (६) एक प्रकार का प्रकार का शस्त्र या औज़ार । ( सुश्रुत ) नृत्य । (७) घोडे की एक जाति। मंडलाना-कि० अ० दे. "मँडराना"। मंडूकपर्णी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) ग्राह्मी बूटी। (२) मंजिष्ठा । मंडलायित-वि० [सं०] वर्तुल। गोल । मंडूका-संशा स्त्री० [सं०] मंजिष्ठा । मजीठ । मंडली-संश। स्त्री० [सं० ) () समूह । गोष्ठी । समाज। | मंडकी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) ब्राही । (२) आदित्यभक्ता । जमाअत । समुदाय । (२) दूर्व । (३) गुदुध । मंडर-संज्ञा पुं० [सं०] लोह कीट गलाए हुए लोहे की मैल। सिंधान। संज्ञा पुं० [सं० मंडलिन् 1 (1) एक प्रकार का याँप । सुश्रुत विशेष-वैध लोग औषध में इसका व्यवहार शोध कर के गिनाए हुए साँप के आठ भेदों में से एक । करते हैं। इसमें लोहे का ही गुण माना जाता है। मंडूर विशेष- इनके शरीर में गोल गोल चित्तियाँ सी होती है और जितना ही पुराना हो; उतना ही व्यवहार के योग्य और गुण- यह भारी होने के कारण चलने में उतने तेज़ नहीं होते। कारी माना जाता है । सौ वर्ष का मंडूर सब से उत्तम कहा (२) वटवृक्ष । (३) बिली। विडाल । () नेवले की जाति गया है। बहरे की लकड़ी में जलाकर सात बार गोमूत्र में का बिल्ली की तरह का एक जंतु जिसे बंगाल में ग्वटाश और डालने से मंडूर शुद्ध हो जाता है। इसके सेवन से ज्वर, युक्त प्रांत में कहीं कहीं संधुवार कहते है। (५) सूर्य। प्लीहा, कँवल आदि रोग आराम होते हैं। उ.-मुख तेज सहम दस मंडली पुधि दस सहस कमंडली। मैंढा, मंढा-संज्ञा पुं० [हिं० गढ़ना ] कमख्वाब बुननेवालों का एक -गोपाल। औज़ार जो नशा उठाने में काम आता है। यह लकवी मंडलीक-संशा पुं० [सं० गांडलांक ) एक संगुल वा १२ राजाओं का होता है जिम्में दो शाखें सी निकली होती हैं। सिरे का अधिपति । उ०-बालक नृपाल जू के स्याल ही पर एक छेद होता है जिसमें एक डंडा लगा रहता है। पिनाक सोप्यो मंडलीक मंडली प्रताप दाप दाली री।- मंत -संशा पुं० [सं० मंत्र] (१) सलाह । उ०—(क) कंत सुन तुलसी। मंत कुल अंत किय अंत, हानि हातो किजै हिय ये भरोसो मंडलेश्वर-संज्ञा पुं० [सं० ] एक मंडल का अधिपति । १२. भुज बीस को। सुलसी । (ख) मैं जो कहीं कत सुनु मंत राजाओं का अधिपत्ति । भगवंत सौं विमुख है बालि फल कौन लीन्हों।-तुलसी। मँड़वा-संज्ञा पुं० [सं० मंडप, प्रा. मंडव ] मंडप यौ-तत मत उयोग । प्रयत्न । उ०-के जिव तत मत सों मंडहारक-संज्ञा पुं० [सं०] मच का व्यवसायी । कलवार। हेरा । गयो हेराय जो वह भा मेरा । जायपी। मंडा-संज्ञा पुं० [सं० मंडल ] भूमि का एक मान जो दो विस्वे के (२) मंत्र । । बराबर होता है। . मंतव्य-वि० [सं०] मानने योग्य । माननीय । संज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार की फंगला मिठाई। संज्ञा पुं० विधार । मत। संशा स्त्री० [सं०] (1) सुरा । (२) आमलकी। | मंत्र-संशा पुं० [सं०] (1) गोप्य वा रहस्यपूर्ण बात । सलाह । मँडारी-संशा पुं० [सं० मंडल ] गड्ढा । परामर्श मंडित-वि० [सं०] (१) विभूषित । सजाया हुआ । सँवारा (२) देवाधिसाधन गायत्री आदि वैदिक वाक्य जिनके द्वारा हुआ। (२) आच्छादित । छाया हुआ। (३) पूरित ।। यज्ञ आदि क्रिया करने का विधान हो। भरा हुआ। विशेष-निरुक्त के अनुसार वैदिक मंत्रों के तीन भेद है- मँडियार-संज्ञा पुं० [ देश० अरबेरी नाम कटीली झाड़ी। परोक्षकृत, प्रत्यक्षकृत और आध्यात्मिक । जिन मंत्रों द्वारा मंडी-संशा स्त्री० [सं० मंडप ] थोक विक्री की जगह । बहुत देवता को परोक्ष मानकर प्रथम पुरुष की क्रिया का प्रयोग भारी बाज़ार जहाँ व्यापार की चीजें बहुत आती हों। करके स्तुति आदि की जाती है, उसे परोक्षकृत मंत्र कहते बदा हाट । जैसे, अनाज की गंडी। हैं। जिन मंत्रों में देवता को प्रत्यक्ष मानकर मध्यमपुरुष के मुहा०-मंडी लगना=बाजार खुलना । सर्वनाम और क्रिया का प्रयोग करके उसकी स्तुति आदि संज्ञा स्त्री० [सं० मंडल ] भूमि मापने का एक मान जो दो होती है, उसे प्रत्यक्षकृत कहते हैं। जिन मंत्रों में देवता का विस्वे के बराबर होता है। भारोप अपने में करके उत्तमपुरुष के सर्वनाम और क्रियाओं