पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३५२

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मध्य कुरु मध्यमाहरण दरमियानी हिस्सा । (२) कमर । कटि । (३) संगीत में एक मध्यम, स्वर ( षड़ज ) पंचम, ऋषभ धैवत, गान्धार ससक जिसके स्वरों का उच्चारण वक्षस्थल से, कंठ के अंदर निषाद । तीव्र मध्यम को स्वर ( पहज ) बनाने में गतक के स्थानों से किया जाता है। यह साधारणतः धीच का सप्तक । इस प्रकार होता है-सीव मध्यम स्वर, कोमल, धैवत माना जाता है। (१) नृत्य में वह गति जो न बहुत तेज ऋषभ, कोमल निषाद गान्धार, निषाद मध्यम, कोमल हो और न बहुत मंद। (५) दस अरब की संख्या । (६) ऋषभ पंचम, कोमल गान्धार धैवत, मध्यम निषाद । (२) विश्राम । (७) सुश्रुत के अनुसार १६ वर्ष से ७० वर्ष । वह उपपति जो नायिका के क्रोध दिखलाने पर अपना अनु- तक को अवस्था । (८) अंतर । भेद । फरफ। (५) राग न प्रकट करे और उसकी बेष्टाओं से उसके मन का पश्चिम दिशा। भाव जाने । (३) साहित्य में तीन प्रकार के नायकों में से वि० (१) उपयुक्त । ठीक । (२) अधम । नीच । (३) एक । (४) एक प्रकार का मृग । (५) एक राग का नाम । मध्यम । बीच का। (६) मध्य देश। मध्य कुरु-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश जो उत्तर कुरु और मध्यमता-संज्ञा स्त्री० [सं०] मध्यम होने का भाव । दक्षिण कुरु के मध्य में था । वि० दे० "कुरु"। मध्यमपदलोपी-संशा पुं० [सं० मध्यमपदलोपिन् ] व्याकरण में वह मध्यखंड-संज्ञा पुं० [सं० ] ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी का वह समास जिसमें पहले पद से दूसरे पद का संबंध बतलाने- भाग जो उत्तर कांतिवृत्त और दक्षिण क्रांतिवृत्त के मध्य में : वाला शब्द लुप्त या ममास से अध्याहृत रहता है। लुप्त पड़ता है। पद समास। मध्यगंध-संज्ञा पुं० [सं० ] आम का वृक्ष । विशेष-कुछ कर्मधारय और कुछ बहुमीहि समास मध्यम- मध्यगत-वि० [सं०] मध्यम । बीच का। पदलोपी हुआ करते हैं। जैसे,-पर्णशाला (पर्णनिर्मित मध्यता-संशा स्त्री० [10] मध्य का भाय वा धर्म । शाला), जेव-घड़ी ( जेब में रहनेवाली घड़ी), मृगनयनी मध्यतापिनी-संज्ञा स्त्री० [ स. ) एक उपनिषद् का नाम । (मृग के समान नयनोवाली)। मध्य देश-संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन भौगोलिक विभाग के अनुसार मध्यम पुरुष-संशा पुं० [सं० ] व्याकरण के अनुसार तीन पुरुषों भारतवर्ष का यह प्रदेश जो हिमालय के दक्षिण, विन्ध्य में से वह पुरुष जिसमे बात की जाय । वह व्यक्ति जिसके पर्वत के उत्तर, कुरुक्षेत्र के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम में प्रति कुछ कहा जाय । है। यह प्रदेश किसी समय आर्यों का प्रधान निवास स्थान ! मध्यमलोक-संज्ञा पुं॰ [सं० } पृथ्वी । था और बहुत पवित्र माना जाता था। मध्यम । मध्यमसंग्रह-संशा पुं० [सं० ] मिताक्षरा के अनुसार सी को अपने मध्यदेह-संज्ञा पुं० [सं०] उदर । पेट। अधिकार में लाने का वह प्रकार जिसमें पुरुप उसे वस्त्र- मध्यपदलोपी-संज्ञा पुं० दे० "मध्यम-पद-लोपी"। आभूषण आदि भेजकर अपने पर अनुरक्त करता है। मध्यपात-संज्ञा पुं० [सं०] (१) ज्योतिष में एक प्रकार का पात। मध्यम साहस-संशा पुं० [सं०] मनु के अनुसार पाँच सौ पण (२) जान-पहचान । परिचय । तक का अर्थ-दंड या जुरमाना । मध्यपुष्प-संज्ञा पुं॰ [सं०] जल-बेत । | मध्यमा-संशा स्त्री० [सं०] (1) पाँच उँगलियों में से बीच की मध्यम-वि० [सं०] जो दो विपरीत सीमाओं के बीच में हो।। उँगली । (२) वह नायिका जो अपने प्रियतम के प्रेम वा जो गुण, विस्तार, मान आदि के विचार से न बहुत बड़ा ! दोष के अनुसार उसका आदर-मान वा अपमान करे। (३) हो, न बहुत छोटा । मध्य का। बीच का। रजस्वला खी। (७) कनियारी । (५) छोटा जामुन। (६) संज्ञा पुं० (१) संगीत के सात स्वरों में से चौथा स्वर काकोली। जिम्पका मूलस्थान नासिका, अंत:स्थान कंठ और शरीर में | मध्यमागम-संज्ञा पुं० [सं० ] बौदों के चार प्रकार के आगों में उत्पत्ति स्थान वक्षस्थल माना जाता है। कहते हैं कि यह से एक प्रकार का आगम । मयूर का स्वर है, इसके अधिकारी देवता महादेव, भाकृति मध्यमात्रेय-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम । विष्णु की, संतान दीपक राग, वर्ण नील, जाति शून, ऋतु मध्यमान-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का ताल जिसमें द्वस्व ग्रीष्म, वार युध और छेद वृहती है और इसका अधिकार अथवा दीर्घ मात्राएँ होती है और ३ आघात और । कुश द्वीप में है। संक्षेप में इसे "म" कहते या लिखते हैं। खाली होता है। इसके तबले के कोल ये हैं:-धा धिन यह साधारण और तीन दो प्रकार का होता है। इसको ताक धिन, धा धिन ताक धिन, धा तिन ताक् तिन, ता स्वर ( पड़ज) बनाने से सप्तक इस प्रकार होता है धिन ताक् धिन । धा। मध्यम स्वर, पंचम ऋषभ, धैवत गान्धार, कोमल निषाद ! मध्यमाहरण-संज्ञा पुं० [सं० ] बीज गणित की बह क्रिया जिसके