पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३५६

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मन २६४७ मनचीता मन लगना=(१) जी लगना । तबीयत लगना । (२) चित्त मनई।-संशा पुं० [सं० मानत्र ] मनुष्य । आदमी । उ--बरसे विनोद होना । उ.--बिरहागि है दुगुनी जगै । मन बाग नीर मराझर मनई उबर न पाये ।-गिदा । देखत ना लौ।-गुमान । मन लगाना (५)चित्त लगाना। · मनकना-क्रि० अ० [ अनु० ] (1) हिलना होलना । चेष्टा करना। मनोयोग देना । (२) चित्त विनाद करना । मन की उदासी हाथ पर चलाना। उ.--आए दरबार विललाने घरीदार मिटाना । (३) प्रेम करना । अनुराग करना । मन लाना*= देखि जापता करनहारे कहु न मन के 1---भूषण । (२) (१) मन लगाना । जी लगाना । 30-(क) गगन मॅडल माँ : तर्क वितर्क करना । ची चपड़ करना। भा उजियारा उलटा फेर लगाया। कहै कबीर जन भये मनकग*-वि० [हिं० मणि+का (प्रत्य॰)] चमकदार । प्रकाश विवेकी जिन यंत्री मन लाया । कबीर । (ख) छमिहहिं मान । उ०-दुहज सलाट अधिक मनकरा । शंकर देखि सजन मोर विठाई। सुनिहहिं बाल-वचन मन लाई।- माथ भुईंधरा ।-जायसी। तुलसी । (ग) किये जो परम तत्व मन लावा । धूमि मात मनका-सा मुं० [सं० मणिक वा मणिका (१) पत्थर, लकड़ी सुनि और न भावा ।-जायसी । (१) प्रेम करना । आसक्त आदि का बेधा हुआ गोल, खंड वा दाना जिस पिरोकर होना। उ०-पवन साँस तोपों मन लाई । जो मारग दृष्टि माला या सुमिरनी आदि बनाई जाती है । गरिथा । उ०- बिछाई।-जायसी। मन से उतरना=(१) मन में आदर-भाव माना फेरत जग मुभा गया न मन का फेर । कर का मनका न रह जाना । तिरस्कृत होना । घृणित ठहरना । (२) याद छादि के मन का मनका फेर ।-कीर । (२) माला या न रहना । विस्मृत होना । मन में उतारना-(१) मन में सुमिरनी। (क०) पहले का सा आदर भाव न रग्बना । तिरस्कार करना। घृणा संज्ञा पुं० [सं० मन्यका--गले का नस ] गरदन के पीछे की करना । (२) चित्त से उतारना । विस्मृत करना । भुलाना। मन हड्डी जो रीढ़ के बिलकुल ऊपर होती है। हरना-मुग्ध करना। मोहित करना । मोच लेना । अपने मुहा०- मनका ढलना या दलकना-मग्न फेममय गरदन दा ऊपर अनुरक्त करना । उ.-(क) चेटक लाइ हरहिं मन हो जाना । मृत्यु के समय गरदन का एक और भूक जाना । जब लगि हो गरि फट । साठ नाट उठि भागहि नापहिचान (यह अवस्था ठीक मरने के समय होती है और इसके न भेंट । --जायसी । (ख) वह देखो युवति वृद में आढ़ी उपरान्त मनुष्य नहीं बचता।) नील बसन तनु गोरी। सूरदाय मेरो मन वाकी चितवन मनकामना-संज्ञा स्त्री० [हिं० मन+कामना मनोरय । अभिलापा। देखि हरेउ री।--सूर । (ग) कानन लपत बिजुरिया मन इच्छा । उ.-सुनु मिय सत्य अवीय हमारी । पूतहि हरि लीन । तिन पर पर बिजुरिया जिन रचि दीन । मनकामना तुम्हारी ।---तुलसी। रहीम । (घ) स्वम रूप भाषण सुधि करि करि । गया दुहुन मनकला-वि० स्त्री० [अ० ] स्थिर या स्थावर का उलटा । चर। के यहि विधि मन हरि ।-० दि०। किसी का मन यौन-जायदाद मनकला २ मपनि । गैर गना -स्थिर । हाथ में लेना वा करना-वीभूत करना। अपने वश में स्थायो । स्थावर । करना । मन ही मन-हृदय मे। चुपचाप । बिना कुछ कहे मनकहा-वि० बी० [ 0] जिसके साथ निकाह हुआ हो। हुए । भीतर ही भीतर । उ०—(क) ललिता मुन्र चितवत विवाहिता । पाणिगृहीता । जैसे, मनकहा औरन । मुसुकाने । आर हँसी पिय मुख अवलोकत दुहुनि मनहिं : मनगढ़त-वि० [हिं० मन+गदना ] जिसकी वास्तविक सत्ता न मन जाने ।-सूर । (ख) प्रथम केलि तिय कलह की, हो, केवल कल्पना कर ली गई हो। कपोल कल्पित । कथा न कछु कहि जाय । अतनु साप तनुही सहै, मन ही जैमे,-आपकी सब बाते मनगढंत ही हुआ करती है। मन अकुलाय।-पद्माकर । संशास्त्री कोरी कल्पना । काल-कल्पना । जैसे,-यह मय (३) इच्छा इरादा । विचार। आपकी मनगढ़त है। मुहा०-मन करना इच्छा करना । नाहना । उ.-मन न मनचला-वि [हिं० गन+नलमा) (1) धीर । निडर । जैसे, मन- मनावन को कर देत रूलाय रुठाय । कौतुक लाग्यो पिय चला सिपाही । (२) साहनी हिम्मतवाला । (३) रपिक । प्रिया खिजा रिझावति जाय।-बिहारी । मनमाना= । मनचाहता-वि० [हिं० मन+चाहना ] [स्त्री, मनचाहती ] (1) अपने मन के अनुसार । यथेच्छ । मन होनाल्छा होना। जिसे मन चाहे । प्रिय । (२) मन के अनुकूल । यथेच्छ । उ०—उमगत अनुराग सभा के सराहे भाग देखि दमा मनचाहा-वि० [हिं० मन+चाहना ] [स्त्री. मनवाई। ] इच्छित । जनक की कहिये को मनु भयो-तुलसी। अभिलषित।

  • संज्ञा पुं॰ [सं० मणि ] (1) मणि। बहुमूल्य पस्थर । (२) . मनचीता-वि० [हिं० मन+चतना ] [ स्त्री० मनचाता ] मनचाहा ।

चालिस सेर का एक मान या तौल । मनभाया । मन में सोचा हुआ । उ०—(क) घर पर