पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३६७

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मयार २६५८ मरकताल का चेरी कोई । जेहि कहूँ मया करे भल सोई।—जायसी। मगण, यगण और अंत में भगण होता है। ( य य य य य (ग) मृगया यहे शूर तर बढ़ी। बंदी मुखनि धाप सो पड़ी। म यम)। जो केहू धितवे यह दया । बात कहे तो बड़िए मया।- मयूरप्रीवक-संज्ञा पुं॰ [सं० ] तूतिया ! केशव । (५) दया । अनुकंपा । छोह । उ०—(क) तहाँ मयूरचटक-संज्ञा पुं० [सं० ] एक प्रकार का पक्षी। चकोर कोकिला तेहि तन मया पईठ । नयनन रकत भरा मयूरचूह-संज्ञा पुं० सं०] थुनेर । यहि तुम पुनि कीन्ही डीट।-जायदी। (ख) कहि धौरी मयूरचूड़ा-संज्ञा स्त्री० [सं०] मपशिखा नामक क्षुप । बन बेलि कहूँ तुम देखी है मैंद-नंदन । बुझो हौं मालती मयूरजंघ-संज्ञा पुं० [सं० ] सोनापाढा । श्योनाक । कहूँ तें पाए हैं तनु चंदन ।......"कहि धी मृगी मया मयूरनुत्य-संज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का नाच जिसमें थिरकन करि हमसों कहिधौं मधुप मराल । सूरदास प्रभु के तुम अधिक होती है। संगी ही कहँ परम दयाल ।--सूर । - मयूरपदक-संज्ञा पुं० [सं० ] नखाघात । नखक्षत । मयार-वि० [सं० माया, हिं० माया ) [ स्त्री. मयारी ] दयालु । मयुररथ-संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय । स्कंद । कृपालु । उ०--(क) रोवत बृड उठा संसारू । महादेव मयूरविदला-संज्ञा स्त्री० [सं० ] मोइया । अंबष्ठा । नब भयो मयारू । —जायसी । (ख) मारी भरी मुख धोइ मयूरशिखा-संशा स्त्री० [सं० ] मोरशिस्त्रा नामक क्षुप । बे को आपनी विसारी सारी सवारी अति देखत मयारि मदरसारिणी-संज्ञा स्त्री० [सं०] तेरह अक्षरों के एक छंद का है।-रघुनाथ । . नाम जिसके प्रत्येक पद में रगण, जगण फिर रगण और मयारी संज्ञा स्त्री० [ देश० ] (१) वह इंडा वा धरन जिस पर अंत में गुरु होता है। हिडोले की रस्सी लटकाई जाती है । उ०—सुनि विनय · मयूरसारी-वि० [सं० मयूरसारिन् ] गर्षित। श्रीपति बिहँसि बोले विश्वकर्मा श्रुति धारि । खचि खंभ मयूरस्थल-संशा पुं० [सं० ] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम । कंचन के रचि पचि राजति महवा मयारि । पटुली लगे नग मयरिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) अंबष्ठा । मोइया । (२) एक नाग बहुरंग बनादी चारि । भंवरा भव भत्रि केन्लि भले . प्रकार का विला कीदा। नगर नागर नारि ।-सूर । (२) छाजन की वह धरन , मयूरेश-संशा पुं० [सं.] कार्तिकेय । जिस पर बहुआ के आधार पर फँडेर रहती है। मयेश्वर-संज्ञा पुं० [सं०] मय दानव । वि० दे० "मय"। मयी-संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊँटनी ।

मयोभय-संज्ञा पुं० [सं०] शिव ।

अन्य ० स्त्री० दे. "मय"। मयांभू-वि० [सं०] यज्ञ के फल से उत्पन । मयु-संज्ञा पुं० [सं०] (1) फिर । (२) मृग । मरंद-संज्ञा पुं० [सं० मकरंद, प्रा० मरंद ] मकरंद। मयुराज-संज्ञा पुं० [सं० } कुवेर । मदकोश-संज्ञा पुं० [हिं० मरंद+कोश ) (9) फूल का वह भाग मयुष्ट-संशा पुं० [सं० ] बनमूंग । जिसमें 'सुधा' वा रस रहता है। मकर द-कोश । (२) मयुष्टक-संज्ञा पुं० [सं० ] घनमूंग। मधु-मक्खियों का छत्ता । मयूफ-संज्ञा पुं० [सं०] मयूर । मर-संज्ञा पुं० [सं०] (१) मृत्यु । (२) संसार जगत (३) मयूख-संशा पुं० [सं०] (1) किरण । रश्मि । (२) दीप्ति । पृथ्वी । प्रकाश । (३) ज्वाला। (५) शोभा।(५) काल । (६) पर्वत । सशा स्त्री० दे० "मुरा"। मयूखादित्य-सशा पुं० [सं०] सूर्य के एक भेद का नाम । मरक-संशा पुं० [सं०] (1) मृत्यु । मरण। (२) वह रोग जिसमें मयूखी-संशा मी० [सं० ] प्राचीन काल के एक अस्त्र का नाम । थोरे ही काल में अनेक मनुष्य प्रस्त होकर मरते है। वह मयूर-संज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० मयूरी ] (१) मोर । (२) मयूर भीषण संक्रामक रोग जिससे बहुत से लोग मरें। मरी। शिखा नामक क्षुप । (३) एक असुर का नाम । (४) मार्क (३) मार्कंडेय पुराणानुसार एक जाति का नाम । टेय पुराणानुसार सुमेरु पर्वत के उत्तर के एक पर्वत का संशा स्त्री० [हिं० मरकना-दबाना ] (1) दबाकर संकेत करना । संकेत । इशारा । उ.-भर ते टरत न बर पर मयूरक-संज्ञा पुं० [सं०] (१) अपामार्ग । चिवड़ा । (२) दई मरक मनु मैन । होदा होगी अदि चले चित चतुराई सूतिया । (३) मोर । (४) मयूरशिखा नामक क्षुप । नैन ।-बिहारी । (२) दे. "मक"। मयूरकेतु-संशा पुं० [सं०] स्कंद का एक नाम । मरकट-संज्ञा पुं० दे. "मर्कट"। मयूरगति-संज्ञा स्त्री० [सं०] चौधीस अक्षरों की एक वृत्ति का | मरकत-संशा पं० [सं०] पमा । नाम जिसके प्रत्येक चरण में आदि में पांच यगण, फिर मरकताल-संज्ञा पुं० [ श.] समुद्र की तरंगों को उतार की नाम।