पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मरज़ी मरना मन मरजिया एक बार बॅसिलेड । की लाल लै नीकसे कं वाला सेवक । उ०—लिये तल मरदनियों आये । उपाटि लालच जिउ देह।-कबीर। सुगंध धुपरि अन्हवाये। लल्लू। मरज़ी--संशा स्त्री० [अ० (१) इच्छा । कामना । चाह । उ.- मग्दानगी-संशा स्त्री० [फा०] (1) वीरता । शूरता। शौर्य । (क) घरजी हमें और सुनाइवे को कहि तोष लख्यो सिगरी (२) साहस । मरजी।-तोष । (ग्व) दरजी किते तिते धन गरजी। कि०प्र०-दिखाना। योतहि पटु पट जिमि मृप मरजी ।-गोपाल । (२) मरदाना-वि० [फा०] (1) पुरुष संबंधी। पुरुषों का । जैसे, प्रसन्नता । खुशी। (३) आज्ञा । स्वीकृति । उ०—(क) वा मरदानी बैठक । (२) पुरुषों का सा । जैसे, मरदाना भेस, विधि साँवर राबरे फी न मिली मरजी न मजा न मजाखे। (३) वीरोचित । जैसे, मरदाना काम । ५माकर । (ख) इनकी सबकी मरजी करिके अपने मन को क्रि० अ० [हिं० मरद ] साहस करना । वीरता दिखाना। समुआवने है।--ठाकुर । (ग) मरजी जो उठी पिय की मदद-वि० [अ० ] (1) तिरस्कृत । (२) लुच्चा । नीच । सुधि ले चपला धमकै न रहै बरजी। मग्न-संक्षा पुं० दे. "मरण"। मरजीवा-संज्ञा पुं० दे० "मरजिया"। उ.-मोती उपजे सीप मग्ना-क्रि० अ० [सं० मरण ] (१) प्राणियों या वनस्पतियों के में पीप समुंदर माहि। कोई मरजिवा काढ़ेसी जीवन की शरीर में ऐसा विकार होना जिससे उनको स्मय शारीरिक गम नाहिं।-कबीर। कियाएँ बंद हो जायें । मृत्यु को प्राप्त होना । उ०—(क) मरण-संज्ञा पुं० [सं०] (1) मरने का भाव । मृत्यु । मौत । साईयों मत जानियो प्रीति घट मम चित्त । मरूँ तो तुम (२) बरसनाभ । बछनाग। सुमिरत मरूँ जीवत सुमिरों नित्त । कबीर । (ख) कर गहि मरणधर्मा-वि० [सं० मरणधर्मन् ] मरणशील । मरणस्वभाव । खग तोर बध करिहीं सुनि मारिच डर मान्यो । रामचंद्र के जो मरता हो। हाथ मरूँगो परम पुरुष फल जान्यो ।-सूर । (ग) लघु भरत-संज्ञा पुं० [सं० मृत्यु ] मरण । मृत्यु । मौत । आनन उत्तर देत बड़े लरिहै भरि करिहै कछु साके।--- मरतका-संज्ञा पुं० [अ० ] (1) पद । पदवी। तुलनी। (घ) मरिये को साहस फियो बढी बिरह की पीर । क्रि० प्र०-पाना ।-बढ़ना ।—बढ़ाना ।-मिलना। दौरति है समुहै रूसी सरसिज सुरभि समीर ।-बिहारी। (२) धार । फ़ा। जैसे,—में आपके घर कई मरतबा , मुहा०-मरना जीना-शादी गर्मा । शुभाशुभ अवसर । सुख गया था। दुःख । मरने की छुट्टी न होना वा न मिलना-बिलकुल मरतबान-संज्ञा पुं० दे० "अमृतधान"। छुट्टी न मिलना । अवकाश का अभाव होना । दिन रात कार्य मरद*-संज्ञा पुं० दे० "मर्द"। उ०-अर्थ धर्म काम मोक्ष बसत में फँसा होना। विलोकनि में काली करामात जोगी जागता मरद की। (२) बहुत अधिक कष्ट उठाना । बहुत दुःख सहना । पचना। उ०—(क) एक बार मरि मिलें जो आये। दूसर बार मरै मरदई-संज्ञा स्त्री० [हिं० मर्द+ई (प्रत्य॰)] (1) मनुष्यस्व । कित जाये।-जायसी । (ख) तुलसी भरोसो न भवेस आदमीयत 1 (२) साहस । (३) वीरता । बहादुरी। भोरानाथ को तो कोटिक कलेस करो मरो छार छानिमो। क्रि० प्र०—करना ।—दिखाना । -तुलसी। (ग) तुलसी तेहि सेवत कौन मरे, रज ते लघ मग्दन-संज्ञा पुं० दे० "मर्दन"। को कर मेरु से भारै ।-तुलसी। (घ) कठिन दुई विधि मग्दना* --क्रि० स० [सं० मर्दन ] (8) मसलना । मर्दन करना। दीप को सुन हो मीत सुजान । सब निमि दिनु देखे जरै मलना। उ.--(क) अप्ति करहि उपद्रव नाथा। मर्दहि मरै लखै मुख भान । रमनिधि । मोहिं जानि अनाथा ।--तुलसी। (ख) पदन मरवि मद महा-किसी के लिये मरना हैरान होना। कष्ट सहना । सदन शत्रु सुर लोक पठावत ।-गोपाल। (२) स किसी पर मरना-लुब्ध होना। आसक्त होना । मर पचना-- करना। चूर्ण करना । उ.--अमल कमल कुल कलित अत्यंत कष्ट सहन।। किसी की बात पर मरना वा किसी ललित गति बेलि सों बलित मधु माधवी को पानिये। मृग- . बात के लिए मरना-दुःख सहना । मर मिटना-श्रम मद मरदि कपूर धूरि थरि पग केसरि को केशव विलास करते करते विनष्ट हो जाना। उ.--सबने मर मिटने की पहिचानिये ।-केशव । (३) मॉबना। गूंधना । जैसे, ठान ली थी।इन्शा। मरा जाना-(१) व्याकुल होना । आदा मरदना। व्यम होना । जैसे,—सूद देते देते फिसान मरे जाते हैं। मरदनिया -संज्ञा पुं० [हिं० मर्दना ] वह भूस्य जो बड़े आदमियों (२) उत्सुक होना । उतावली करना। के अंग में तेल आदि मला करता है। पारीर में तेल मलने (३) मुरझाना। कुम्हलाना । सूखना । जैसे, पान का मरना,