पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३७

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फेफड़ा २३३० फेर लेते है। वक्षआशय के भीतर श्वास प्रश्वास का विधान बँटे होते हैं। इन कोठों के बीच सूक्ष्म वायुप्रणालियाँ होती करनेवाला कोश । साँस की थैली जो छाती के नीचे होती हैं। नाक से खींची हुई वायु जो भीतर जाती है उसे वास कहते हैं । जो वायु नाक से बाहर निकाली जाती है उसे विशेष-वक्षाशय के भीतर वायुनाल में थोड़ी दूर नीचे प्रश्वास कहते हैं। भीतर जो साँस खींची जाती है उसमें जाकर इधर उधर दो कनखे फूटे रहते हैं जिनसे लगा हुआ कारबन, जलवाष्प तथा और हानिकारक पदार्थ बहुत कम मांस का एक एक लोथदा दोनों ओर रहता है । थैली के मात्रा में होते हैं और आक्सिजन गैस जो प्राणियों के लिये रूप के ये ही दोनों छिनमय लोथड़े दाहने और बाएँ आवश्यक है अधिक मात्रा में होती है पर, भीतर से जो फेफड़े कहलाते हैं। वाहना फेफड़ा बाएँ फेफड़े की अपेक्षा चौड़ा साँस बाहर आती है उसमें कारयन या अंगारक वायु अधिक और भारी होता है। फेफड़े का आकार बीच से कटी हुई और आक्सिजन कम रहती है। शरीर के भीतर जो अनेक नारंगी की फांक का सा होता है जिसका नुकीला सिरा रासायनिक क्रियाएँ होती रहती हैं उनके कारण जहरीली ऊपर की ओर होता है। फेफड़े का निश्चला चौड़ा भाग उस कारबन मैस बनती रहती है। इस गैस के कारण रक्त का परदे पर रखा रहता है जो उदराशय को वक्षाशय से रंग कालापन लिए हो जाता है । यह काला रक्त शरीर के अलना करता है। दाहने फेफड़े में दो दरारें होती है जिनके सय भागों से इकट्ठा होकर दो महाशिराओं के द्वारा हृदय कारण वह तीन भागों में विभक्त दिखाई पड़ता है, पर के दाहने कोठे में पहुँचता है । हृदय से यह दूषित रक्त फिर बाएँ में एक ही दरार होती है जिससे वह दो ही भागों में फुप्फुसीय धमनी (दे० "नाही") द्वारा दोनों फेफड़ों में आ बँटा दिखाई पड़ता है। फेफडे चिकने और चमकीले होते जाता है। वहाँ रक्त की बहुत सी कारबन गैस बाहर निकल हैं और उनपर कुछ वित्तियों सी पड़ी होती हैं। प्रौढ़ जाती है और उसकी जगह आक्सिजन आ जाता है, इस मनुष्य के फेफड़े का रंग कुछ नीलापन लिए भूरा होता है। प्रकार फेफड़ों में जाकर रक्त शुद्ध हो जाता है । लाल शुद्ध गर्भस्थ शिशु के फेफड़े का रंग गहरा लाल होता है जो होकर फिर वह हृदय में पहुँचता है और वहाँ से धमनियों जन्म के उपरांत गुलाबी रहता है। दोनों फेफड़ों का वजन द्वारा सारे शरीर में फैलकर शरीर को स्वस्थ रखता है। पेर सवा मेर के लगभग होता है । स्वस्थ मनुष्य के फेफड़े | फेफड़ी-संशा स्त्री० [हिं० पपड़ी ] गरमी या खुश्की से ओठों के घायु से भरे रहने के कारण जल से हलके होते है और उपर चमड़े की सूखी तह । प्यास या गरमी से सूखे हुए पानी में नहीं डूबते । परंतु जिन्हें न्यूमोनिया क्षय आदि ओठ का चमड़ा। बीमारियाँ होती है उनके फेफडे का रुग्ण भाग ठोस हो। मुहा०-फेफडी बाँधना या पदना-ओठ मूम्बना । जाता है और पानी में डालने से डूब जाता है । गर्भ के संज्ञा स्त्री० [हिं० फेफड़ा चौपायों का एक रोग जिसमें उनके भीतर बचा साँस नहीं लेता इससे उसका फेफड़ा पानी में इव । फेफड़े सूज आते हैं और उनका रक्त सूख जाता है। जायगा । पर जो बच्चा पैदा होकर कुछ भी जिया है उसका फेफरी-संशा खा० दे० "फेफड़ी"। उ०-मथुरापुर में शोर पर यो। फेफड़ा पानी में नहीं डूबेगा । जीव साँस द्वारा जो हवा । गर्जत कंस वेस सब साजे मुख को नीर हरयो। पीरो भयो, खींचते है वह वासनाल द्वारा फेफड़े में पहुँचती है। इस | फेफरी अधरन हिरदय अतिहि बरयो। नंदमहर के सुत टेंटुये के नीचे थोड़ी दूर जाकर श्वासनाल के इधर उधर दोउ सुनि के नारिन हरख भरयो।-सूर । दो कनखे फूटे रहते हैं जिन्हें दाहनी और थाई वायुप्रणालियाँ फेरंड-संशा पुं० [सं०] गीदड़ । सियार । कहते हैं। फेफड़े के भीतर घुसते ही ये वायुप्रणालियाँ फेर-संज्ञा पुं० [हिं० फेरना ] (1) चकर। घुमाव । घूमने की उत्तरोत्तर बहुत सी शाखाओं में विभक्त होती जाती है। क्रिया, दशा या भाव ।-(क) ओहि क खंड जस परबत केफो में पहुँचने के पहले वायुप्रणाली लचीली हड्डी के छल्लों मेरू । मेहहि लागि होइ अप्ति फेरू।-जायसी । (ख) के रूप में रहती है पर भीतर जाकर ज्यों ज्यों शाखाओं में फेर सों काहे को प्राण निकासप्त सूधेहि क्यों नहि लेत विभक्त होती जाती है स्यों त्यों शाखाएँ पतली और सूत के निकारी।-हनुमान । रूप में होती जाती है, यहाँ तक कि ये शाखाएँ फेफले के मुहा०-फेर खाना-घुमाव का रास्ता तय करना । सीधा न जाकर सब भागों में जाल की तरह फैली रहती है। इन्हींके द्वारा इधर उधर घूमकर अधिक चलना । जैसे,-मैं तो इसी रास्ते साँस से खींची हुई वायु फेफड़े के सब भागों में पहुँचती जाऊँगा, उधर उतना फेर खाने कौन आय ? फेर पड़ना है। फेफड़े के बहुत से छोटे छोटे विभाग होते हैं। प्रत्येक घुमाव का रास्ता पड़ना । सीधा न पड़ना । जैसे,—उधर से मत विभाग को सूक्ष्म आकार का फेफदा ही समझिए जिसमें जाओ बहुत फेरे पड़ेगा, मैं सीधा रास्ता बताता है। फेर कई घर होते है। ये पर वायुमंदिर कहलाते है और कोठों में ! बँधना-क्रम या तार मँधना । सिलसिला लगना । फेर बाँधना-