पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५५९

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यमुनोत्तरी २८५० यघन यमुनोत्तरी-संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय में गढ़वाल के पास का यला-संज्ञा स्त्री० [सं० इला ] पृथ्वी । (डिं.) ___ एक पर्वत जिससे यमुना नदी निकली है। यलाइंद-संज्ञा पुं० [सं० इला+द्र] राजा । (डि.) यमेरुका-संज्ञा स्त्री० [स] एक घड़ियाल या बड़ी झांझ जो यलापत-संज्ञा पुं० [सं० इला+पति ] राजा । (डिं.) प्राचीन काल में एक घड़ी पूरी होने पर बजाई जाती थी। यव-संज्ञा पुं० [सं०] (1) जौ नामक अन्न । वि० दे. "जी"। यमेश-संज्ञा पुं० [सं०] भरणी नक्षत्र । (२) १२ सरसों या एक जौ की तौल का एक मान । यमेश्वर-संज्ञा पुं० [सं०] शिव । (३) लंबाई की एक नाप जो एक इंच की एक तिहाई ययाति-संज्ञा पुं० [सं०] राजा नहुप के पुत्र जो चंद्रवंश के होती है। (४) सामुद्रिक के अनुसार जौ के आकार की पाँचवें राजा थे और जिनका विवाह शुक्राचार्य की कन्या एक प्रकार की रेखा जो उंगली में होती है और जो बहुत देवयानी के साथ हुआ था। इनको देवयानी के गर्भ से शुभ मानी जाती है। कहते हैं कि यदि यह रेखा अंगूठे यदु और तुर्वसु नाम के दो तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से में हो, तो उसका फल और भी शुभ होता है। इस रेखा दुा, अगु और पुरु नाम के तीन पुत्र हुए थे। (दे० का रामचंद्र के दाहिने पैर के अंगूठे में होना माना जाता "देवयानी"1) इनमें से यदु से यादव वंश और पुरु से ! है। (५) वेग। तेजी । (६) वह वस्तु जो दोनों ओर पौरव वंश का आरंभ हुआ। शमिष्टा इन्हें विवाह के दहेज . उन्नतोदर हो। में मिली थी। शुक्राचार्य ने इन्हें कह दिया था कि : यवकंठक-संज्ञा पुं० [सं०] खेत पापड़ा। शर्मिष्ठा के साथ संभोग न करना। पर जब शर्मिष्ठा ने यवक-संज्ञा पुं० [सं०] जौ। ऋतुमती होने पर इनमे ऋतु-रक्षा की प्रार्थना की, तत्र | यवकलश-संज्ञा पुं० [सं० ] इंद्रजी। इन्होंने उसके साथ संभोग किया और उसे संतान हुई ।। यवक्रीत-संशा पु० [सं०] एक ऋषि का नाम जो भरद्वाज के इस पर शुक्राचार्य ने इन्हें शाप दिया कि तुम्हें शीघ्र | पुत्र थे। बुढ़ापा आ जायगा। जब इन्होंने शुक्राचार्य को संभोग : यवक्षा-संज्ञा स्त्री० । सं०] महाभारत के अनुसार एक नदी का कारण बतलाया, तब उन्होंने कहा कि यदि कोई का नाम । तुम्हारा बुढ़ापा ले लेगा, तो तुम फिर ज्यों के त्यो हो । यवक्षार-सशा गुं० [स० ] जौ के पौधों को जलाकर निकाला जाओगे । इन्होंने एक एक करके अपने चारों पुत्रों से कहा हुआ बार । वि० दे० "जवाखार"। कि तुम हमारा बुढ़ापा लेकर अपना यौवन हमें दे दो, 'यवचतुर्थी-संशा स्त्री० [सं० ] वैशाख शुक्ला चतुर्थी । पर किसी ने स्वीकार नहीं किया। अंत में पुरु ने इनका यवज-संज्ञा पुं० [सं०] (१) यवक्षार । (२) गेहूँ का पौधा । बुढ़ापा आप ले लिया और अपनी जवानी इन्हें दे दी। (३) अजवायन । पुनः यौवन प्राप्त करके इन्होंने एक सहम वर्ग तक ' यवतिक्का-सशा सी० [सं० ] शंग्विनी नाम की लता। विषय-सुख भागा । अंत में पुरु को अपना राज्य देकर यवदीप-सज्ञा पुं० [सं.] जी के आकार की एक रेखा, जो रत्नों आप वन में जाकर तपस्या करने लगे और अंत में स्वर्ग में पड़ जाती है और जिसमे वह रन कुछ दूपित हो चले गए। स्वर्ग पहुँचने पर भी एक बार यह इंद्र के शाप जाता है। से वहाँ से च्युत हुए थे; क्योंकि इन्होंने इंद्र में कहा था यवद्वीप-सज्ञा पुं॰ [सं० ] वर्तमान जावा द्वीप का प्राचीन नाम । कि जैसी तात्या मैंने की है, वैसी और किसी ने नहीं की। यवन-संज्ञा पुं० [सं०] [मा यवना ] (1) वेग । तेजी। (२) जब ये स्वर्ग से च्युत हो रहे थे, तब मार्ग में इन्हें अटक तेज़ घोड़ा । (३) यूनान देश का निवासी । यूनानी। ऋपियों ने रोककर फिर मे स्वर्ग भेजा था। इनका उल्लेख विशेष-यूनान देश में "आयोनिया" नामक प्रांत या द्वीप है, ऋग्वेद में भी आया है। जिम्मका लगात्र पहले पूर्वीय देशों में बहुत अधिक था। ययातिपतन-संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ उसी के आधार पर भारतवासी उस देश के निवासियों को. का नाम । और तदुपरांत भारत में यूनानियों के आने पर उन्हें भी ययावर-संज्ञा पु० दे० 'यायावर"। "यवन" कहते थे। पीछे से इस शब्द का अर्थ और भी विस्तृत ययी-संज्ञा पुं० [सं०] (1) शिव । (२) घोड़ा। (३) मागं। हो गया और रोमन, पारसी आदि प्रायः सभी विदेशियों, पथ । रास्ता । विशेषत: पश्चिम से आनेवाले विदेशियों को लोग "यवन" ययु-संशा पु० [सं०] (१) अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा । (२) ही कहने लगे; और इस शब्द का प्रयोग प्राय: "म्लेच्छ" घोड़ा। के अर्थ में होने लगा। परंतु महाभारत काल में यवन और यलधीस, यलनाथ-सज्ञा पु० [सं० इला+धीश ] राजा । (डिं.), म्लेच्छ ये दोनों भिन्न भिन्न जातियाँ मानी जाती थीं।