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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/१८१

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सरिश्तेदारी ५००१ सरेख सरिश्तेदारी--सञ्ज्ञा स्त्री० [फा०] १ सरिश्ते का माव । २ सरिश्तेदार पृ० रा० १। ७०३ । (ग) नुनहुनयन मल भग्न मरीमा ।- का काम या पद। मानस, २।२३० । सरिषप--मक्षा पु० [स०] दे० 'सर्पप' गो०] । सरीसर-सज्ञा पुं॰ [देशी) मह । साय। उ०-परतापमि सातउ सरिस@--वि० [म० सदृश, प्रा० सरिस] सदश । समान । तुल्य | मात सगैस । प्रथीपति अाइ नमाश्य मांस ।-पृ० ग०, उ०-- (क) जल पय सरिस विकाइ देखहु प्रोति की रीति ५।३०। यह ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) उठिक निज मस्तक भयो चालत सरीसृप-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ रेगनेवाला जतु । जैसे,—माप, असुर महान । वात वेग ते फल सरिस महि मह गिरे विमान । कनखजूरा ग्रादि । २. मप । माँप । ३ विाणु का एक नाम । --गिरधरदास (शब्द०)। सरीसृप'- वि० रेगनेवाला। पेट के वन चिमटने हुए चलनेवाला (को०] । सरी'-मला मी० [म०११ तलैया। पुष्करिणी। छोटा जलाशय । सरीह-वि० [अ० जो प्रत्यक्ष हो खुला हुना। २ झरना । छोटा प्रपात [को॰] । सरोहन्-अव्य० [अ०] प्रत्यक्षत । स्पष्टत [को० । सरी'--सज्ञा स्त्री॰ [फा०] अध्यक्षता । सरदारी (को०) । सरु'---वि० [सं०] पतला । लघु । छोटा [को०)। सरी--सच्चा श्री० [देशी माला । हार । सरु -- सवा पुं० १ तीर । वाण। २ तलवार या कटार की मूठ । सरीका-वि० [फा० शरीक दे० 'गरीक' । सरु (को०] । सरीकता-सञ्ज्ञा स्त्री० ० [फा० शिरकत] दे० 'शिरकत' । सरुख--वि० [स० सरुप, सक्रोध । त्रोवयुक्त । सरीकता-सवा स्त्री॰ [फा० शरीक + स० ता (प्रत्य०)| साझा । सरुक्--वि० [स०] १. दे० 'मरुच्' । २ दे० 'सरुज्' । हिस्सा। शिरकत । उ०-निपट निदरि बोले वचन कुठारपानि सरुच्-वि० [म०] शोभायुक्त । कातिमान् । मानी त्रास औवनिपन मानो मौनता गही । रोपे मापे लखन सरुज्–वि० [स०] कप्टग्रस्त । व्याधिग्रस्त । रोगयुक्त । अकन अनपीही वातै तुलसी विनीत वानी विहंसि ऐसी कही । सरुज--'वि० [स०] रोगी। रोगयुक्त । रुग्न । उ०-मरज सरीर सुजस तिहारो भरे भुग्रन भृगुतिलक प्रवल प्रताप आपु कही वादि बहु भोगा। विनु हरिभगति जाये जप जोगा। सो सवै कही । टूटयौ सो न जुरैगो सरासन महस जू को, रावरी -मानस, २।१७८ । पिनाक मे सरीकता कहा रही।--तुलसी (शब्द०)। सरुट, सरुप सरुष-वि० [१०] क्रोधयुक्न । कुपित । उ०-चोले सरीका-वि० [स० सदृक्ष, प्रा० सरिक्ख, हिं० सरीखा] · 'मरीखा' । भृगुपति सरुप हमि तहूँ बयु सम वाम ।-मानस, १२८२। सरीखा--वि० [स० सदृक्ष, प्रा० सरिक्ख] सदृश । समान । तुल्य । सरुहाना 31-नि० अ० [2] अच्छा होना । ठीक होना। सरीफा---सच्चा पुं० [स० श्रीफल एक छोटा पेड जिसके फल खाए सरहाना पुर क्रि० स० चगा करना । अच्छा करना । उ०- समुझि रहनि सुनि कहनि बिरह व्रत अनप अमिन औपध सरुहाए। -तुलसी (शब्द०)। विशेप-इसको छाल पतली खाकी रग को ह ती है और पत्ते अमरूद के पत्तो के से होते हैं। फूल तीन दलवाले, चौडे और सरूप'--वि० [१०] [सशा मोर सस्पता] १ स्पयुक्त । प्राकारवाला। २ एक ही रूप का । सदृश । समान। ३ रूपवान । सुदर । कुछ अनीदार होते है। फल गोलाई लिए हरे रंग का होता है सरूप-रखा पु० [म० स्वम्प] दे० 'स्वरप'। उ०-जा सरूप और उसपर उभरे हुए दाने होते है जो दखने मे बडे सुदर बस सिव मन माही। जहि कारन मुनि जतन कराही। लगते है । वीजकोशो का गूदा बहुत मोठा होता है। इस फल -मानस १११४६ । मे वीज अधिक होते हैं । सरीफा गरमी के दिनो मे फूलता है सरूपता-पञ्चा पा० [स०J१ एक रूप या ममान होने की स्थिति या और कातिक अगहन तक फल पकते है । विंध्य पर्वत पर बहुत भाव । सदृशता । २ ब्रह्मत हाना । लोन हाना जा मुक्ति के से स्थानो मे यह अाप से आप उगता है। वहाँ इसके जगल के चार भेदो में एक है । दे० 'सारप्य' । जगल खडे है। जगली सरीफे के फल छोटे होते है और सरूपत्व--सज्ञा पुं॰ [स०] दे० 'मरूपता' । उनमे गृदा बहुत कम होता है। सरूपा-ममा स्त्री॰ [स०] भूत की स्त्री जो असख्य रद्रो की माता कही सरीर--सशा पुं० [स० शरीर] २० 'शरीर'। उ०-सरज सरीर वादि बहु भोगा । -मानम, २११७८ । सरूपी-वि० [स० सरूपिन्] समान म्पवाला । मदृश [को०] । सरीर-सझा पु० [अ०] सिंहासन । राजगद्दी । तसत 'को०] । सरूर-पचा पुं० [फा० मुत्र] १ आनद । खुशी। प्रसन्नता । २ सरोर-सज्ञा स्त्री०१ पदचाप । पदध्वनि। २ कलम को खरखराहट । हलका नशा । नशे की तरग। मादकता। यौ---सरीरेकलम = लिखते समय कागज पर होनेवाली कलम सरेख-वि० [सं० श्रेष्ठ] ['व० सी० सरेगी। अवम्या में बडा और की खरखराहट । समझदार । श्रेष्ठ । चतुर । चानाक । मयाना । उ-हसि सरीसर-वि० [सं० सदृश, प्रा० सरिस] समान । तुल्य । सरीखा। हँसि पूछ सखी सरेखो । जनहु कुमुदचदन मुख देखो।-जायसी उ.-(क) विक्रम राज सरीस भौ वृधि मन्नन कवि चद। (शब्द०)। जाते है।