पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२३७

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साट साड ब्राह्मणो तथा मुल्लाओं को साट से कबीर साहब के साथ कुव्यवहार करना।-कबीर म०, पृ० १०१ । साट'-संज्ञा पु० [देशी सट्ट] सट्टा। विनिमय । बदला। उ०-- खजर नेत विसाल, गय चाही लागड चक्ख। एकरण साटइ मारुवी, देह एगकी लक्ख ।-ढोला०, दू० ४५८ । माटक---सज्ञा पु० [१] १ भूसी। छिलका। २ विलकुल तृच्छ और निरर्थक वस्तु । निकम्मी चीज । उ0--गज बाजि घटा, भले भरि भटा, वनिता सुत भौह तक सब वै। धरनी धन धाम सरीर भलो, सुर लोकहु चाहि इहै सुख स्वं । सव फोकट साटक है तुलसी, अपनो न कछू सपनो दिन द्वै। जर जाउ सो जीवन जानकीनाथ | जिय जग मे तुम्हरो विन है। -तुलसी (शब्द०)। ३ एक प्रकार का छद । उ०--छद प्रवध कवित्त जति साटक गाह दृहत्थ ।-पृ० रा०, १.८१ । विशेष--कुछ लोग इसे शार्दूलविक्रीडित का अपभ्रष्ट रूप मानते है। 'रूपदीप पिंगल' के अनुसार इसका लक्षण इस प्रकार है-कर्म द्वादश अक याद सज्ञा माना सिवो सागरे । दुज्जी करिके कलाण्ट दस वी अर्को विरामाधिकम् । अते गुर्व निहार धार सबके औरो कछू भेद ना। तीसो मत्त उनीस अक चरनेसेतो भरणे साटिकम् । यथा-पादोदेव प्रनम्य नम्य गुय वानीय वदे पय |--पृ० रा० १।१। साटन-सा पु० [अ० सैटिन] एक प्रकार का वढिया रेशमी कपडा जो प्राय एकरखा और कई रगो का होता है। उ०-पीछे अधिकारियो की कुर्सियां लगी थी जिनपर भी नीली साटन चटी थी। भारतेदु ग्र०, भा० ३, पृ० १.७ । साटना@t- क्रि० स० [हिं० सटाना] १ दो चं जो का इस प्रकार मिलाना कि उनके तल आपस में मिल जायें। सटाना । जोडना । मिलाना । २ दे० 'सटाना'। साटनी-सज्ञा स्त्री० [देश॰] कलदरो की परिभाषा मे भालू का नाच । साटमार - सज्ञा पु० [हिं० साँट+मारना] वह जो हाथियो को सॉटे मार मारकर लडाता हो। हाथियो को लडानेवाला। साटमारी-संज्ञा स्त्री० [हिं० साटमार + ई (प्रत्य॰)] साँटे मार मारकर हाथियो को लडाने का कार्य । इस प्रकार की हाथियो की लटाई। साटा-सचा पु० [देशी सट्ट, सट्टक ( = विनिमय)] १ सौदा। दे० 'सट्टा'। उ०-सोई सास सुजाण नर माँई सेती लाइ। करि साटा सिरजनहार टू मॅहगे मोलि विकाइ ।---दादू०, पृ० ३८ । २ दे० 'साठी'। उ०-कहूँ न मन माने निमष ज्यो मनि बिना भुयग। सद माखन साटो दही। धरयो रहै मनमद।-पृ० रा०, २१५५६ । साटिकफिटिका---सञ्ज्ञा पु० [अ० सर्टिफिकेट] प्रमाणपत्र । उ०- लखि कै साँचे साटिकफिटिक सराहै सब जन । -प्रेमघन०, भा० १, पृ० २४ । साटी-सरा स्त्री० [देश॰] १ पुनर्नवा। गदहपूर्ना । २ सामान। सामग्री। दे० 'सांठी'। ३ कमची। दे० 'साँटी'। उ०- वाजीगर के हाथ डोरी है जब साटिन ते सटका ।-सत० दरिया, पृ० १३४। साटे-अव्य० [देशी] वदले मे । परिवर्तन मे । साटेबरदार - सज्ञा पु० [हिं० साट+ फा० वर + दार (प्रत्य॰)] लाठी धारण करनेवाले । लट्ठधारी। उ०-उधर साटेवरदार, वर छीवाले दौडे, पर चॅदोवे के नीचे भगदड मच गई। -तितली, पृ० १६१। साटोप--वि० [म०] १ आडवरयुक्त । अभिमानी। मदोद्वत। २. - शानदार । शाही । ३ (जल अादि से) फूला या भरा हुधा । ४ गर्जता हुआ। गर्जन करता हुआ । जैसे, वादल (को०)। साठ'-वि० [स० पष्ठि, प्रा० सठि] पचास और दस । जो पचपन से पाँच ऊपर हो। साठ सज्ञा पु० पचास और दस के योग की सय्या जो इस प्रकार लिखी जाती है--६० । साठ'--सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'साटी' । साठन-सज्ञा पु० [अ० सैटिन] दे॰ 'साटन'। उ०--बढिया साठन की मढी हुई कोच, कुर्सिये जगह जगह मौके से रक्खी थी। -श्रीनिवास ग्र०, पृ० १७७ । साठनाठ - वि० [हिं० साँठि+ नाठ (< नष्ट)] १ जिसको पूजी नष्ट हो गई हो। निर्धन । दन्द्रि! उ०--माठनाठ लग बात को पूछा । विन जिय फिर मूज तन छूछा ।-जायसी (शब्द०) । २ नीरस । रूखा । ३ इधर उधर । तितर बितर। उ०- चेटक लाइ हरहि मन जव लहि होइ गथ फेट । साठनाट उठि भए वटाऊ, ना पहिचान न भेट ।जायसी (शब्द॰) । साठसाती-सज्ञा स्त्री० [स० सार्ध,प्रा० सड्ढ हिं० साट+म० सप्तक ?] 'साढेसाती। साठा' सज्ञा पु० [देश॰] १ ईख । गन्ना। ऊख। २ एक प्रकार का धान जिसे साठी कहते है। विशेप दे० 'साठी-१'। ३ वह खेत जो बहुत लवा चौडा हो । ४ एक प्रकार की मधुमक्खी जिसे साठरिया कहते है। साठा- वि० [हिं० साठ] जिसकी अवस्था साठ वर्ष की हो गई हो । साठ वष की उम्रवाला । जैसे,—साठा सो पाठा । (कहा०)। साठाg:-सज्ञा पु० [हिं० सट्टा] बदला। उ०--१च वथेरा माँगे दीजै । उनके साठे बहु हय लोज।-प० रासो, पृ० ११६ । साठी'-सज्ञा पु० [स० षष्टिक] एक प्रकार का धान । विशेष-कहते है कि यह धान साठ दिन में तैयार हो जाता हे -साँवा, साठी साठ दिना देव वरीसै रात दिना । इसी से इसे साठी कहते हैं। इसके दाने दो प्रकार के होते है -काले और सफेद। काले की अपेक्षा सफेद दानेवाला अधिक अच्छ समझा जाता है। इसमे गुण अधिक होता है। साठी'-सज्ञा पु० [हिं०] दे० 'साटा-१। उ०-कालबूत कसरणी भई, सेवग साठी जान । रज्जब तावै तोरगर, यू सतगुरु की वानि।-रज्जव०, पृ० २० । साड-वि० [सं०] जिसमे पार हो। नुकीला । नोकदार । डकवाला। चुभनेवाला [को॰] ।