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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२५४

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1 T 1 सोमवेदिक ५०७४ सामान्य विशेष-पुगणा म कहा है कि इस वेद की एक हजार सहिताएँ सामा-मज्ञा स्त्री० [म० श्यामा] दे० 'श्यामा'। थी, परतु अाजकल इनमे से केवल एक ही सहिता मिलती है। सामाधु-सशा पु० [फा० सामान का सक्षिप्त स्प] मामग्री । सामान । यह महिना दो भागो मे विभक्त है, जिनमे से एक 'याचिक' सरजाम । उ०--(क) भोजन की मामा सत्यभामा को मुलाई और दूसरा 'उत्तराचिक' कहलाता है। इन दोनो भागो मे भले ।---पदमाकर ग्र०, पृ० २४७ । (स) अाखर लगाय जो १८१० ऋचाएँ है, उनमे से अधिकाश ऋग्वेद मे पाई हुई लेत लाखन को मामा हो।-पद्माकर ग्र०, पृ०३०६ । है। ये सब ऋचाएँ प्राय गायत्री छद मे ही है। यज्ञो यौ०--मामा सामाज = सामग्री, उपकरण और ममाज या समूह । समय जो स्तोत्र आदि गाए जाते थे, उन्ही स्तोत्रो का इस उ०-सामासमाज मवही वृथा नव सो अदभुत दैवगति । वेद मे सग्रह है । भारतीय संगीतशास्त्र का प्रारभ इन्ही स्तोत्रो यज० ग्र०, पृ०७६ से होता है। इस वेद का उपवेद गाधववेद है। सामाजिक'-पि० [सं०] १ समाज से सम्ध रखनवाला। समाज सामवेदिक'-वि० [सं०] सामवेद सवधी। का। जैसे,---सामाजिक कुरीतियाँ, मामाजिक झगडे, सामा- सामवेदिक-सज्ञा पु० सामवेद का ज्ञाता या अनुयायी ब्राह्मण । जिक व्यवहार ।' २ पमा मे सबंध रखनेवाला । ३ मह- सामवेदी--मशा पु० [म० सामवेदिन] सामवेद का अध्येता एवम् दय । रसज्ञ। जानकार ब्राह्मण को०)। सामाजिक-सवा पु० १ ममासद । पदम्य । मभ्य । २ (नाटक। देख- सामवेदीय-वि०, सज्ञा पु० [सं०] दे० 'मामवेदिक'। नेवाला । (नाटक का) सहृदय पाठक या दर्शक । उ०-उन्होने वतलाया कि सामाजिको के हृदय में वासनारूप में स्थित स्थायी सामवा--संज्ञा पु० [म० सामश्रवस्] वैदिक काल के एक ऋपि रति आदि भाव को हो रसत्व प्राप्त होता!-रसक०, का नाम। पृ० २२॥ सामसर--सज्ञा पु० [देश॰] एक प्रकार का गन्ना जो डुमरांव (बिहार) सामाजिकता-सशा सी० [म०] सामाजिक का भाव । लौकिकता। मे होता है। सामाधान--नशा पुं० [म०] १ शमन करने को किया। शाति । सामसाध्य-वि• [म०] जो साम नीति के द्वारा साध्य हो । २ शका का निवारण । ३ किसी कार्य को पूर्ण करने का सामसाली-सज्ञा पु० [स० माम + शाली] राजनीति के साम, व्यापार। सपादन । दाम, दड और भेद नामक अगो को जाननेवाला। राजनीतिज्ञ । सामान---पशा पु० [फा०] १ किसी कार्य के लिये साधन स्वरूप उ.--जयति राज राजेद्र राजीवलोचन राम नाम कलि काम आवश्यक वस्तुएँ । उपकरण । सामग्री । २. माल । अनवाब । तरु सामसाली। अनय अभोधि कुभज निसाचर निकर तिमिर महा०-सामान बनना = (१) वस्तुओं का संचार होना । (२) घनघोर वर किरिनिमाली।-तुलसी (शब्द०)। किसी प्रकार की तैयारी होना । मामान वावना-माल सामसावित्री---सज्ञा सी० [स०] एक प्रकार का सावित्री मन्त्र । (असवाव वांधार चलने को तैयारी करना । सामसुर--सञ्ज्ञा पु० [म०] एक प्रकार का सामगान । ३ प्रौजार। ४ वदोवस्त। इतजाम । उ.--इनके नाम व सामस्तवि--मज्ञा पु० [म० सामस्तम्बि] वैदिक काल के एक ऋपि निशान को भी मिटा देने का मामान कर रहे है ।--प्रेमघन०, का नाम। भा०२, पृ० ३६२ । सामस्तर-वि० [स० ममस्त] दे० 'समस्त' । क्रि० प्र०करना ।—होना । सामस्त' --सज्ञा पु० [सं०] शब्दो के विन्यास, मिश्रण, रचना या सधि- सामानग्रामिक-वि० [स०] एक ही ग्राम में रहनेवाले । एक ही गांव 'सबंधी विद्या । शब्द विज्ञान [को०] । के निवासी। सामस्त्य --सा पु० [स०] समस्तता । सपूर्णता किो०)। सामानदेशिक--वि० [स०] एक ही देश या गाँव से संबंधित । सामान- ग्रामिक । सामहलि-क्रि० वि० [स० सम्भाल्य ?] देखकर । समझ या जान- सामानाधिकरण्य-सज्ञा पुं० [सं०] १ ममान अवस्था या परिस्थिति कर । उ०—साँझी वेला सामहलि कटलि थई अगासि । ढोलइ मे होना। २ समान पद या समान काय । ३ एक ही कर्म से करह कंवाइयउ पायउ पूगल पासि ।-डोला०, दू० ५२२ । सबंधित होना (व्या०, नव्य न्याय)। एक ही कारक या समा- सामहिं--प्रव्य० [स० सन्मुख] सामने । समुख । समक्ष । उ० नाधिकरण मे होना [को०] । तिन सामहिं गोरा रन कोपा । अगद सरिस पाउँ भुइँ रोपा। सामानि-सज्ञा स्त्री॰ [व० सामान्या] दे० 'सामान्या-१'। उ०- --जायसी (शब्द०)। (ख) कोप सिंह सामहिं रन मेला। प्रथम स्वकीया पुनि परिकीया। इक सामानि बखानी तिया। लाखन सो ना मरै अकेला ।—जायसी (शब्द०)। -नद० ग्र०, पृ० १४५ । सामॉर--सशा पु० [स० श्यामाक] एक अन्न । दे० 'साँवा' । सामानिक--वि० [स०] समानपदीय । समान स्थिति या पद का (को०] । सामा--सञ्ज्ञा पु० [फा० सामान] दे० 'सामान' उ-चद तस्वीरे सामान्य-वि० [स०] १ जिसमे कोई विशेषता न हो। साधारण । बुतां चद हसीनो के खुतूत वाद मरने के मेरे घर से ये सामाँ मामूली। २ दे० 'समान' । ३ महत्वहीन । अदना । तुच्छ निकला।-चद०, पृ०१। (को०) । ४. पूरा । सपूर्ण (को०)। ५ औसत दरजे का (को॰) । 1