पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३०६

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सिय ६०२६ मियासत' सिया--नज्ञा स्त्री० [स० सीता] सीता। जानकी। उ०-उपदेश सियाना'--वि० [सं० मज्ञान, मरणाण] २० गयाना' । उ०-गो यह जेहि तात तुम ते राम सिय सुख पावही ।--तुलसी सतगुरु जो होय सियाना |--कवीर पा०, पृ० १६०० । (शब्द०)। सियाना'--गि० म० [म० जीवन] ६० 'निलाना' । सियना@-क्रि० स० [सं० सजन] उत्पन्न करना। रचना । उ०- सियानी वि० [सं० सज्ञाना] १ चतुर। बुद्धिमती। अनुभवी । जेहि बिरचि रचि सीय मंवरि औ रामहिं ऐसो रूप दियो री। उ०--पांच नगी मिलि दयन ग्रा: एक ने एक मियानी । तुलसिदास तेहि चतुर विधाना निज कर यह सजोग सियो री। -~-कवीर० मा० सं०, पृष्ट १।२ वयम्सा। वयप्राप्ती -तुलसी (शब्द०)। युवती। उ०--देवने देराते गियानी होने लगी। फूलो०, सियना-क्रि० स० [म० सीवन] दे० 'सीना' । पृ० २१६ । सियर--वि० [स० शीतल, प्रा. सीअल] दे० 'सियरा'। उ०—पदु- सियानोव-मरा पुं॰ [देश॰] प्रकार पक्षी । मावति तन सियर मवासा । नहर राज कत पर पासा । सियापा-सा पु० [फा० मियारणे] म हा मनुष्य ये पोक मे -जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ३४६ । कुछ काल तक बहुत सी स्त्रियो के प्रतिदिन इकट्ठा हार गेने की रीति । मातम। सियरा@:--वि० [स० शीतल, प्रा० सीअड] [स्त्री० सियरी] १ ठढा । शीतल । उ०-(क) श्याम सुपेत कि राता पियरा विशेप-यह रिवाज पजार यादि पश्चिनीप्राती मे पागजाता है। अवरण वरण कि ताता सियरा ।-फवार (शब्द॰) । (ख) सियार-सा पुं० [म० शृगान, पा० पिनाउ[ग्री० म्यिागे, सियरे वदन सूखि गए कैसे। परसत तुहिन तामरस जैसे । मियारिन] गीदड । जनुका ---तुलसी (शब्द॰) । २ कच्चा । ३ छाया । छाँह । सियार लाठी--मग पुं० [देश॰] अमला। सियरा-सज्ञा पु० [स० शृगाल, प्रा० सिग्राल] सियार । शृगाल । सियारा-मा पुं० [म० गीता (मानित), प्रा० गोत्रा सियराई-सज्ञा स्त्री॰ [म० शीतल, प्रा० सीअल, हिं० सियरा+ई रा (प्रत्य॰)] जुती हुई जमीन बगर करने का तल्डी का फावडा। (प्रत्य॰)] शीतलता । ठढक । उ०-मुकुलित कुसुम नयन निद्रा तजि रूप सुधा सियराई।—सूर (शब्द०)। सियारा'--सण पुं० [म० शीतपाल] दे० 'गियाला'। सियराना--कि० अ० [हिं० सियरा+ना] ठढा होना । जुडाना । सियारी-सका पी० [मं० शृगानी] २० 'मिया'। शीतल होना। उ०--(क) हारन सो हहरात हियो मुकुता सियाल-सशा पुं० [म० शृगाल] शृगाल | गीदड । उ०-पहुँ सियरात सुवेसर ही को।--पद्माकर (शब्द०)। (ख) पादप दिसि मूर सोर करि घार्य ज्यो फेहरिहि मियान।-मूर पुहुमि नव पल्लव ते पूरि पाए हरि पाए सियराए भाए ते (शन्द०)। शुमार ना।-रघुराज (शब्द०)। सियाला-नशा पुं० [म० शीतकाल] शौनयान । जाडे का मौमिम । सियरी---वि० [सं० शीतल] दे० 'सियरा' । उ०--(क) लोचे परी सियाला'-सा पुं० [स० नोसा, प्रा० सीया+ला (प्रत्य०)] सियरी पर्यक पं वीती घरीन खरी खरी सोच।--पद्माकर दे० 'सियारा'। (शब्द०)। (ख) खरे उपचार खरी सियरी सियरे ते खरोई सियाला पोका-तरा पुं० [हिं० मियारा (= जीतयुक्त, पात्र) (') खरो तन छीजै ।--केशव (शब्द॰) । + पोका ( = कोटा)] एक बहत छोटा कीडा जो मफेद चिपटे सियरी-सञ्ज्ञा सी० [फा० सैरी] तृप्ति । अघाव । शाति । मनस्तोप । कोश के भीत रहता है और पुरानी लोनी मिट्टीवाली दीवारो तुष्टि । उ०--में तुम्हारा दिल लेने के लिये कहती थी। मर्दो पर मिलता है । लोना पोगा। की तो कैफियत यह है कि एक दर्जन भर भी औरते हो तो भी सियाली-सका पी० [देश॰] एक प्रसार वा निदारी कद । उनकी सियरी नहीं होती।--सैर०, पृ० २५ । सियाली'-वि० [म० शीतकालीन] १ जारे में मामिम की। २ सियह--वि० [फा०] दे० 'सियाह' । उ०-मुझे तेरी जुल्फो का ध्यान खरीफ की फसल । या गया । जो देखो सियह सिर पै छाई घटा ।-भारतेंदु ग्र०, सियावड - सज्ञा पुं॰ [देश॰] २० 'निगावो' । मा० २, पृ०८६०। सियावडो-सा स्री० [देश॰] १ प्रनाज का वह हिम्मा जो रेत कटने सिया--सशा स्त्री० [स० सीता] सीता । जानकी । उ०--तव अगद इक पर सतियान मे से माधुग्रो के निमित्त निकाला जाता है। बचन कह्यो। तो करि सिंधु सिया सुधि लावै किहिं वल इतो २ वह काली हांडी जो रोता में चिडियो को दराने और लह्यो ।--सूर (शब्द०)। फसल को नजर मे बचाने के लिये रखी जाती है । सियाक-सज्ञा ० [अ० सियाक] १ गणित । हिसाव । २ चलाना। सियासत'-मा सी० [अ०] १ देश का शासन प्रबध तथा व्यवस्था । ३. वाज के पैर की डोर (को०] । २ नीति। कटनीति । राजनीति (को०)। ३ छल। फरेब । सियादत--सञ्ज्ञा स्त्री० [अ०] १ सैयद होने का भाव । २ प्रतिष्ठा । धूर्तता। मक्कारी (को०)। ४ दाँट उपट। चेतावनी (को॰) । बुजुर्गी । ३ सरदारी । अध्यक्षता (को०)। ५ दड । राजा (को०)। 1