पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३१०

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सिरखिस्त ६०३० सिरनैत सिरखिस्त-मशा पु० [फा० शौरखिम्त] एक प्रसिद्ध पदार्थ जो कुछ व्यक्ति या वस्तु । उ०--राम को बिसारिवो निपेध सिरताज पेडो की पत्तियो पर ओस की तरह जम जाता है और दवा के रे। राम नाम महामनि फनि जगजाल रे ।-तुलसी (शब्द॰) । काम मे आता है। यव शर्करा । यवास शर्करा । ३ पति । शौहर (को०)। ४ स्वामी । प्रभु । मालिक । उ०- सिरखी-वि० [स० सदृश, प्रा० मरिक्ष, राज० सिरखी] [पुं० सिरखा कुजन मे क्रीडा करै मनु वाही को राज । कम सकुच नहिं मानई (= सरीखा)] सदृश । समान । सरीखी। उ०—सूली सिरखी रहत भयो सिरताज । - सूर (शब्द०) । ५ सरदार । अग्रगण्य । सेभडी, तो विरण जाणे नाह । ---ढोला०, दू० १६६ । अगुणा । मुखिया । उ०—सूर सिरताज महाराजनि के महाराज सिरगनेसा--सञ्ज्ञा पु० [हिं० श्रीगणेश] प्रारभ । शुरुग्रात । उ.-- जाको नाम लेत है मुखेत होत उसरो। तुलसी (शब्द०)। पहले भगडा का सिरगनेम दो ही औरतो मे होता है ।-- ६ एक प्रकार का प्रावरण, पर्दा या नकाब (को॰) । मैला०, पृ०७१। सिरतान--सा पु० [हिं० सिर + तान ?] १. प्रासामी । काश्तकार । २ मालगुजार। सिरगा--सशा स्त्री॰ [देश॰] घोडे की एक जाति । उ०—सिरगा समदा स्वाइ सेलिया सूर सुरगा। मुसकी पंचकल्यान कुमेता केहरिरगा। हिरतापा-क्रि० वि० [फा० सर+ता+पा] १ सिर से पांव तक। -सूदन (शब्द०)। नख से लेकर शिख तक । उ०-केस मेघावरि सिर ता पाहि । सिरगिरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मिर + गिरि (= चोटी)] १ कलगी। -जायसी (शब्द०)। २ आदि से अत तक। सपूर्ण । शिखा । २ चिडियो के सिर की कलगी। विलकुल । सरासर सिरगोला-सज्ञा पु० [देश॰] दुग्धपाषाण । सिरती-सज्ञा स्त्री० [हिं० सीर] जमा जो आसामी जमीदार को देता है। लगान। सिरघुरई-ज्ञा स्त्री० [हिं० सिर + घूरना ( = घूमना), तुल० व० घुर] सिरत्राण-सज्ञा पुं० [स० शिरस्त्राण] दे० शिरस्त्राण'। ज्वराकुश तृण। सिरचद-सञ्ज्ञा पु० [हिं० सिर + चद] एक प्रकार का अर्धचद्राकार सिरदा-सशा पुं० [अ० सिजदा] दे० 'सिजदा' | उ०-(क) एका- दशी न रोजा करई। डडवत करै न सिरदा परई।- गहना जो हाथी के मस्तक पर पहनाया जाता है। उ०—सिर- चद चद दुचद दुति आनद कर मनिमय वस।-गोपाल पलटू०, मा० ३, पृ०६०। (ख) कई लाख तुम रडी छांडी केते बेटी बेटा। कितने बैठे सिरदा करते माया जाल लपेटा । (शब्द०)। सिरचढा-वि० [हिं० सिर+ चढना] मुंहलगा। वेअदव । ढीठ । मलूक०, पृ०१॥ सिरदार सज्ञा पु० [फा० सरदार] दे० 'सरदार। उ०-व्रज सिरजक-मज्ञा पु० [स० सर्जक, हिं० सिरिजन (< स०/ सृज् > सिरिज + अन (प्रत्य॰)] वनानेवाला । रचनेवाला । सृष्टिकर्ता। परगन सिरदार महरि तू ताकी करत नन्हाई।-सूर (शब्द०)। उ.---अब बदौ कर जोरि के, जग सिरजक करतार । रामकृष्ण (ख) सिरदार जूझत खेत मैं । भजि गए बहुत अचेत मैं । पद कमल युग, जाको सदा अवार। -रघुराज (शब्द॰) । -सूदन (शब्द०)। सिरदारी-मशा स्रो॰ [फा० सरदार + ई (प्रत्य॰)] ३० सिरजन-सा पु० [स० सजन, (हि० सृजन)] निर्माण। रचना। 'सरदारी'। उ०--साहिजहाँ यह चित्त विचारी । दारा को सृष्टि करना । जैसे, सिरजनहार । दीन्ही सिरदारी।- लाल कवि (शब्द॰) । सिरजनहार-सञ्चा पु० [हिं० मिरजन + हार( = वाला)] १ रचने- सिरदुनाली-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० सिर + फा० दुवाल] लगाम कडो वाला। बनानेवाला । सृप्टिकर्ता । कर्तार। उ०-हे गुसाई मे लगा हुअा कानो के पीछे तक का घोडो का एक साज जो तू सिरजनहारू । तुइ सिरजा एहि समुंद अपारू।—जायसी चमडे या सूत का बना होता है । (शब्द०)। २ परमेश्वर । उ०-माया सगी न मन सगा, सिरनाम--वि० [फा० सरनाम] ख्यात । मशहूर । प्रसिद्ध । उ०- सगा न यह ससार। परशुराम यह जीव को, सगा तो रोम रोम जो अघ भरयौ पतितन मैं सिरनाम । रसनिधि सिरजनहार ।--रघुराज (शब्द०)। वाहि निवाहिती प्रभु तेरोई काम ।-स० सप्तक, पृ० २२५ । सिरजना@-क्रि० स० [स० सर्जन] रचना । उत्पन्न करना । सृष्टि सिरनामा-सञ्ज्ञा पु० [फा० सर + नामह, ( = पत्र)] १ लिफाफे पर करना। उ०-जग सिरजत पालत सहरत पुनि क्यो बहुरि लिखा जानेवाला पता। २ पत्र के प्रारभ मे पत्न पानेवाले करयो ।--सूर (शब्द०)। का नाम, उपाधि, अभिवादन आदि । ३ किसी लेख के विषय सिरजना@:--त्रि० स० [स० सञ्चयन] सचय करना। हिफाजत मे निर्देश करनेवाला शब्द या वाक्य जो ऊपर लिख दिया जाता से रखना। है। शीर्पक । (अ०) हेडिंग । सुर्थी । सिरजित-वि॰ [स० सजित] सिरजा हुआ। रचा हुआ । उ० सिरनेत-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सिर+स० नेत्री (= धज्जी या डोरी)] १ तुम जदुनाथ अनन्य उपासी। नहिं मम सिरजित लोक पगडी। पटा। चीरा। उ०—(क) रे नेही मत डगमग बांध विलासी।-रघुराज (शब्द०)। प्रीति सिरनेत। -रसनिधि (शब्द॰) । (ख) अधम उधारन सिरताज-सज्ञा पु० [स० सिर + फा० ताज] १ मुकुट । शिरोभूपण । - बिरद को तुम बाँधौ सिरनेत ।-स० सप्तक, पृ० २२६ । २ २ शिरोमणि। सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति या वस्तु । सबसे उत्कृष्ट क्षत्रियो की एक शाखा जो अपना मूल स्थान श्रीनगर