पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३२८

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सीमिका ६०४८ सीरी' सीमिका- सच्चा स्त्री० [सं०] १ दीमक या चीटी। २ वल्मीक । सीरकर-वि० [हिं० सीरा] ठढा करनेवाला । विमौट । ३ जीभ के नीचे की फुसी [को०] । सीरक@--सा पु०, स्त्री० शीतलता। ठढक । शैत्य । उ०-देखियत सीमिया-सज्ञा स्त्री० [अ०] १ परकायप्रवेश विद्या । २ जादू। है करुणा की मूरति सुनियत है परपीरक । सोइ करौ जो मिट इद्रजाल । नजरवदी [को॰] । हृदय को, दाहु पर उर सीरक ।--मूर (शब्द॰) । सीमी-वि० [फा०] १ चांदी जैसा। २ चाँदी का। चाँदी का सीरख-सञ्ज्ञा पुं० [सं० शीर्प] 'शीर्ष' । बना हुआ को। सीरत-सज्ञा स्त्री० [अ०] १ स्वभाव । प्रकृति । आदत । जीवन- चरित । ३. सौजन्य। सीमीक-सज्ञा पु० [स०] दे० 'सीमिक' (को०] । सीमुर्ग-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० सीमुर्ग] एक विशाल पक्षी जिसका निवास यो०--सूरत सीरत = रूप और गुण । काफ पहाडी पर माना गया है किो०)। सीरतन-वि० [अ०] स्वभावत । स्वभाव से । अादत से (को०) । सीमेट--संघा पु० [अं॰] एक प्रकार के पत्थर का चूर्ण । दे० 'सिमेट'। सीरधर-सज्ञा पुं० [सं०] १ हल धारण करनेवाला । २ बलराम । सीमोल्लघन--सज्ञा पुं० [मा सीमोल्लङघन] १ सीमा का उल्लघन सीरध्वज-सज्ञा पु० [सं०] १ राजा जनक का नाम । विशेष-जब ये पुत्र की कामना से यज्ञभूमि जोत रहे थे तब हल करना । सीमा को लाँचना । हद पार करना । २ विजययात्रा। विशेप दे० 'सीमातिक्रमणोत्सव'। ३ मर्यादा के विरुद्ध की कूट या रेखा से सीता की उत्पत्ति हुई। इसी से लोग इन्हें 'सीरध्वज' कहने लगे। कार्य करना। २ बलराम का नाम । सीय- सज्ञा स्त्री० [स० सीता] सीता। जानकी। उ०-राम सीय सीरन-सज्ञा पुं॰ [देश०] वच्चो का पहनावा । सिर सेदुरु देही ।-मानस, १।३२५ । स रनी-सज्ञा स्त्री॰ [फा० शीरीनी] मिठाई। सीयक- सज्ञा पुं० [स०] मालवा के परमार राजवश के दो प्राचीन सीरपाणि-मज्ञा पुं० [स०] हलधर । बलदेव । राजाओ के नाम जिनमे पहला दसवी शताब्दी के आरभ मे और दूसरा ग्यारहवी शताब्दी के प्रारभ मे था। इसी दूसरे सीरभृत्-सशा पुं० [सं०] १ हलधर । वलदेव । २ हल धारण करनेवाला। सीयक का पुत्र मुज था जो प्रसिद्ध राजा भोज का चाचा था। सीयन -सञ्ज्ञा स्त्री० [स० सीवन] दे० 'सीवन' । सीरयोग-सज्ञा पुं० [सं०] हल मे जुते हुए वैलो की जोडी। २ बैलो को हल मे जोतना (को०] । सीयरा-वि० [स० शीतल] दे० 'सियरा'। सीरवाह--सज्ञा पु० [सं०] १ हल धारण करनेवाला। हलवाहा । सीर'--सज्ञा पु० [स०] १ हल । २ हल जोतनेवाले बैल । ३ सूर्य । २ जमीदार की ओर से उसकी खेती का प्रवध करनेवाला ४ अर्क। आक का पौधा । कारिंदा। सीर--सज्ञा स्त्री० [सं० सीर ( = हल)] १. वह जमीन जिसे भू- सीरवाहक-सञ्ज्ञा पुं० [स०] हलवाहा । किसान । स्वामी या जमीदार स्वय जोतता आ रहा हो, अर्थात् जिसपर उसकी निज की खेती होती आ रही हो। २ वह जमीन सोरष--सञ्ज्ञा पुं० [स० शीपं] दे० 'शीर्प' । जिसकी उपज या प्रामदनी कई हिस्सेदारो मे बँटती हो। ३ सीरा'-मज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम । साझा। मेल। सीरा--सज्ञा पुं० [फा० शीर] १ पकाकर मधु के समान गाढा किया मुहा०--सीर मे = एक साथ मिलकर । इकट्ठा। एक मे। हुआ चीनी का रस । चाशनी । २ मोहनभोग । हलवा। जैसे--भाइयो का सीर मे रहना। सीरा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सिर चारपाई का वह भाग जिधर लेटने मे सीर--सशा पु० [स० शिरा (= रक्तनाडी)] रक्त की नाडी। सिर रहता है। सिरहाना । रक्त की नली। सीरा--वि० [सं० शीतल, प्रा० सीअड] [वि॰ स्त्री० सीरी] १ मुहा०-सीर खुलवाना = नश्तर से शरीर से दूपित रक्त निकल ठढा । शीतल । उ०-सौरी पौन अगिनि सी दाहति, कोकिल वाना । फसद खुलवाना। अति सुखदाई।—सूर (शब्द॰) । २ शात। मौन । चुपचाप । सी@'-वि० [स० शीतल, प्रा० सीग्रड, हिं० सीड, सील, सीरा] उ०-दुर्जन हँसे न कोय आपु सीरे ह वै रहिए।-गिरिधर ठढा । शीतल । उ०-सीर समीर धीर अति सुरभित वहत सीरियल-मज्ञा पु० [अं०] १ वह लवी कहानी या दूसरा लेख जो (शब्द०)। सदा मन भायो।--रघुराज (शब्द०)। कई वार और कई हिस्सो मे निकले । २ वह कहानी या किस्सा सीर-मज्ञा पुं० १ चौपायो का एक सक्रामक रोग। २ पानी की जो बायस्कोप में कई बार कई हिस्सो मे दिखाया जाय । काट । (लश०)। सीरी-सबा पु० [स० सीरिन्] (हल धारण करनेवाले) बलराम । सीर-सज्ञा पुं० [फा०] लशुन । लहसुन [को० । सीरी--वि० सी० [सं० शीतल, प्रा० सीअड, सीयड़, हिं• सीरा) ३० सीरक'--सज्ञा पु० [सं०] १ हल । २ शिशुमार । सूस । ३ सूर्य । 'सीरा'।