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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३९२

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मुरलाई ७०१२ सुरसया मुरुप अपना मुंह बडानी गई, त्यो त्यों हनुमान जी भी सुरसाल, सुरमालु@----वि० [म० सुर + हिं० सालना] देवताओ को प्रपना गरी पटते गर । अत में हनुमान जी ने बहुत छोटा सतानेवाला। उ०-राम नाम नर केसरी कनककसिपु पलि धागे उसके मुंह में प्रवेश किया और बाहर निकल कालु । जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसालु । पर व्हा देवि, अब तो तुम्हाग वर मफन हो गया। इसपर –तुलमी (शब्द०)। गुरमा न हनुमान जी को प्राशीर्वाद दिया और उनको सफलता सुरसाष्ट-नशा पुं० [सं० सुरस + अष्ट] सम्हाल, तुलसी, ब्राह्मी, वन- को मना की। (रामायण) । भटा, कटकारी और पुनर्नवा इन सवका समूह । २ एप पनर या नाम । ३ एर राक्षसी का नाम । ४ तुलसी। सुरसाहिब-सज्ञा पुं० [सं० सुर + फा० साहब] देवताओ के ' रासन । राम्ना । ६ मौंफ । मिश्रेया। ७ ब्राह्मी। ८ बडी स्वामी । दे० 'सुरसाई'। उ०-ब्रह्म जो व्यापक वेद कहै गम मनावर । मनावर । ६ जूही। श्वेत यूयिका। १० सफेद नाही गिरा गुन ज्ञान गुनी को। जो करता, भरता, हरता निमोय । ज्वेत निवृत्ता। ११ मलई । गल्लको । १२ नील सुरसाहिव साहिव दीन दुनी को।--तुलसी (शब्द०)। निवार । निगुटी । १३ पटाई। वनमटा । वृहती । वार्ताको। सुरसिंधु-सज्ञा पुं॰ [स० सुरसिन्धु] गगा । १८ भटरदया। कटेरी। फटकारी। १५ एक प्रकार की सुरसु दर'-सशा पुं० [सं० सुरसुन्दर] १ सुदर देवता । २ कामदेव । गगिनी। १६ दुर्गा का एक नाम । १७ रद्राश्व की एक पुत्री मा नाम । १८ पुराणानुसार एक नदी का नाम । १९ अकुश सुरसु दर-वि० देवता के समान सु दर । अत्यत सुदर । के नीचे का नुकीना भाग । २० बोल नामक एक गधद्रव्य सुरसुदरी सज्ञा सी० [स० सुरसुन्दरी] १ अप्सरा , उ०-सुरसुदरी (को०)। २१ एक वृत्त का नाम । करहि कल गाना । सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना। --मानस, १।६१ । २ दुर्गा । ३ देवकन्या । ४ एक योगिनी का नाम । सुरसाई-मा पु० [म० गु.+ हिं० साई ( = स्वामी)] १ इद्र । उ०-प्रापु ला जैसे सुरसाई। सब नरेश जनु नुर ममुदाई। सुरसु दरी गुटिका सशा स्पी० [स० सुरसुन्दरी गुटिका] वैद्यक के अनु- -मवनसिंह (गन्द०)। २ शिव । उ०-मब विद्या के ईश सार वाजीकरण या वलवीर्य बढाने की एक प्रोपधि । गुसाई। चरण वदि बिनयो सुरसाई।-शकरदिग्विजय विशेष-यह ओपधि अभ्रक, स्वर्णमाक्षिक, हीरा, स्वर्ण और पारे (गन्द०) । ३ पिप्णु । उ०-वोले मधुर वचन सुरमाई। मुनि को सम भाग मे लेकर हिज्जल (समुद्रफल) के रस मे घोटकर फाह चले विकन की नाई। तुलसी (शब्द०)। पुटपाक के द्वारा प्रस्तुत की जाती है। सुरमान-मता पुं० [सं०] मभालू को मजरी । सिंधुवार मजरी। सुरसुत -सज्ञा पुं॰ [स०] [स्त्री॰ सुरमुता] देवपुत्र । सुरसाग्रज--- | पुं० [म.] श्वेत तुलसी। सुरसुरभी सज्ञा स्त्री० [सं० सुर + सुरभी] देवताओ की गाय । काम- सुरमाग्रपी-सा पु० ३० 'मुरमाग्रज' । घेनु । उ०—मुख ससि सरगर अधिक वचन श्री अमृत जैसी। सुरसुरभी सुरबृच्छ देनि करतल मह वैसी।-गि० दास सुरमाच्दद--गश पुं० [सं०] मुरक्य का पत्ता। श्वेत तुलसी का (शब्द०)। पन को०)। सुरसुराना-क्रि० अ० [अनु०] १ कीडो अादि का रेंगना । २ सुरसादिवर्ग--7 पु० [सं०] वैद्यक मे कुछ विशिष्ट प्रोपधियो का खुजली होना। र वर्ग। विशेष--एम वर्ग में तुलमी (मुरमा), श्वेत तुलसी, गधतृण, सुरसुराहट-सशा स्त्री॰ [हिं० सुरसुराना + ग्राहट (प्रत्य०)] १ सुर- सुर होने का भाव । २ खुजलाहट । ३ गुदगुदी। गधेज घाम (मुगध क), काली तुलमी, कसौधी (काममर्द), सटोरा (अपामार्ग), वापिटग (विटग), कायफल (कट- मुरसुरोल-सज्ञा सी० [सं० सुरसरित्] गगा। सुरमरी । फल), मम्हातू (निर्गु ी), पम्हनेटी (मारगी), मकोय सुरसुरी'-सज्ञा स्त्री० [अनु॰] १ दे० 'सुरसुराहट' । २ एक प्रकार (मामानी), बकापन (विपष्टिक), मूगाकानी (मूषाकर्णी), का कीडा जो चावल, गेहूँ आदि मे होता है। ३ एक प्रकार की नीला मम्हाल (नील निधुवार), मुई कदव (भूमि कदव), प्रातिशवाजी जिसे छडूंदर भी कहते हैं। ४ एक प्रकार का नाम मी पापधियां पाती है। वैवक के अनुमार यह प्रयोग कोडा जिसके शरीर पर रेगने से युजली और जलन पैदा यफ, मि, सर्दी, अरचि, श्वास, यांनी यादि का नाश करने- होती है। वाना और रणगाधा। सुरसेनप---मरा पुं० [सं० सुर + सेनापति] देवताओ के सेनापति इसी नाम मे पायुर्वेद मे एर दूसरा वर्ग भी है जो इस प्रकार है कार्तिकेय । उ०--सुरसेनप उर बहुत उछाहू । विधि ते डेवढ द नुनमो, पानी तुलनी, छोटे पत्तोचालो नुलमो, ववई लोचन लाहू ।-मानस, ११३१७ । (यवगे), रामानी, पाराला सीधी, नकछिकनी (छिककनी), सुरसेना--सशा श्री० [सं०] देवताओ की सेना । सम्हान, भारनी, भुवस्य, गधतण, नीला सम्हालू, मीठी मुरसैया@--मशा पुं० [स० सुर+ हिं० मैयाँ (स्वामी)] इद्र । दे० नौम (उर), और प्रतिमुतता (मालती उता)। 'मुरसाई'। उ०--तुलगी वान केलि मुख निरखत वरपत सुरसारोगा सी० [सं० मुरमरित्] ३० 'सुगरी' । सुमन सहित मुरमैयाँ।--तुलमी (शब्द०)।