सोनागेरू ७०६८ सोनामक्खी करते हैं । नीद लेना । शयन करना । आँख लगना | २ लेटना। चौड़ी, चिपटी तथा तलवार की तरह कुछ मुडी हुई टेढी नोक- आराम करना। वाली होती हैं । इनके अदर भोजपन्न के 'समान तहदार पत्ते सटे संयो॰ क्रि०-जाना। रहते हैं और इन पत्तो के बीच मे छोटे, गोल और हलके वीज होते हैं। कलियाँ और कोमल फलियाँ प्राय कच्ची ही गिर मुहा०-सोते जागते - हर घडी। हर समय । २ शरीर के किसी अग का सुन्न होना। जैसे,—मेरे पैर सो गए। जाया करती है। कार्तिक और अगहन के प्रारभ तक इसके वृक्ष उ०--आगे किसू के क्या करे दस्ते तमादराज । वह हाथ सो पर फूल फल आते रहते है और शीतकाल के अत और वसत गया है सिर्हाने धरे धरे। -कविता को०, भा० ४, पृ० १६३ । ऋतु मे फलियाँ पककर गिर जाती है और वीज हवा मे उस जाते हैं । इन बीजो के गिरने से वर्षा ऋतु मे पौधे उत्पन्न होते हैं । विशेष-यह क्रिया प्राय एक अग को एक ही अवस्था मे कुछ वैद्यक के अनुसार यह कसैला, कटुवा, चरपरा, शीतल, रुक्ष, मल- अधिक समय तक रखने पर हो जाती है। रोधक, बलकारी, वीर्यवर्धक, जठराग्नि को दीपन करनेवाला सोनागेरू-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सोना + गेरू] गेरू का एक भेद जो जो तथा वात, पित्त, कफ, त्रिदोप, ज्वर, सनिपात, अरुचि, ग्राम- मामूली गेरु से अधिक लाल और मुलायम होता है । वात, कृमि रोग, वमन, खांसी, अतिसार, तृपा, कोढ, श्वास विशेष-वैद्यक के अनुसार यह स्निग्ध, मधुर, कसला, नैनो को और वस्ति रोग का नाश करनेवाला है। इसकी छाल, फल हितकर, शीतल, बलकारक, व्रणशोधक, विशद, कातिजनक और बीज औपध के काम मे पाते है, पर छाल का ही अधिक तथा दाह, पित्त, कफ, रक्तविकार ज्वर, विप, विस्फोटक, वमन, उपयोग होता है। इसका कच्चा फल कसला, मधुर, हलका, अग्निदग्धव्रण, बवासीर और रक्तपित्त को नाश करनेवाला है। हृदय और कठ को हितकारी, रुचिकर, पाचक, अग्निदोपक, पर्या०--सुवर्णगरिक । सुरक्त । स्वरणधातु । शिलाधातु । सध्यान । गरम, कटु, क्षार तथा वात, गुल्म, कफ और बवासीर तथा वर्धधातु । सुरक्नक । कृमिरोग का नाश करनेवाला है। सोनाचाँदी-सज्ञा पुं० [हिं० सोना + चाँदी] धन दौलत । माल सपत्ति। पर्या०--श्योनाक । शुकनास। कट्वग। कटभर। मयूरजधा सोनापाठा-सचा पुं० [स० शोण+हिं० पाठा] १ एक प्रकार का अरलुक। प्रियजीवी । कुटन्नट । ऊंचा वृक्ष जिसकी छाल, वीज और फल औषधि के काम २ इसी वृक्ष का एक और भेद जो सयुक्त प्रदेश (उत्तर प्रदेश), आते है। पश्चिमोत्तर प्रदेश, ववई, कर्नाटक, कारमडल के किनारे तथा विशेष--यह वृक्ष भारत और लका मे सर्वत्र होता है । इसकी छाल बिहार मे अधिकता से होता है और राजपूताने मे भी कही कही चौथाई इच तक मोटी, हरापन लिए पीले रंग की, चिकनी, पया जाता है। हलकी और मुलायम होती है। काटने से इसमे से हरा रस विशेष-यह पेड ६० से ८० फुट तक ऊंचा होता है और पत्तेवाली निकलता है। लकडी पीलापन लिए सफेद रंग की हलकी और सीक प्राय ८ इच से १ फुट तक लवी होती है, और कही कही खोखली होती है तथा जलाने के सिवा और किसी काम मे नही सीको की लवाई २-३ फुट तक होती है। मौको पर आउ से आती । पेड की टहनियो पर तीन से पांच फुट तक लबी झुकी चौदह जोडे समवर्ती पत्ते होते हैं। इसके फूल बडे और कुछ हुई सीके होती है जो भीतर से पोली होती है। प्रत्येक प्रधान पीले होते हैं । फलियाँ ताँवे के रग की, दो इच लबी तथा चौथाई सीक पर पाँच पाँच गाँठे होती हैं और उन गांठो के दोनो ओर इच चौडी, गोल, दोनो ओर नुकीली और जड की और ऐंठी सी एक एक और सीक होती है। पहली सीक की चार गाँठे सीको रहती हैं। पेड की छाल सफेद रंग की होती है और गुण भी सहित क्रम क्रम से छोटी रहती हैं। इनमे पहली गांठ पर तीन सोनापाठा-१' के समान ही है। जोडे पत्ते, दूसरी और तीसरी गांठ पर एक एक जोडा और पर्या०-टुटुक । दीर्घवृ त । टिंटुक । कीरनाशन । पूतिवृक्ष । चौथी गाँठ पर तीन पत्ते लगे रहते हैं । दूसरी और तीसरी सीको पर भी इसी क्रम से पत्ते रहते है। चौथी गाँठवाली सीक पर पूतिनारा । भूतिपुष्पा । मुनि द्रुम, आदि । पांच पांच पत्ते (दो जोडे और एक छोर पर) होते हैं । पांचवी सोनापेट-सज्ञा पुं० [हिं० सोना+ पेट ( = गर्भ) सोने की खान । पर तीन पत्ते (एक जोडा और एक छोर पर) होते हैं। इसी सोनाफूल-सज्ञा पुं० [हिं० सोना + फूल] एक प्रकार की भाडी जो प्रकार अत मे तीन पत्ते होते हैं। पत्ते करज के पत्ते के समान आसाम और खासिया पहाडियो पर होती है । गुलावजम । २॥ से ४॥ इच तक चौडे , लवोतरे और कुछ नुकीले होते हैं। विशेष-इस झाडी की पत्तियो से एक प्रकार का भूरा रंग फूल १-२ फुट लवी डडी पर २॥-३ इच लवोतरे और सिल निकलता है और इसकी छाल के रेशो से रस्सियां भी बनती सिलेवार आते हैं। फूलो के भीतर का रंग पीलापन लिए लाल हैं । इसे गुलाबजम भी कहते हैं। और बाहर का रग नीलापन लिए लाल होता है । फूलो मे पाँच सोनामक्खी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० स्वर्णमाक्षिक] १ एक खनिज पदार्थ पखडियां और भीतर पीले रंग के पांच केसर होते हैं । फूल जो भारत मे कई स्थानो में पाया जाता है। बहुधा गिर जाया करते है, इसलिये जितने फूल आते हैं, उतनी विशेष-आयुर्वेद मे इसकी गणना उपधातुप्रो मे है । इसमे सोने फलियां नहीं लगती। फलियाँ २-२।। फुट लबी और ३-४ इच का कुछ अश और गुण वर्तमान रहने के कारण इसका नाम
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४७८
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