पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सोनामाखी ७०६९ सोपान हुआ [को०]। लगाना। स्वर्णमाक्षिक पडा है। सोने के अभाव मे ओषधियो मे इसका सोपकार'-वि०१ सहायताप्राप्त । उपकृत । २ लाभकर। लाभ उपयोग किया जाता है। सोने के सिवा अन्य धातुरो का देनेवाला। ३ उपकरण या साधन से युक्त । ४ सूद देने- समिश्रण रहने से इसमे और भी गुण आ गए हैं। उपधातु वाला। जिससे सूद प्राप्त हो। सूद पर लगाया या दिया होने के कारण, यथोचित रीति से शोधन कर इसका व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा यह मदाग्नि, बलहानि, विष्टभिता, सोपकार प्राधि--सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] वह धरोहर जो किसी फायदे के नेत्ररोग, कोढ, गडमाला, क्षय, प्राध्मान, कृमि आदि अनेक काम मे (जैसे रुपए का सूद पर दे दिया जाना, आदि) लगा दी रोग उत्पन्न करती है। शोधितावस्था मे यह वीर्यवर्धक, नेत्रो गई हो। के लिये हितकर, स्वरशोधक, व्यवायी, कोढ, सूजन, प्रमेह, सोपचार-वि० [सं०] अादर और समानपूर्वक व्यवहार करनेवाला बवासीर, वस्ति, पाडुरोग, उदरव्याधि, विषविकार, कठरोग (को०)। खुजली, क्षय, भ्रम, हुल्लास, मूर्छा, खाँसी, श्वास आदि रोगो सोपत-सज्ञा पुं० [मं० सूपपत्ति] सुबीता। सुपास | आराम का का नाश करनेवाली मानी गई है। प्रवध । उ०—बन वन वागत बहुत दिनन ते कृश तनु हहैं पर्या-स्वर्णमाक्षिक । माक्षिक । हेममाक्षिक । धातुमाक्षिक । प्यारे। करत रह्यो हहै को सोपत दूध बदन दोउ वारे।- स्वर्णवर्ण । स्वर्णाह्वय । पीतमाक्षिक । माक्षिकधातु । तापीज । रघुराज (शब्द०)। मधुमाक्षिक । तीक्ष्ण । मधुधातु। क्रि० प्र०-वधना।-वांधना।-बैठना ।--बैठाना।--लगना। २ एक प्रकार का रेशम का कीडा। सोनामाखी-सज्ञा स्त्री० [म० स्वर्णमाक्षिक] दे॰ 'सोनामक्खी' । सोपध-वि० [स०] १ झूठ और कपट से भरा हुआ। २ उपात्य सोनामुखी-[स० स्वर्णमुखी] दे० 'स्वर्णपत्नी' । सहित । अतिम से पूर्ववाले वर्ण के साथ [को०] । सोनार-सज्ञा पुं॰ [स० स्वर्णकार, प्रा० सोष्णार, सोणार] [स्त्री० सोपधान-वि० [८९/१ गद्दा आदि से युक्त । सज्जित । २ उत्तम सोनारिन] दे० 'सुनार'। उ०-कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ। कोटि का [को०] देइ सोहाग कर एक ठाऊँ।---जायसी न० (गुप्त) पृ० ८६ । सोपधि-वि० [स०] कपटी । झूठा। छली । सोनारी-मज्ञा श्री० [हिं० सोनार + ई (प्रत्य॰)] सुनार का काम। सोपधि-क्रि० वि० झूठा मूठा । छलयुक्त या कपटपूर्ण ढग से [को०] । सोने आदि के गहने बनाने का काम । सोपधि प्रदान--सज्ञा पुं० [स०] ऋण लेनेवाले या धरोहर रखनेवाले सोनिजरदो-सज्ञा स्त्री० हिं० सोना + फा० जर्द] दे० 'सोनजर्द' । से किसी बहाने से ऋण की रकम विना दिए गिरवी की वस्तु सोनित-सञ्ज्ञा पुं० [सं० शोणित] दे० 'शोणित' उ०-नव सोनित वापस ले लेना। को प्यास तृपित राम सायक निकर ।-मानस, ६१३२ । सोपधिशेष-सज्ञा पु० [सं०] वह व्यक्ति जिसमे छल, कपट शेष हो। सोनोर--सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सोना] सुनार। स्वर्णकार । उ०—(क) वह व्यक्ति जो निश्छल न हो (को०)। देव दिखावति कचन से तन औरन को मन ताव अगोनी। सोपप्लव-वि० [स०] १ उपप्लव अर्थात् बाढ, उपद्रव प्रादि से युक्त । सुदरि साँचे मे दै भरि काढी सी आपने हाथ गढी विधि २ ग्रहण से युक्त [को०] । सोनी ।-देव (शब्द॰) । (ख) सुदर काढे सोधि करि सद- सोपाक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ वह व्यक्ति जो चाडाल पुरुप और गुरु मोनी होइ। शिवसुवर्ण निर्मल कर टाँका रहै न कोइ।- पुक्कसी के गर्भ से उत्पन्न हुआ हो । चडाल। श्वपाक । २ सुदर० ग्र०, भा॰ २, पृ० ६७३ । काष्ठौषधि बेचनेवाला । वनौषधि बेचनेवाला। सोनी-सज्ञा पुं॰ [देश॰] १ एक जातिविशेष का नाम । २ तुन की सोपाधि-वि० [स०] १ परिणाम एव इयत्ता से युक्त । नाम और गुणयुक्त । सीमित । सगुण । सीमा या गुण विशिष्ट । उ०- सोनेइया--सञ्ज्ञा पु० [देश०] वैश्यो की एक जाति । व्यवहार पक्ष मे शकराचार्य ने जिस उपासनागम्य ब्रह्म का सोनया-सञ्ज्ञा स्त्री० [देश॰] देवदाली। घघरबेल । बदाल । विशेष अवस्थान किया है वह सोपाधि या सगुण ब्रह्म है, अव्यक्त दे० 'देवदाली'। पारमार्थिक सत्ता नही।-चिंतामणि भा० २, पृ० ८० । २ सोन्मद, सोन्माद-वि० [स०] उन्मादयुक्त । पागल । विक्षिप्त [को०] । कुछ विशिष्टता या खासियत रखनेवाला। ३ विशिष्ट । प्रधान । सोप'--मचा पुं० [देश॰] एक प्रकार की छपी हुई चादर । श्रेष्ठ (को०)। सोप----सञ्ज्ञा पुं० [अ०] सावुन । सोपाधिक-वि० [स०] [वि॰ स्त्री सोपाधिकी] दे० 'सोपाधि'। उ०- सोप-सञ्ज्ञा पुं० [अ० स्वाव] बुहारी। झाडू । (लश०) । किंतु यह सब व्यापार सोपाधिक आकार ग्रहण करने पर ही सोपकरण-वि० [स०] साधन या उपकरण से युक्त [को०] । मभव है।--सपूर्णा० अभि० ग्र०, पृ० ११२ । सोपाकर-सज्ञा पु० [स०] १ व्याज सहित मूलधन । असल में सूद । सोपान-सचा पुं० [म.] १ सीढी। जीना। २ जनो के अनुसार मोक्ष- प्राप्ति का उपाय। २ उपकृत व्यक्ति (को०)। जाति का एक वृक्ष।