पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४८४

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मोमभू ८००४ मोमवती सोमभूर--सज्ञा पुं० [स०] १ चद्रमा के पुत्र बुध । २ चौथे कृष्ण खाज का निवारण होता है। इसका एक और भेद होता है जो वासुदेव का नाम । (जैन)। महासोमराजी तेल कहलाता है। यह कुष्ठ रोग के लिये परम सोमभू--वि० १ सोम से उत्पन्न । २ चद्रवशीय । उपकारी माना गया है। मरे बनाने पी विधि इस प्रकार सोमभृत--वि० [स०] सोम लानेवाला। है---चिनक, कलियारी, मोट, युट, हलदी, करज, हरताल, मैनगिल, विष्णु काना, याक, कनेर, छतिवन, गाय का गोबर, सोमभोजन--सज्ञा पुं० [सं०] १ गरड के एक पुत्र का नाम । रोर, नीम के पत्ते, मिर्च, पनौदी ये सब चीजें दो दो तोते २ सोमपान । लेार इनका काटा कर १२।। मेर बकुची के काढे और ६४ सोममख--सज्ञा पुं० [सं०] सोमयज्ञ । मेर पानी और १६ गेर गोमूत्र में पकाते है । सोममद-सज्ञा पुं० [स०] १ सोम का नशा । २ सोम का रस जिसके पीने से नशा होता है। सोमराज्य-मण पुं० [सं०] चद्र नोक । सोमयज्ञ-सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'सोमयाग' । मोमरराष्ट्र-सा पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम । सोमयाग--सज्ञा पुं॰ [स०] प्राचीन काल का एक वार्षिक यज्ञ सोमरोग-मशा पुं० [सं०] स्त्रियों का एक रोग। जिसमे सोमरस पान किया जाता था। विशेषम रोग मे वैद्यर के अनुसार प्रति मैथुन, शोक, परि- अम प्रादि कारणो ने शरीरस्य जलीय धातु क्षुब्ध होकर योनि सोमयाजी--सज्ञा पुं० [म० सोमयाजिन्। वह जो सोमयाग करता हो । मार्ग मे निकलने लगती है । यह पदाथ श्वेत वर्ण, स्वच्छ प्रौर सोमयाग करनेवाला। गधरहित होता है । इसमे कोई वेदना नही होती, पर वेग इतना सोमयोगी-वि० [सं० सोमयोगिन्] जिसमे सोम या चद्र का योग प्रवल होता है कि महा नहीं जाता। रोगिणो अत्यत कृश हो । चद्रमा के योगवाला। और दुबल हो जाती है। रग पीला पड जाता है। गरीर सोमयोनि-सज्ञा पु० [स०] १ देवता। २ ग्राह्मण । ३ पीत चदन । शियित और अकर्मण्य हो जाता है। गिर मे दद हुमा करता हरिचदन । है । गला पीर ताल मूबा रहता है। प्यास बहुत लगती है। सोमरक्ष-वि० [सं०] सोम का रक्षक । साना पीना नहीं रुचता योर मूर्ण आने लगती है। यह रोग सोमरक्षी-वि० [सं० सोमरक्षिन्] दे० 'सोमरक्ष' । पुरषो के बहुमूत्र रोग के सदृश होता है। सोमरस-सज्ञा पुं० [सं०] सोमलता का रस । विशेष दे० 'सोम' । सोमपि-सरा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋपि का नाम । यो०--सोमरसोद्भव = दुग्ध । दूध । सोमल-सज्ञा पुं॰ [देश॰] सखिया का एक भेद जिसे सफेद सवल मी सोमरा-सज्ञा पुं॰ [देश॰] १. जुते हुए खेत का दुबारा जोता जाना । कहते हैं। दो चरस । २ समचतुर्भुज खेत का चौडाई मे जोता जाना। सोमलता--मा स्त्री० [सं०] १ गिलोय । गुडूची। २ ब्राह्मी। ३ सोमराग-सज्ञा पुं० [स०] सगीत मे एक प्रकार का राग । सोम नाम की वैदिक लता। ४ गोदा या गोदावरी नदी को सोमराज-सज्ञा पुं० [सं०] चद्रमा । नाम (को०)। सोमराजसुत--सञ्ज्ञा पु० [स०] चद्रमा का पुत्र बुध । सोमलतिका-सका सी० [सं०] १ गिलोय । गुडूची । गुरुच । २ दें। मोमराजिका--सज्ञा श्री० [सं०] दे० 'सोमराजी' । 'साम'। सोमराजी-सज्ञा पुं॰ [सं० सोमराजिन्] वाकुची। वकुची । विशेष सोमलदेवी-सरा सी० [सं०] राजतरगिणी के अनुसार एक राज- दे० 'बकुची'। पुत्री का गाम । सोमराजी--सञ्ज्ञा स्त्री० १ बकुची। २ एक वृत्त का नाम जिसके सोमलोक-सा पुं० [सं०] चद्रमा का लोक । चद्रलोक । प्रत्येक वरण मे छह वर्ण होते हैं। यह दो यगण का वृत्त है । सोमवश-सरा पु. [मं०] १. युधिष्ठिर का एक नाम । २ चद्रवश। इसे शखनारी भी कहते हैं । उ०-चमू वाल देखो सुरगी उ.-सोमदत्त भरि जोम चलेउ भट सोमवश वर। पुलकि सुभेखो। धरे याहि पाजी। कहैं सोमराजी।-छद प्रभाकर रोमबल तोम महत मुदरोम रोमधर ।-गिरिधर (शब्द॰) । (शब्द०)। मोमराजी तैल-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] कुष्ठादि चर्मरोगो की एक तलौषध । सोमवशीय-वि० [सं०] १ चद्रवश मे, उत्पन्न । २ चद्रवशे सबधी, विशेष-इस औषध के बनाने की विधि इस प्रकार है-चकुची चद्रवश का। का काढा, हलदी, दारुहलदी, सफेद सरसो, कुट, करज, पँवार सोमवश्य–वि० [स०] दे० सोमवशीय। के वीज, अमलतास के पत्ते, ये सब चीजे एक सेर लेकर चार सोमवत्-वि० [सं०] [वि० सी० सोमवती] १ सोमयुक्त । चद्रयुक्त है। सेर सरसो के तेल और सोलह सेर पानी मे पकाते है । इम तेल २ चद्रमा के समान । के लगाने से अठारहो प्रकार के कोढ, नासूर, दुष्ट व्रण, नीलिका सोमवती--मशा स्त्री० [म०] सोमवार को पडनेवाली, अमावस्या । व्यग, फुसी, गभीरसज्ञक वातरक्त, कडु, कच्छु, दाद और सोमवती अमावस्या। 1