पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४८८

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6007 सोलह सिंगार सोरवा जिसमे उसकी चिता की राख बटोरकर नदी या जलाशय मे फिर गुजगत, काठियावाड, राजपूताने और बघेलखड मे उनके फेंक दो जाती है। विरात्रि । राज्य स्थापित हुए। उत्तरी भारत मे जिस समय थानेश्वर सोरबा-सा पु० [फा० शोरवा] दे० 'शोरबा' । और कन्नौज के परम प्रतापी सम्राट हर्पवधन का राज्य था, सोरभखो-सञ्चा ली० [१० शूरभक्षी] तोप या बदूक । (डि०) । उस समय दक्षिण मे मोलकी सम्राट् द्वितीय पुनकेशी का राज्य सोरस-वि० [स० सुरस] ग्सीला । सुदर। दे० 'सरस'। उ०-रग भूमि था, जिससे हर्षवर्धन ने हार खाई थी। रीवां का वघेलवश को 'कोरस' सोरस कत्र बरसा। -प्रेमघन०, भा० १, पृ०४६ । इसी सोलकी वश की एक शाखा है। इस समय मोलकी और सोरसती:-मज्ञा स्त्री० [स० सरस्वती] सरस्वती नदी। विशेप दे० बघेल अपने को अग्निवणी बतलाते हैं और अपने मूल पुरुप 'सरस्वती' । उ०--गगा जमुना सोरसती जहाँ अमी का वास । चालक्य को वशिष्ठ ऋपि द्वारा आबू पर के यज्ञकुड से उत्पन्न --सत० दरिया०, पृ० ३ । कहते है। पर यह बात पृथ्वीराज रानो अादि पीछे के ग्रयो के सोरह-वि०, सज्ञा पु० [स० पोडश, प्रा० मोलस, सोलह] दे० आधार पर ही कल्पित जान पडती है, क्योकि विक्रम म०६३५ 'सोलह'। उ०--सवत् सोरह से इकतीसा। करउँ कथा हरि से लेकर १६०० तक के अनेक शिलालेखो, दानपनो प्रादि मे पद धरि सोसा।-तुलसी (शब्द०)। इनका चद्रवशी और पाडवो का वशधर होना लिखा है। बहुत दिनो तक इनका मुख्य स्थान गुजरात था । सोरहिया-सज्ञा स्त्री० [हिं० सोरह +इया (प्रत्य॰)] १ दे० 'सोरही'। २ भाद्र शुक्ल अष्टमी (राधाष्टमी) से सोलह दिन तक चलने- सोल'--वि० [म०] १ शीतल । ठढा । २ कसैला, खट्टा और तीता । वाला लक्ष्मीपूजन एव व्रतविधान जिसकी समाप्ति आश्विन चरपरा। कृष्ण अष्टमी (जीवत्पुत्रिका या जिउतिया व्रत) के दिन होती सोल'--मशा पु० १ शीतलता। ठढापन । २ कमैलापन, खट्टापन, हैं। इस दिन स्त्रियाँ २४ घटे' का निर्जल उपवास, व्रत एव तीतापन, चरपापन आदि । ३ स्वाद । जायका । लक्ष्मीपूजन करती है। इसे १६ दिन तक चलने के कारण सोल 9+---वि० [स० पोडश] दे० 'सोलह' । उ०-सुदर सोल सिंगार सोरहिया भी कहते है । यह व्रत वाराणसी मे बहुप्रचलित हे जहाँ सजि गई सरोवर पाल। चद मुलक्यउ, जल हँस्यउ, जलहर लक्ष्मीकुड पर विशाल मेला भी लगता है । दे० 'जिउतिया' । कपी पाल |--ढोला०, दू० ३६४ । सोरही-सज्ञा स्त्री० [हिं० सोलह + ई (प्रत्य॰)] १ जूया खेलने के सोल'--सज्ञा पुं० [अ०] जूते मे लगाने का चमडे का तल्ला । लिये सोलह चित्ती कौडियो का समूह । २ वह जूग्रा जो सोलह मोलपगो --सञ्ज्ञा पु० [देशी] वेकडा । (डि०) । कोडियो से खेला जाता है। ३ कटी हुई फसल की सोलह सोलपोला--वि० [हिं० पोल + अनु० सोल] वेफायदा। व्यर्थ का। अंटियो या पूलो का बोझ, जिससे खेत की पैदावार का-अदाज उ०--ना से सोलपोल तुम लाई । पकरै तो कुछु ज्वाब न पाई। लगाते हैं । जैसे,—फी वीघा सौ सोलही। ४ वैश्यो के कुछ वर्गो -घट०, पृ० १६३ । मे मृतक के लिये उसकी मृत्यु के सोलहवें दिन किया जाने- सोलवाँ --वि० [हिं० सोलह + वा (प्रत्य०) दे० 'सोलह्वाँ' । वाला ब्राह्मणभोज आदि कर्म । सोरा-सशा पुं० [फा० शोरह,] दे० 'शोरा' । उ.-सीतलतारु सोलह --वि० [स० पोडश, प्रा० सोलस, सोलह] जो गिनती मे दस से छह अधिक हो। पोडश। सुगध की घटै न महिमा मूर । पीनसवारे ज्यो तज सोरा जानि कपूर |--विहारी (शब्द०)। सोलह--सज्ञा पु० दस और छह की सच्या या अक जो इस प्रकार सोराना -क्रि० प्र० [हिं० सोर ( = जड) से नाम०] जड पकडना। लिखा जाता है--१६ ।। उ०-तर क्या करागे मध्वन | अभी एक पानी और चाहिए । महा०--सोलह आने, सोलहो पाने = सपूर्ण । पूरा पूरा । जैसे,- तुम्हारी आलू सोरा कर ऐसा ही रह जायगा ? ढाई रुपए के तुम्हारी बात सोलहो पाने मही है । उ०-अरे न सोलह आने विना ।—तितली, पृ० ३३। तो पाई ही सही।-प्रेमघन०, पृ० ४५८ । सोलह सोलह सोरावास-मज्ञा पुं० [स०] विना नमक का माम का रसा। विना गडे सुनाना = खूब गालियां देना। नमक का शोरवा। सोलहनहॉ--सज्ञा पु० [हिं॰ सोलह + नहें ( = नख)] वह हाथी सोराष्ट्रिक-सज्ञा पुं॰ [स० सौराष्ट्रिक] दे० 'सौराष्ट्रिक' । जिमके सोलह नख या नाखून हो। सोलह नाखूनवाला हाथी सोरी+-सज्ञा स्त्री० [स० स्रवण (= बहना या चूना)] बरतन मे जो ऐबी समझा जाता है । महीन छेद जिसमे से होकर पानी आदि टपककर बह जाता हो । सोलहवॉ--वि० [हिं० मोलह + वां (प्रत्य॰)] [वि० सी० सोलहवी] सोर्णभ्र -वि॰ [स०]जिमकी दोनो भवो के बीच रोग की भवरी मी हो। जिमका स्थान पद्रहवे स्थान के बाद हो। जिसके पहले पद्रह सोमि, मोमिक-वि० [स०] लहरो से युक्त । तरगमय [को०]। . सोलकी-सज्ञा पु० [देश०] क्षत्रियो का एक प्राचीन राजवश जिसका सोलह मिगार--सञ्ज्ञा पु० [हि० मोलह + सिंगार] सिंगार की एक अधिकार गुजरात पर बहुत दिनो तक था।' विधि जिसमे १६ उपकरण है । विशेष--ऐसा माना जाता है कि मोलकियो का राज्य पहले विशेप--इसके अतर्गत अग मे उबटन लगाना, नहाना, स्वच्छ अयोध्या मे था जहाँ से वे दक्षिण की ओर गए और वहाँ से वस्त्र धारण करना, वाल संवारना, काजल लगाना और हो।