पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/२१३

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1 - ही साँ ५५२५ हीन ही सा-सज्ञा पुं० [अ० हिस्सह, ] दे० 'हिस्सा' । हीठने न देना । उ० -(क) झा झा अरुझि अरुझि कित ही ही "--सञ्ज्ञा स्त्री० [अन०] हँसने का शब्द । जाना । हीठत ढूढत जाइ पराना ।--कबीर (शब्द॰) । (ख) -अव्य० [स० हि (निश्चयार्थक)] एक अव्यय जिसका व्यवहार बहुत दिवस मे हीठिया शून्य समाधि लगाय । करहा परिगा जोर देने के लिये या निश्चय, अनन्यता, अल्पता, परिमिति गांड मे दूरि परे पछिताय |--कवीर (शब्द॰) । २ जाना । तथा स्वीकृति ग्रादि सूचित करने के लिये होना है । जैसे,-- पहुँचना। उ०--(क) जेहि वन सिंह न सचरे, पछी नही (क) आज हम रुपया ले ही लेगे। (ख) वह गोपाल ही का काम उडाय । सो बन कविरा हीठिया, शून्य समाधि लगाय ।-- है । (ग) मेरे पास दस ही रुपए है। (घ) अभी यह प्रयाग ही कवीर (शब्द॰) । (ख) मन तो कहै कब जाइए, चित्त कह तक पहुँचा होगा। (च) अच्छा भाई हम न जायेंगे, गोपाल कब जाउँ । छ मासे के हीठते याध कोस पर गाउँ ।-- ही जायें । इसके अतिरिक्त और प्रकार के भी प्रयोग इस शब्द कवीर (शब्द॰) । के प्राप्त होते है । कभी इस शब्द से यह ध्वनि निकलती है कि, हीठा'--क्रि० वि० [ प्रा० हेट्ठ ] पास । नीचे । उ०-नी सौ 'औरो की बात जाने दीजिए' । जैसे,--तुम्ही बतायो इसमे हमारा करी ताहि के हीठा । गुरू प्रसाद सर्व हम दीठा ।-कबीर क्या दोप? सा०, पृ०५। ही' --सझा पु० [स० हृत्, प्रा०, अप० हिप्र>ही ] दे० 'हिय','हृदय'। हीठा'--सज्ञा पुं० [स० अधिष्ठा ] वह स्थान जहाँ कोई वहधा बैठता उ०—(क) मन पछितैहै अवसर बीते । दुर्लभ देह पाइ हरि- हो । अड्डा। पद भजु करम वचन अरु ही ते ।-तुलसी ग्र०, पृ० ५५७ । हीणमान-वि० [सं० ह्रीमान या हीनमान] हतवीर्य । वेइज्जत । (ख) उघरहिँ विमल विलोचन ही के । मिटहिँ दोष दुख भव लज्जायुक्त । शर्मिदा। उ०-राज राव अन राण पिनाक पै रजनी के |--मानम ११॥ धरे पाण । हिले होय हीणमान दई वाण दई वाण । -रघु० यौ०--हीतल । रू०, पृ० ७६। हीg:--क्रि० अ० [स० /भू, प्रा० भव, हव, वि, हो ] व्रजभाषा के हीत --वि० [सं० हित] हित करनेवाला । हितू। दे० 'हित' उ०-- 'होनो' (= होना) क्रिया के भूतकाल 'हो' (= था) का स्त्रीलिंग ऐसी विपति भई मोहि ऊपर कोई ना हीत हमारो ।-धरम० गत रूप । थी। उ०-एक दिवस मेरे गृह पाए, मै ही मथति श०, पृ० २१॥ दही।--सूर (शब्द॰) । हीतल-सञ्ज्ञा पु० [स० हृत्तल] हृदयस्थल । हृदय । उ०-दरस ही-सचा पु० [सं० हृदय, प्रा० हिअ ] दे० 'हिम' । सुरूपवान सीतल है, हीतल मे जाइ--अनुभावी कहे हीअर -सज्ञा पु० [स० हदय ] हियाव । साहस । हृदय । होत तात ।--अपनी०, पृ० १०५ । उ०-कहिसि कि धनि जननी धनि पीता । धनि हीअर जेहि हीता-सज्ञा पुं[अ० हीतह्] १ अहाता । घेरा। २ सीमा (को०] । यह रन जीता।-चित्रा०, पृ० १५१ । हीक-पञ्चा स्त्री० [म. हिक्का ] १ हिचकी । हीताई-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० हित + हि० प्राई ,(प्रत्य॰)] दे० 'हिताई । उ०--पलटू पाँव न दीजिए खोटा यह ससार। हीताई करि । क्रि० प्र०-याना । मिलत है पेट महै तरवार । -पलटू०, पृ० ११२ । २ हलकी अरुचिकर गध । जैसे,--बकरी के दूध मे से एक प्रकार की हीक आती है। हीन'--वि० [स०] [स्त्री॰ हीना] १ परित्यक्त । छोडा हुआ । क्रि० प्र०-याना। २. रहित । जिसमे न हो। शून्य । वचित । खाली । विना। मुहा०--हीक मारना=बसाना । रह रहकर दुर्गध करना । जैसे,—-शक्तिहीन, गुणहीन, धनहीन, बलहीन, श्रीहीन । २ निम्न कोटि का। नीचे दर्जे का। निकृष्ट । हीचनाg+-क्रि० अ० [अनु० हिच् ] हिचकना । आगा पीछा घटिया। जैसे-हीन जाति । ३ अोछा। नीच। बुरा । करना । जल्दी प्रवृत्त न होना। उ०—कहत सारदहु कै मति होचे । सागर सीप कि जाहि उलीचे । -तुलसी (शब्द॰) । असत् । खराव । कुत्सित । जैसे,--हीन कर्म । उ०--चपक कुसुम कहा सरि पावै । बरनी हीन वास वुरि आवै ।- हीछना --कि० अ० [ हि. ही छ+ना (प्रत्य॰)] इच्छा करना। नद० ग्र०, पृ० १२२ । ४ अनुपयुक्त । तुच्छ। नाचीज । कामना करना । चाहना। जिसमे कुछ भी महत्व न हो । ५ सुख समृद्धि रहित । दीन । हीछा-ज्ञा स्री० [ स० इच्छा ] दे० 'इच्छा' । जैसे,-हीन दशा । ३ पथभ्रष्ट । भटका हुआ। हीज'-वि० [फा० हीज] १ नपु सक । पुस्त्वविहीन । रास्ते से अलग जा पड़ा हुआ । जैसे-पथहीन । ७ अल्प । कम । उ०--जन रज्जब गुरु बयण सुणि विल होत वप वीज । यथा थोडा । ८ दीन । नम्र। उ०-रहै जो पिय के आयसु हाक हनुमत की सुनत होत नर हीज। -रज्जव०, पृ० ६ । औ वरतै होइ हीन । सोई चांद अस निरमल जनम न होइ हीज'--वि० [ देश० ] आलसी । मट्ठर। काहिल । मलीन ।--जायसी (शब्द०) ६ (वाद मे) पराजित या हीठना-क्रि० अ० [स० उप० अधि+ /स्था, अधिष्ठा, प्रा० अहिट्ठा] हारा हुआ (को०) । १० दोषयुक्त । सदोष । १ पास जाना। समीप होना । फटकना । जैसे--उसे अपने यहाँ हीन-सबा पुं० १ प्रमाण के अयोग्य साक्षी। वुरा गवाह । परस मे वगैर। साथ या २ कायर।