पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/५२

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स्पर्गा स्पष्टभापी म्प-श पी० [८०] कुनटा। पुश्चली। दुश्चरिवा स्त्री। छिनाल। स्पर्शाकामक-वि० [म०] ( रोग या दोप आदि ) जो स्पर्श या मनग के सण उत्पन्न हो । नगमा । इतहा । स्पर्शान--सरा पु० [म०] वह जिने न्पर्गनान न हो। स्पर्शानदा--मझा सी० [म० - निन्दा] अप्सरा । देवागना [को० । स्पर्शान कूल--वि० [म०J जो स्पर्श करने में अनुकूल या सुखद हो । छूने मे पान ददायक [को०] । स्पमिन--मरा पुं० [स०] देवतानो का एक वर्ग (को०] । स्पर्शासन-सज्ञा पु० एक प्रकार की उपासना पद्धति । ध्यान या उपासना में बैठने की एक मुद्रा या आसन विशेप । उ०- गधप, सर्शासन, चिंत्यद्योत इत्यादि कुछ उपासना पद्धतियाँ थी। -प्रा० भा० ५०, पृ० २२४ । स्पर्शासह--वि० [म०] १ जिसे स्पर्श सहन न हो । २ जिसका स्पर्श महन न हो यो। स्पर्शामहिष्ण--वि० [स०] २० 'म्पर्शासह' । स्पमित्य--वि० [म.] दे० 'स्पमिह' (को०) । स्पर्शाम्पर्ण--सर पु० [स० स्पर्श + अस्पर्श ] छूने या न छूने का भाव या विचार । इस बात का विचार कि अमुक पदार्थ छूना चाहिए और अमुक पदार्थ न छूना चाहिए । मृतछात । स्पणिक'-वि० [स०] १ स्पर्श करनेवाला । छूनेवाला । २ जिसका जान स्पर्श करने से हो सके। स्पशिक'-सज्ञा पुं॰ वायु । हवा । स्पर्शित--सज्ञा पु० [म० म्पणित ] १ स्पर्श किया हुआ। जिसका स्पर्श किया गया हो। २ प्रदत्त । दिया हुआ। दत्त (को०] । स्पर्शिता'-वि० सी० [म० म्पणित] स्पर्श की हुई अर्थात् भार्या के रूप में प्रदत्त (कन्या) [को०] । स्पर्शिता-वि० स्पर्श करनेवाला । छूनेवाला । स्पर्शी-वि० [म० स्पशिन] छूनेवाला । स्पर्श करनेवाला । जैसे- गगनम्पर्शी । ममम्पर्शी। स्पर्श द्रिय--मा सी० [स० म्पर्शेन्द्रिय] वह इद्रिय जिससे स्पर्श का ज्ञान होता है । त्वगिद्रिय । त्वचा। स्पर्शोपल-सा पु० [स०] पाग्न पत्र । स्पर्शमणि । पिटा-सा पुं० [म०] १ शारीरिक अव्यवस्था या अस्वस्थता । रोग । व्याधि। २ वह जो स्पर्श करता हो । स्पर्श करने या छूनेवाना किो०]। स्पश-सझा पु० [सं०] १ चर । दूत। २ युद्ध । लडाई । ३ पुरस्कार के लोभ ने जगली जानवरो ने लडनेवाला या इस प्रकार की डाई चिो०] । स्पष्ट'--वि० [0] १ जिमफे देखने या समझने आदि मे कुछ भी कठिनता न हो। साफ दिखाई देने या ममझ मे आनेवाला। जैसे,—(क) इगो अक्षर दूर से भी स्पष्ट दिखाई देते हैं । २ जिममे किसी प्रकार की लगावट या दावपेच न हो। सही। साफ । जैसे,--मै तो स्पष्ट कहता हूं, चाहे किसी को कुरा लगे और चाहे भल। । मुहा०-स्पष्ट कहन। या सुनाना- विल्कुल साफ माफ कहना । विना कुछ छिपाव अथवा किमी का कुछ व्यान किए वाहना। ३ वास्तविक । सच्चा (को०)। ४ पूणत विकमित । पूरा खिला हुप्रा (को । ५ सुस्पष्ट या साफ साफ देखनेवाला (को०)। ६ जो वत्र न हो । अकुटिल । सरल । सीमा (को०)। ७ प्रत्यक्ष । व्यक्त । (को०)। स्पष्ट-सा पु० १ ज्योतिप मे ग्रहो का स्फुटमाधन जिममे यह जाना जाता है कि जन्म के ममय अथवा किसी और विशिष्ट काल मे कौन सा ग्रह किस राशि के कितने अश, कितनी कला और कितनी विकला मे था। इसकी आवश्यकता ग्रहो का ठीक ठीक फल जानने के लिये होती है। २ व्याकरण मे वर्गों के उच्चारण का एक प्रकार का प्रयल जिसमे दोनो होठ एक दूसरे से छू जाते हैं। जमे,--प या म के उच्चारण मे स्पप्ट प्रयल होता है। स्पष्टकथन-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण मे कथन के दो प्रकारो मे से एक जिसम किसी दूसरे की कही हुई वात ठीक उसी रूप मे कही जाती है जिस रूप मे वह उसके मुहँ से निकली हुई होती है । जैसे,-कृष्ण ने साफ साफ कह दिया-'मैं उनसे किसी प्रकार का सवध न रखूगा।' इसमे लेखक ने वक्ता कृष्ण का कथन उसी रूप मे रहने दिया है, जिस रूप मे वह उसके मुंह से निकला था। स्पष्टगर्भा-सज्ञा स्त्री॰ [स०] वह स्त्री जिमके गर्भ के लक्षण साफ प्रकट हो [को०)। स्पष्टत --क्रि० वि० [सं०] दे० 'स्पष्टतया । स्पष्टतया--क्रि० वि० [म०] स्पष्ट रूप से । साफ साफ । उ० (क) इससे यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि समालोचना के मामान्य रूप का अर्थ मूल ग्रथ का दूषण या उसका खडन है। -गगाप्रसाद (शब्द०)। (ख) उपा काल की श्वेतता समुद्र मे स्पष्टतया दृष्टि पडती थी। स्पष्टतर--क्रि० वि० [स०] स्पष्ट से अधिक स्पष्ट । साफ साफ । स्पष्ट और स्पष्टतम के बीच की स्थिति । उ०-पुलक स्पद भर खिला स्पष्टतर --अपरा, पृ०५६ । स्पष्टता-सज्ञा स्त्री॰ [म०] स्पष्ट होने का भाव । मफाई । जैसे,—उसकी वातो की स्पष्टता मन पर विशेप रूप से प्रभाव डालती है। स्पष्टतारक-सञ्ज्ञा पुं० [स०] आकाश, जिसमे तारे स्पष्ट दिखाई पड़ें। स्पष्टप्रतिपत्ति-सज्ञा स्त्री॰ [म०] वह ज्ञान जो स्पष्ट हो । शुद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान (को॰] । स्पष्टप्रयत्न-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] दे० 'स्पष्ट'-२। स्पष्टभापी-वि० [सं० स्पष्टभापिन्] २० 'स्पष्टवक्ता' ।