पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१००

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पधरानो २००६ पनचक्की पघराना-क्रि० स० [सं० प्र+धारण] १ भादरपूर्वक ले जाना । पन-संज्ञा पुं० [हिं० पान] 'पान' शब्द का योगिक पद प्रयुक्त रूप । इज्जत से बैठाना । उ०—कुज महल पपराइ लाल को हटी जैसे, पनडब्बा, पनकुट्टी। सवै वृजवासिनि गोरी। -भारतेंदु न०, भा॰ २, पृ० ६४१ । पन" -संज्ञा पुं० [हिं० पानी ] 'पानी' शब्द का यौगिक पद प्रयुक्त २ प्रतिष्ठित करना । स्थापित करना । रूप । जैसे, पनचक्की, पनडुब्यो । पधरावना-क्रि० स० [हिं० पघराना ] दे० 'पधराना' । उ०- पनकटा-मरा पु० [हिं० पानी + काटना ] वह मनुष्य जो गेतो मे यह जेमल जी आपको पधरावन आयो है।-दो सौ इधर उधर पानी ले जाता या खीचता हो । वावन०, भा० १, पृ०२५१ । पनकपड़ा-सा पुं० [हिं० पानी + कपड़ा ] १. वह गीला कपडा पधरावनी-सशा खी० [हिं० पधराना] १ किसी देवता की जो शरीर के किसी प्रग पर चोट लगने या कटने या छिलने स्थापना । २. किसी को आदरपूर्वक ले जाकर बैठाने की आदि पर बांधा जाता है। २ वह कपडा जिससे तमोली त्रिया या भाव । पघराने की क्रिया। पान की दुकान पर पान पोछता, ढंकता और लगाता है । पधारना'-क्रि० प्र० [हिं० पग+ धारना ] १ जाना । चला इसे पनवसना भी कहते हैं। उ०-तमोली ने कत्था चूना से जाना । गमन करना। उ०-हाय ! इन कुजन तें पलटि लाल पनकपडे पर छोटे छोटे उजले पानो को नफासत से पधारे श्याम देखन न पाई वह मूरति सुधामई ।-द्विजदेव पोछते हुए कहा ।-शरावी, पृ० ४। ( शब्द०)।२ प्रा पहुंचना । पाना। उ०-भले पधारे पनकाल-संश पुं० [हिं० पानी+काल या अकाल ] वह अकाल पाहुँने ह गुडहल के फूल । -विहारी ( शब्द०)। ३ जो प्रतिवर्षा के कारण हो । गमन करना । चलना। पनकुकड़ो-सचा सी० [हिं० पानी + कुकड़ी ] दे० 'पनकौवा'। पधारनारे-क्रि० स• प्रादरपूर्वक बैठाना । पधराना । प्रतिष्ठित करना । उ०—(क) तिल पिडिन में हरिहिं पधारे। विविध पनकुट्टी-सज्ञा स्त्री० [हिं० पान + कूटना ] वह छोटा खरल जिसमे भांति पूजा अनुसारे।-रघुनाथ ( शब्द०) (ख) एक दिन प्राय वृद्ध या टूटे हुए दांतवाले लोग खाने के लिये पान कूटते है। स्वप्न ही मे कह्यो भगवान हम कूप परे हमको पघारिए निकास के ।-रघुराज (शब्द॰) । पनकौवा–सञ्चा पु० [हिं० पानी + कौवा ] एक प्रकार का जल- विशेष-इस शब्द का प्रयोग केवल वडे या प्रतिष्ठित के प्राने पक्षी । जलकौवा । विशेप दे० 'जलकौवा'। अथवा जाने के सवध मे आदरार्थ होता है। पनखट-सज्ञा पुं० [हिं० पनहा+काठ ] जुलाहो की वह लचीली पधियाई।-सचा सी० [हिं० पाधा तुल० स० उपाध्याय तथा पजाबी धुनकी जिसपर उनके सामने बुना हुआ कपडा फैला 'पाधा' ] पुरोहिताई। उ०—परदादा करते पधियाई । दादा रहता है। ने पटवार सम्हाली। पिता क्लर्क वने, फिर बढकर अपने ही पनग@-सज्ञा पु० [ स० पन्नग ] सर्प । मांप। उ०-छुटि तिहि दफ्तर के वाली ।-चांदनी०, पृ० ६७ । वेर मतग खेल देखन को धायो । एक मोजरी मद्धि पनग फन पध्धरा-वि० [ देशी ] ऋजु । सरल । सीधा। उ०--मारु देस पानि लुकायो।-पृ० रा०, ११५०६ । उपन्नियाँ सर ज्यउँ पध्धरियांह । ढोला०, दू०.४८४ । पनगाचा-मजा पुं० [हिं० पानी + गाली (= वाग)] पानी से पनगर-पशा पुं० [मं० पन्नग] सर्प । सांप । उ०-वार रवी तिथि भरा या सीचा हुअा खेत। सत्तमी चलि रथ सुतर मतग। तिहि वेरा आयो कहे डेरा पनगोटी-प्रज्ञा प्री० [हिं० पानो+गोटी ] मोतिया शीतला । माहि पनग।-पृ० रा०, ११५०८ । पनघट-राज्ञा पु० [हिं० पानी + घाट ] पानी भरने का घाट। पन'-मज्ञा पुं० [सं० पण, या सं० प्रतिज्ञा, प्रा० पइण्णा ] प्रतिज्ञा । वह घाट जहाँ से लोग पानी भरते हो। उ०-निदंई सकल्प । महद । उ०-(क) पन विदेह कर कहहि हम श्याम ने फोर दई पनघट पर मोरी मागरिया ।-गीत । भुजा उठाइ विसाल । -मानस, ११३४६ । (ख) सनमुख (शब्द०)। दियो सुरंग उसे पन पाहन प्राधे । निकसो खोलि किवारि पनच-यापी० [ म० पतन्चिका ] घनुप का रोदा या टोरी। रारि करिव को राधे। -नज०म०, पृ० ४० । प्रत्यचा । उ०-तीन पनच धुनहीं करन वटे कटन तडीर । पन:--सशा पु० [सं० पर्वन् ( = विशेष अवस्था )] आयु के चार सगुन विना पग ना घरै निकट बन हबीर। -पृ० भागो मे से एक । उ०—सत कहहिं अस नीति दसानन । रा०, ७७६। चौथेपन जाइहिं नृप कानन ।—तुलसी (शब्द॰) । पनचक्की-सरा सी० [हिं० पानी+चक्की ] पानी के जोर से विशेष साधारणत लोग आयु फे चार भाग अथवा अवस्थाएँ चलनेवाली चक्की या और कोई कल । मानते हैं। पहली बाल्यावस्था, दूसरी युवावस्था, तीसरी विशेप-प्राय लोग नदी या नहर आदि के किनारे जहां पानी प्रौढ़ावस्पा, मोर चौथी वृद्धावस्था । का वेग कुछ अधिक होता है, बोई चपनी या दूसरी फल पन–प्रत्य० हिं० जिसे नामवाचक या गुणवाचक सज्ञामो मे लगाकर लगा देते हैं और उसका सबध एक ऐसे बड़े चक्कर में नाप भाववाचक सशा बनाते हैं। जैसे, लड कपन, छिछोरापन । कर देते हैं जो वहते हुए जल मे प्राय. पाधा हवा रहता है।