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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१११

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परई २८२० परफिय ऊधम पर काट देना = अशक्त कर देना । कुछ करने घरने लायक का वह स्थान जहाँ रजक रखी जाती है या वत्ती दी न रखना। पर कैंच करना = पख कतरना । (कबूतरवाज)। जाती है । ( लश० )। पर जमना = (१) पर निकलना। (२) जो पहले सीधा परकाना-क्रि० स० [हिं० परकना ] १ परचाना । हिलाना । सादा रहा हो उसे शरारत सूझना। धूतता, चालाकी, दुष्टता मिलाना । २. ( किसी को ) कोई लाभ पहुंचाकर या कोई आदि पहले पहल आना। ( कहीं जाते हुए) पर जलना = बात बेरोकटोक करने देकर उसकी प्रोर प्रवृत्त करना। धडक (१) हिम्मत न होना । साहस न होना। (२) गति न खोलना । अभ्यास डालना । चसका लगाना । होना । पहुंच न होना । जैसे,—वहाँ जाते बडे वडो के पर जलते हैं, तुम्हारी क्या गिनती है ? पर झाड़ना = परकाय-मज्ञा पु० [ स०] अन्य का शरीर । दूसरे का शरीर किो०] । (१) पुराने परो का गिराना । (२) पख फटफटाना । डैनो परकायप्रवेश-वश पुं० [ म० ] अपनी आत्मा को दूसरे के शरीर को हिलाना । पर टूटना = दे० 'पर जलना'। पर टूट जाना = मे डालने की क्रिया, जो योग की एक सिद्धि समझी जाती है। दे० 'पर कट जाना'। पर न मारना = पैर न रख सकना । परकार'-सशा पुं० [फा०] वृत्त या गोलाई खीचने का औजार जो जान सकना। फटक न सकना। चिड़िया पर नहीं मार पिछले सिरो पर परस्पर जुडी हुई दो शलाकामो के रूप पा सकती=कोई जा नहीं सकता। किसी की पहुंच नहीं हो होता है। सकती। पर निकालना = (१) पखो से युक्त होना। उडने परकार-सञ्ज्ञा पुं॰ [ म० प्रकार ] 10 'प्रकार'। उ०-(क) योग्य होना । (२) बढकर चलना । इतराना। अपने को अपना वचन नहीं परकार जे अगिरिश से देलहि नितार । कुछ प्रकट करना । पर और बाल निकलना = (१) सीधा विद्यापति, पृ० २०६ । (ख) चपरि चखनि ते जो जल पावै । सादा न रहना। बहुत सी बातो को समझने वूझने लगना । इहिं परकारि तिया जु जनावै ।-नद० ग्र०, पृ० १५१ । कुछ कुछ चालाक होना । (२) उपद्रव करना । परकारना -क्रि० स० [हिं• परकार+ना (प्रत्य॰)] १ परकार मचाना। पर बाँध देना = उडने की शक्ति न रहने देना। वेबस कर देना। से वृत्त आदि वनाना। २ चागे पोर फेरना। प्रावेष्ठित करना । उ०-दसहूँ दिसति गई परकारी । देख्यौ समै परई-सज्ञा स्त्री॰ [स० पार( = कटोरा, प्याला)] दीए के आकार का भयानक भारी।-छत्रप्रकाश (शब्द०)। पर उससे वडा एक मिट्टी का वरतन । पारा । सराव । परकाल-सज्ञा पुं॰ [फा० परकार ] दे० 'परकार'। परकटा-वि० [म० प्रकट] दे० 'प्रकट' । उ०-मपनर्थ धन हे धनिक परकाला - सशा पु० [म० प्राकार या प्रकोप्ट ] १ सीढी। जीना। धर गोए । परक रतन परकट कर कोए । विद्यापति, २. चौखट । देहली। दहलीज । पृ०१४४। परकाला-सशा पुं० [फा० परगालह.] १ टुकडा । खड । उ०- परफटा-वि० [ फा० पर+हिं० कटना ] जिसके पर या पख कटे मु दर जीव दया करे न्यौता माने नाहिं । माया छुवै न हाथ हों। जैसे, परकटा कबूतर । सौ परकाला ले जाहिं ।-सुदर ग्र०, भा॰ २, पृ० ७३५ । २ शीशे का टुकडा । ३. चिनगारी। अग्निकण । परफनाल-क्रि० अ० [हिं० परचना ] १ परचना। हिलना । मिलना। २ जो वात दो एक बार अपने अनुकूल हो गई हो मुहा०-श्राफत का परकाला = गजव करनेवाला । अद्भुत शक्ति- या जिस बात को कई बार वे रोकटोक कर पाए हो उसकी वाला । प्रचड या भयकर मनुष्य । ओर प्रवृत्त होना । घडक खुलना । अभ्यास पडना । चसका परकास--सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० प्रकाश ] दे० 'प्रकाश' । उ- गुर पाए लगना । उ०-माखन चोरी सों श्ररी परकि रह्यो नंदलाल । घन गरज कर शव्द किया परकास । वीज पड़ा था भूमि चोरन लाग्यो अब लखौ नेहिन को मनमाल । -रसनिधि मे अव भई फूल फल प्रास।-दरिया० वानी, पृ० १ । (शब्द०)। परकासक-वि० [स० प्रकाशक ] दे० 'प्रकाशक' । उ०-अस परकर्षण-संज्ञा पुं॰ [सं०] शत्रु की सपत्ति आदि लूटना। अध्यातम दीप जु कोई। वुध्यादिक परकासक सोई ।-नद. ग्र०, पृ० २२६ । परकलत्र-सञ्ज्ञा पु० [सं०] अन्य व्यक्ति की स्त्री । दूसरे की परकासनाल-क्रि० स० [स० प्रकाशन] १ प्रकाशित करना । पत्नी को। उ०—जो कछु ब्रह्म ब्रह्म सुख प्राहि । विदुपनि कों परकासत परकसना-क्रि० प्र० [हिं० परकासना] १ प्रकाशित होना। ताहि।-नद० ग्र०, पृ० २६० । २ प्रकट करना । जगमगाना । २ प्रकट होना। परकासिक-वि० [सं० प्रकाशक ] दे० 'प्रकाशक' । उ-सवन के परकाज-सज्ञा पु० [हिं० पर+काजी ( = काम करनेवाला)] दूसरे नैना प्रान परकासिक ताके ढिग, रच्यो चखोडा छाज, छवि का काम । परकारज । कही न जाई ।-नद० ग्र०, पृ० ३४० । परकाजी-वि० [हिं० पर+काज ] दूसरों का कार्यसाधन करने परकिति+--सशा सी० [स० प्रकृति ] दे॰ 'प्रकृति' । वाला । परोपकारी। परकिया-सशा स्त्री॰ [स० परकीया ] दे० 'परकीया' । उ०- परकान-सज्ञा पुं० [हिं० पर+कान ] तोप का कान या मूठ। तोप दीपग फीके फूल ऐलाने । परकिय तियनि के हिय