पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/११३

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परगसना २८२२ परचारगी परगसना-क्रि० अ० [स० प्रकाशन प्रकाशित होना । प्रकट होना। परगह-सशा पुं० [सं० परिग्रह ] दे० 'परिगह' । उ०-परगह सह परवार परी सहमार उडाणू ।-रघु० रू०, पृ०४८ । परगहनी-सशा मी [स० प्रग्रहण ] नली के प्राकार का सुनारों का एक औजार जिसमे करछी की सी डौडी लगी होती है। इस नली मे तेल देकर उसमे चांदी या सोने की गुल्लियां ढालते है। परगनी। परगाछा-सज्ञा पुं० [हिं० पर ( = दूसरा)+गाध ( = पेद) ] एक प्रकार के पौधे जो प्राय गरम देशों मे दूसरे पेडो पर उगते हैं। विशेष - इनकी पत्तियां लवी और खडी नसो की होती हैं। फूल सु दर तथा अद्भुत वर्ण भौर प्राकृति के होते हैं । एक ही फूल में गर्भकोश और परागकेसर दोनों होते हैं। परगाछे की जाति के बहत से पौधे जमीन पर भी होते हैं और फूलो की सु दरता के लिये वगीचो मे प्राय लगाए जाते हैं। ऐसे पौधे दूसरे पेडो की हालियो प्रादि पर उगते अवश्य हैं, पर सव परपुष्ट (दूसरे पेडो के रस धातु से पलनेवाले ) नहीं होते परगाछे की कोई टहनी या गांठ भी बीज का काम देती उससे भी नया पौधा अकुर फोडकर ( गन्ने की तरह ) निकल पाता है । परगाछे को सस्कृत मे वदाक और हिंदी में बांदा भी कहते हैं। परगाछी-सञ्ज्ञा यी [हिं० परगाछा ] अमरवेल । आकाशवार । परगाद-वि० [सं० प्रगाढ ] दे० 'प्रगाढ़' । परगामी--वि• [म० परगामिन् ] [वि॰ स्त्री० परगामिनी ] १ अन्य के साथ गमन करनेवाला । २ दूसरे के लिये हितकर [को०] । परगास-सशा पुं० [स० प्रकाश] दे० 'प्रकाश'। उ०-भला है प्रस्थान अम्मर, जोति है परगास !-जग० वानी, पृ०४। परगासना-क्रि० अ० [सं० प्रकाशन ] प्रकाशित होना। परगासना-क्रि० स० प्रकाशित करना । परगुण-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] दूसरे के लिये हित (को०)। परघट-वि० [हिं० परगट, प्रगट ] दे० 'प्रगट', 'प्रकट'। 30- दरिया परघट नाम विन, कहो कौन पायो देख। -दरिया० बानी, पृ०७॥ परधनी-मज्ञा श्री० [हिं० परगनी] दे० 'परगहनी' । परचंद-वि० [सं० प्रचएर ] दे० 'प्रचड' । परचई-सक्षा स्री० [हिं०] दे० 'परफ' । परचक्र-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १ शत्रु की सेना। २. शत्रु का राज्य और वर्ग। ३ शत्रु द्वारा चढ़ाई (को०)। परचवg-सञ्चा ची [ स० परिचित ] जान पहचान । जानकारी। उ०-कब लगि फिरिहै दीन भयो। सुरत सरित भ्रम भंवर परयो तन मन परचत न लह्यो।—सूर (शब्द०)। परचना-क्रि० अ० [सं० परिचयन ] १ किसी को इतना अधिक जानबूझ लेना कि उससे व्यवहार करने में कोई सकोच या खटका न रहे। हिलना मिलना। घनिष्टता प्राप्त करना । जैसे,—(क) बच्चा जब परच जायगा तव तुम्हारे पास रहने लगेगा। (ख) परच जाने पर यह तुम्हारे साथ साथ फिरेगा। २ जो बात दो एक बार अपने अनुकूल हो गई हो या जिस बात को दो एक बार वे रोकटोक मनमाना करने पाए हों उसकी पोर प्रवृत्त रहना । उसका लगना | घडक खुलना । टेव पडना । जैसे,—इसे कुछ न दो, परच जायगा तो नित्य आया करेगा। संयो० कि०-जाना। ३ व्यक्त होना । प्रगट होना । पहचाने जाना। परचर-संज्ञा पुं० दिश०] बैलों की एक जाति, जो प्रवध के सीरी जिले के प्रासपास पाई जाती है। परचा'-मज्ञा पुं॰ [ फा० परचह ] १ कागज का टुक्डा । चिट । कागज । पत्र । १ पुरजा । सत । रुक्का । चिट्ठी। ३ परीक्षा में आनेवाला प्रश्नपत्र । जैसे,—इम्तहान में हिसाव का परचा विगढ़ गया। परचा'-मग पुं० [सं० परिचय ] १ परिचय । जानकारी । उ०- कहा हाल तेरो दास का निस दिन दुख मैं जोय । पिव सेती परचो नहीं बिरह सतावे मोय ।-दरिया० बानी, पृ० ६३ । मुहा०-परचा देना = ऐसा लक्षण या चिह्न वताना जिससे लोग जान जायें। नाम ग्राम बताना। २ परख । परीक्षा । जाँच । ३ प्रमाण । सबूत । मुहा०-परचा मांगना। (१) प्रमाण या सबूत देने के लिये कहना। (२) किसी देवी देवता से अपनी शक्ति दिखाने को बहना । (पोझा)। परचार-सशा पुं० [देश॰] जगन्नाथ जी के मदिर का वह प्रधान पुजारी जो मदिर की आमदनी और खर्च का प्रवध करता और पूजासेवा प्रादि की देखरेख रखता है। परचाधारी-वि० [ मं० प्रत्ययधारिन् ] प्रधान । श्रेष्ठ । परघावाले । उ०-नारायण दास जी तपस्वी पौर परचाधारी महात्मा थे।-सु दर ग्र० (जी०), भा० १, पृ०७४ । परचाना-फ्रि० स० [हिं० परचना ] किसी से इतना अधिक लगाव पैदा करना कि उससे व्यवहार करने मे कोई सकोच या खटका न रहे । हिलाना। मिलाना । प्राकषित करना । जैसे, बच्चे को परचाना, कुत्ता परचाना । सयो० क्रि०-लेना। २. दो एक बार किसी के अनुकूल कोई बात करके या होने देकर उसको इस बात की पोर प्रवृत्त करना । घटक खोलना । चसका लगाना। टेव डालना। जैसे,—इन्हें कुछ देकर पर- चाप्रो मत, नही तो बरावर तग करते रहेंगे। संयो० क्रि०--देना। परचाना२--क्रि० स० [सं० प्रज्वलन ] प्रज्वलित करना । जलाना उ०--चिनगि जोति करसी ते भागे । परम ततु परचा लागे ।-जायसी (शब्द०)। परचार--सज्ञा पुं॰ [ स० प्रचार ] दे॰ 'प्रचार'। परचारगी-सझा सी० [सं० परिचर्या, हि० परिचार, परचार+गी