परचारना २८२३ परज' (प्रत्य॰) ] सेवा । परिचर्या उ०--सो श्री गुसाई जी की परछा'-सज्ञा पुं० [सं० प्रणिच्छद ] १ वह कपड़ा जिससे तेली परचारणी भौर टहल करती।-दो सौ बावन०, भा० कोल्हू के वैल की प्रांखो में अंधोटी बाँधते हैं । २ जुलाहो १, पृ० ३१५। की नली जिसपर वे सूत लपेटते हैं। सूत की फिरकी । परचारना-क्रि० स० [सं० प्रचार] दे० 'प्रचारना' । उ०—कपि घिरनी। वलु देखि सकल हिय हारे । उठा पापु कपि के परचारे।- परछा-सज्ञा पुं॰ [२] [स्त्री० अल्पा० परछी] १ बडी बटलोई । मानस, ६॥३४॥ वडा देग । २. कडाई । कढ़ाई। ३ मिट्टी का मझोला बरतन । परचित्तपर्यायज्ञान-सज्ञा पुं० [ स०] अपने चित्त मे दूसरे के चित्त परछा-सञ्ज्ञा पुं० [सं० परिच्छेद ] बहुत सी वस्तुप्रो के घने का भाव जानना (बौद्ध)। समूह मे से कुछ के निकल जाने से पडा हुप्रा अवकाश । परची-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० परचा] दे० 'परचा' । विरलता। छीट। २ घनेपन या भीड की कमी। भीड परचून-सा पुं० [ सं० पर (-अन्य, और) +चूर्ण ( = आटा)] का छटाव। पाटा, चावल, दाल, नमक, मसाला आदि भोजन का फुटकर क्रि० प्र०—करना ।—होना । सामान । जैसे, परचून की दुकान । उ०-नौनीले पन्ने दस ३ समाप्ति । निबटेरा । चुकाव । फैसला । दून । चारि गांठि चूनी परचून ।-अर्घ०, पृ० २७ । क्रि० प्र०—करना ।—होना । परचूनी'-सज्ञा पुं० [ हिं० परचून ] परचूनवाला । आटा, दाल, परछाई -सशा स्त्री० [ सं० प्रतिच्छाया ] १ प्रकाश के मार्ग मे पडने- नमक, आदि वेचनेवाला वनिया। मोदी। वाले किसी पिंड का आकार जो प्रकाश से भिन्न दिशा परचूनी -सञ्ज्ञा स्त्री० परचून या परचूनी की काम या भाव । की ओर छाया या अधकार के रूप मे पडना है। किसी वस्तु परचे-सज्ञा पुं० [सं० परिचय ] दे० 'परिचय' । की प्राकृति के अनुरूप छाया जो प्रकाश के अवरोध के कारण परचै-मशा पुं० [स० परिचय] दे॰ 'परिचय', 'परचा' । उ०—परचे पडती है। छायाकृति । जैसे,-लडका दीवार पर अपनी चक्र काया में सोई । जो ऊगै तो सब सुख होई । -कवीर परछाई देखकर डर गया । सा०, पृ०८७६। क्रि०प्र०-पटना। परचो-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'परिचय' । मुहा०-परछाई से डरना या भागना = (१) बहुत डरना । परच्छद-वि० [सं० परच्छन्द ] पराधीन । अत्यंत भयभीत होना । (२) पास तक पाने से डरना। (३) परच्छदानुवर्ती--वि० [सं० परच्छन्दानुवतिन् ] परतत्र । अस्वाधीन । दूर रहने की इच्छा करना । कोई लगाव रखना न चाहना पराधीन [को०] । (घृणा या पाशका से )। परछत्ती-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० परि ( = अधिक, ऊपर ) + छत २ जल, दर्पण आदि पर पड़ा हुआ किसी पदार्थ का पूरा प्रति- (= पटाव) ] १ घर या कोठरी के भीतर दीवार से रूप । प्रतिबिंब । अक्स । लगाकर कुछ दूर तक बनाई हुई पाटन जिसपर सामान क्रि० प्र०-पढ़ना। रखते हैं। टांड । पाटा । २ हलका छप्पर जो दीवारो पर परछालना-क्रि० स० [स० प्रक्षालन] जल से धोना। पखारना । रख दिया जाता है । फूस प्रादि की छाजन । परछाही-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'परछाई' । उ०—उन्होने कृष्ण परछन-सञ्ज्ञा श्री० [ म० परि+अर्चन ] विवाह की एक रीति के हृदय मे अपनी परछाही देख कर यह समझ लिया कि जिसमें बारात द्वार पर आने पर कन्या पक्ष की स्त्रियां इनके हृदय में कोई दूसरी गोपी वसती है।-पोद्दार अभि० वर के पास जाती हैं और उसे दही, अक्षत का टोका। ग्र०, पृ० ११२। लगाती, उसकी आरती करती तथा उसके ऊपर से मूसल, पर-सरा पुं० [ देश० ] दे० 'परचे', 'परचे' । उ०-दरिया वट्टा प्रादि घुमाती हैं। परछे नाम के, दूजा दिया न जाय।-दरिया० वानी, परछना-क्रि० स० [हिं० परछन ] द्वार पर वारात लगने पर पृ० ३६। कन्या पक्ष की स्त्रियो का वर की आरती आदि करना परजंक-सचा पुं० [स० पर्यक्ष ] उ०-उतरत कई परजक ते पग परछन करना । उ०-निगम नीति कुछ रीति करि अरघ घरत ससक । कुम्हलान्यौं अति ही परत आतप बदन पावडे देत । वधुन सहित सुत परछि सब चली लिवाइ मयक। -स० सप्तक, पृ० ३५४ । निकेत ।-तुलसी (शब्द॰) । परजत-अव्य० [सं० पर्यन्त ] १ पर्यंत । तक । उ०-ब्रह्मलोक परछहियाँ ।-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० प्रतिच्छाया] छाया। परछाई । उ० परजत फिरथो तह देव मुनीजन साखी ।-सूर०, ११० । खेलत ललित खेल वन महियाँ । चलत चहन लागे परज'-पञ्चा स्त्री० [सं० पराजिका ] एक रागिनी जो गाधार, परछहिया।-नद० ग्र०, पृ० २७५ । घनाथी और मारू के मेल से बनी हुई मानी जाती है। परहाइ-सहा स्त्री० [हिं॰] दे० 'परछाई' उ०-सखियन मे प्रति इसके गाने का समय रात ११ दड से १५ दड तक है। हितू विसाखा जनु तन की परछाँ६ । नद० अ०, स्वर इसमें ऋषभ पीर घेवत कोमल, तथा मध्यम तीन पु० ३६०। लगता है । यह हिंदोल राग की सहचरी मानी जाती है।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/११४
दिखावट