पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१४२

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परिणद्ध २८५१ परिणाम प्रौढ़ावस्था । प्रौढ़ता। पक्वता । पुष्टि । पुस्तगी। ५ वृद्धता । बुढ़ाई । ६ प्रत । अवसान । परिणद्ध-व० [म०] १. लपेटा हुआ। मढा हुा । प्रावृत्त । २ वाँधा हुआ । जकड़ा हुआ । ३ विस्तीर्ण । चौडा । विशाल । परिणमन-सज्ञा पुं० [म०] परिणत होने की क्रिया। परिणाम को प्राप्त करना । रूपातरण होना (को॰) । परिणमयिता-वि० [स० परिणमयित् ] परिणत करनेवाला। परिणाम को पहुंचा देनेवाला (को०] । परिणय-सञ्ज्ञा पुं० [स०] ब्याह । विवाह । उद्वाह । दारपरिग्रह । शादी। परिणयन-सज्ञा पु० [सं०] ब्याहना । विवाह करने की क्रिया। दारपरिग्रह । उ०-यानदित जनपद सबै पुरतिय मंगल गाय । चद ब्रह्म परिणयन करि सुर अप धामनि जाय । -प. रासो, पृ० १५॥ परिणहन-सज्ञा पुं० [स०] १ चारो ओर से बाँधने का भाव । २ लपेटने या प्रावृत करने का भाव । परिणाम-मञ्जा पु० [सं०] १ बदलने का भाव या कार्य। बदलना। एक रूप या अवस्था को छोडकर दूसरे रूप या अवस्था को प्राप्त होना। रूपात रप्राप्ति । २ प्राकृतिक नियमानुसार वस्तुओ का रूपातरित या अवस्थातरित होना। स्वाभाविक रीति से रूपपरिवर्तन या अवस्थातरप्राप्ति । मूल प्रकृति का उलटा । विकृति । विकारप्राप्ति (साख्य) । विशेष-सात्य दर्शन के अनुसार प्रकृति का स्वभाव ही परिणाम अर्थात् एक रूप या अवस्था से च्युत होकर दूसरे रूप या अवस्था को प्राप्त होते रहना है, और उसका यह स्वभाव ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश का कारण है। जिस परिणाम के कारण जगत् की रचना होती है उसे 'विरूप' अथवा 'विसदृश परिणाम' और जिसके कारण उसका प्रभाव या प्रलय होता है उसे 'स्वरूप' अथवा 'सदृश परिणाम' कहते हैं। सत्व, रज, तम की साम्यावस्था भग होकर उनके परस्पर विषम परिणाम में सयुक्त होने से क्रमशः प्रसख्य कार्यों अथवा जगत् के पदार्थों का उत्पन्न होना 'विरूप परिणाम' है और फिर इसी कार्यशृखला का अपने अपने कारण में लीन होते हुए व्यक्त जगत् का प्रभाव प्रस्तुत करना 'स्वरूप परिणाम' है। "विरूप परिणाम' से त्रिगुणों की साम्यावस्था विनष्ट होती है और वे स्वरूप से च्युत होते हैं और 'स्वरूप परिणाम' से उन्हें पुन साम्यावस्था तथा स्वरूपस्थिति प्राप्त होती है । पुरुष अथवा प्रात्मा के अतिरिक्त ससार में और जो कुछ है सब परिणामी है अर्थात् रूपांतरित होता रहता है तथापि कुछ पदार्थों का परिणाम शीघ्र दिखाई पड़ जाता है। कुछ का बहुत समय में भी दृष्टिगोचर नहीं होता। जो परिणाम शीघ्र उपलब्ध होता है उसे 'तीव्र परिणाम' और जिसकी उपलब्धि बहुत देर में होती है उसे 'मृद् परिणाम' कहते हैं। सदृश अथवा विसदृश परिणाम में से जब एक की मृदुता चरम अवस्था को पहुँच जाती है, तव दूसरा परिणाम प्रारंभ होता है। ३ प्रथम या प्रकृत रूप या अवस्था से च्युत होने के उपरात प्राप्त हुमा दूसरा रूप या अवस्था। किसी वस्तु का कार्यरूप या कार्यावस्था । विकृति । विकार । रूपातर । अवस्थातर । जैसे, दूध का परिणाम दही, लकडी का राख यादि । ४ किसी वस्तु के एक धर्म के निवृत्त होने पर दूसरे धर्म की प्राप्ति । एक धर्म या समुदाय का तिरोभाव या क्षय होकर दूसरे धर्म या संस्कारो का प्रादुर्भाव या उदय । एक स्थिति से दूसरी स्थिति में प्राप्ति (योग)। विशेष-पातजल दर्शन में चित्त के निरोध, समाघि और एका- ग्रता नाम से तीन परिणाम माने हैं। व्युत्थान अर्थात् राजस भूमियों के संस्कारों का प्रतिक्षण अधिकाधिक अभिभूत, लुप्त या निरुद्ध अथवा 'परवैराग्य' अर्थात् शुद्ध सारिक संस्कारों का उदित और वचित होते जाना चित्त का 'निरोध' परिणाम' है। चित्त की सर्वार्थता या विक्षेप- रूप धर्म का क्षय और एकाग्रता रूप धर्म का उदय होना अर्थात् उसकी चचलता का सर्वांश में लोप होकर एका- ग्रता धर्म का पूर्णरूप से प्रकाश होना, 'समाघि परिणाम' है। एक ही विषय में वित्त के शात और उदित दोनो धर्म अर्थात् भूत और वर्तमान दोनो वृत्तियाँ 'एकाग्रता परिणाम' है । समाधि परिणाम में चित्त का विक्षेप धर्म शात हो जाता है अर्थात् अपना व्यापार समाप्त करके भूत काल में प्रविष्ट हो जाता है और केवल एकाग्रता धर्म उदित रहता है अर्थात् घ्यापार करनेवाले धर्म की अवस्था में रहता है । परतु एकाग्रता परिणाम की अवस्था मे चित्त एक ही विषय मे इन दोनो प्रकार के धर्मों या वृत्तियो से सबध रखता हुप्रा स्थित होता है। चित्त के परिणामो की तरह स्थूल सूक्ष्म भूतों तथा इद्रियों के भी उक्त दर्शन में तीन परिणाम वताए गए हैं-धर्म परिणाम, लक्षण परिणाम, और अवस्था परिणाम । द्रव्य अथवा धर्मी का एक धर्म को छोडकर दूसरा धर्म स्वीकार करना धर्म परिणाम है, जैसे, मृत्तिकारूप धर्मी का पिंडरूप धर्म को छोडकर घटरूप धर्म को स्वीकार करना। एक काल या सोपान मे स्थित धर्म का. दूसरे काल या सोपान में आना लक्षण परिणाम है, जैसे, पिंहरूप में रहने के समय मृत्तिका का घटरूप धर्म भविष्यत् या अनागत सोपान मे था, परतु उसके घटाकार हो जाने पर वह तो वर्तमान सोपान में भा गया और उसका पिंडताधर्म भूत सोपान मे स्थित हो गया। किसी धर्म का नवीन या प्राचीन होना अवस्था परिणाम है । जैसे, घडे का नया या पुराना होना। इसी प्रकार रष्टि, श्रवण पादि इद्रियों का एक रूप या शब्द का प्रहण छोटकर दूसरे रूप या शब्द का ग्रहण करना उसका 'धर्म परिणाम' है। दर्शन, श्रवण प्रा.द धर्म का वर्तमान, भूत भादि होकर स्थित होना 'लक्षण परिणाम' है और उनमें अस्पष्टता स्पष्टता होना 'अवस्था परिणाम' है।