पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१९२

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पश्चिमोत्तर २६०१ पसवा पश्चिमोत्तर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम और उत्तर के बीच का भावों से साधना की जाती है। इनमें से केवल प्रतिम ही कोना । वायुकोण। कलिगुग मे विधेय है, और इसी पशु भाव से पूजा करने से सिद्धि होती है। पश्वाचारी को नित्य स्नान, सध्या, पूजन, पश्चिमोत्तरा-सच्चा स्त्री० [सं०] पश्चिम और उत्तर के बीच की दिशा । वायव्य कोण [को०] । श्राद्ध और विप्र फर्म करना चाहिए, सबको समान भाव से देखना चाहिए, किसी का अन्न न लेना चाहिए, सदा सत्य पश्त-सञ्ज्ञा पुं॰ [संश० ] खमा । वोलना चाहिए, मद्यमास का व्यवहार न करना चाहिए, पश्ता-पञ्ज्ञा पुं० [फा० पुरता ] किनारा । तट । (लश०)। आदि आदि। क्रि०प्र०-लगना। —लगाना । पश्वाचारो-सचा पुं० [सं० पश्वाचारिन् ] पश्वाचार करनेवाला। पश्तो-सञ्ज्ञा पुं॰ [देश॰] १ ३॥ मात्रायो का एक ताल जिससे दो कामना और सकल्पपूर्वक वैदिक रीति से देवी का पूजन आघात होते हैं । इसके बोल इस प्रकार हैं-ति, तक, धिं, धा, करनेवाला। गे। २ भारत की आर्यभाषामो में से एक देशी भाषा जिसमें पश्विज्या-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पशु+ इज्या ] एक प्रकार का यज्ञ । फारसी आदि के बहुत से शब्द मिल गए हैं । यह भाषा भारत की पश्चिमोत्तर सीमा से अफगानिस्तान तक बोली जाती पश्वेकादशिनी-सचा स्त्री० [स०] एक प्रकार का यज्ञ जिसमे ग्यारह देवताओ के उद्देश्य से पशुमो की वलि दी जाती है। है। उ०-जैसे पश्चिमी की क्रमश पुरानी पारसी, पहलवी वा वर्तमान फारसी और परतो आदि हैं।-प्रेमघन०, भा० पष-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पत] १ पख । हैना । २ तरफ। पोर । ३. पक्ष । पाख। २, पृ० ३७७। पषा-सञ्ज्ञा पुं० [ स० पक्ष ] दाढ़ी । डाढी । श्मश्रु । उ० -रघुराज पश्म-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० ] बकरी, भेष्ठ, प्रादि का रोपा । ऊन । सुनत सखा सो पषा पोछि पाणि, त्रिसखा त्रिशूल लिए विशेष-दे० 'ऊन'। घषा अरुणारे हैं। -रघुराज (शब्द॰) । २ दे० 'पशम'। उ०-क्या करूँ हक के किए को कूर मेरी चश्म है। पावरू जग मे रहे तो जान जाना परम है। -कविता पषाण-सचा पुं० [सं० पाषाण ] दे० 'पाषाण' । को०, भा०४, पृ०१०। पषान-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पापाण ] दे० 'पाषाण'। उ०-कचन पश्मीना-सञ्ज्ञा पुं० [फा० पश्मीनह ] एक प्रकार का बहुत बढ़िया काचहि सम गर्न कामिनि काठ पषान । तुलसी ऐसे सत जन और मुलायम ऊनी कपडा जो कश्मीर और तिब्वत आदि पृथ्वी ब्रह्म समान । -तुलसी ग्रं०, पृ० ११ । पहाडी और ठढे देशो मे बहुत अच्छा और अधिकता से बनता पषारनाg-क्रि० स० [स० प्रक्षालन ] घोना। उ०—जो प्रभु है। दे० 'पशमीना'। पार अवसि गा चहहू । मोहि पद पदुम पषारन कहहू ।- पश्यतो-सचा स्त्री० [सं० पश्यन्ती ] नाद की उस समय की अवस्था तुलशी (शब्द०)। या स्वरूप जब वह मूलाधार से उठकर हृदय में जाता है। पषालना-क्रि० स० [सं० प्रक्षालन प्रा० पक्खालण ] प्रक्षालन विशेष-भारतीय शास्त्रो में वाणी या सरस्वती के चार चक्र करना। घोना । पखारना। उ०-गढ अजमेरा गम करउ चउरी वइसी पषालज्यो पाव । -बी० रासो, पृ० ८ । माने गए हैं-परा, पश्यती, मध्यमा और वैखरी। मूला- धार से उठनेवाले नाद को 'परा' कहते हैं, जब वह मूलाधार पष्षान–पञ्ज्ञा पुं० [ स० पाषाण ] दे० 'पाषाण'। से हृदय में पहुंचता है तव 'पश्यती' कहलाता है, वहाँ से आगे पष्ठीही-सञ्ज्ञा स्त्री० [ स०] जवान गाय । युवा गौ [को॰] । बढ़ने और बुद्धि से युक्त होने पर उसका नाम 'मध्यमा होता पसंग-सचा पुं॰ [फा० पासंग ] द. 'पासग' । है और जब वह कठ में आकर सबके सुनने योग्य होता है पसंगा -सञ्ज्ञा पु० [ फा० पासग ] १ वह बोझ जिसे तराजू के तब उसे 'वैखरी' कहते हैं। पल्लों का बोझ बरावर करने के लिये तराजू की जोती मे पश्यतोहर--सञ्ज्ञा पुं० [ स०] वह जो आँखो के सामने से चीज चुरा हलके पल्ले की तरफ बांध देते हैं । पासग। २ तराजू के ले । जैसे, सुनार आदि । उ०—बहु शब्द वचक जानि । अलि दोनो पल्लो के वोक का प्रनर जिसके कारण उस तराजू पर पश्यतोहर मानि । नर छाहई अपवित्र । शर खग निर्दय तौली जानेवाली चीज की तौल में भी उतना ही अतर मित्र । -रामच०, पृ० १६०। पड़ जाता है। पश्वयम सच्चा पु० [सं०] एक प्रकार का दैविक यज्ञ । पसंगा-वि० बहुत ही थोडा । बहुत कम । पश्ववदान-उचा पुं० [सं०] यज्ञीय पशु की वलि । यज्ञपशु का मुहा०-पसंगा मी न होना = कुछ भी न होना। बहुत ही तुच्छ बलिदान [को०] । होना । जैसे,—यह कपडा उस थान का पसगा भी नहीं है। पश्वाचार-सहा पुं० [सं०] तात्रिको के अनुसार कामना भौर पसा-सचा पुं० [फा० पासंग ] दे० 'पसगा' । उ०—गोली डांही सकल्पपूर्वक वैदिक रीति से देवी का पूजन । वैदिकाचार । मे पसघे सी वैधी कौडी।-कुकुर०, पृ०१७ । विशेष-तात्रिको के अनुसार दिव्य, वीर और पशु इन तीन पसवाई-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पश्यन्ती ] दे॰ 'पश्यंती'। उ०-चारो १-२३