पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२२०

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1 पागड़ा पाचन जिसमें मिठाइयां या दुसरी खाने की चीजें डुबाकर रखी जाती पागु-सशा पुं० [हिं० पाग ] ३. 'पाग' । उ०-ललित लस सिर हैं। उ०—प्राखर प्ररथ मजु मृदु मोदक राम प्रेम पाग पागु तक, तक तह तह मुरझे।-नद० ग्र०, पृ० २०७ । पागिहैं । -तुलसी (शब्द॰) । ३ चीनी के शीरे में पकाया पागुरी-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पाक ] दे॰ 'जुगाली' । हुआ फल आदि । जैसे, कुम्हडा पाग । ४ वह दवा या पुष्टई पाघg+-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पाग] दे० 'पाग' । उ०-पाच विराजत जो चीनी या शहद के शीरे में पकाकर बनाई जाय और सीस पर जरकस जोति निहाय । मनो मेर के सिपर पर जिसका सेवन जलपान के रूप में भी कर सकें। रह्यो प्रहप्पति प्राय ।-पृ० रा०, १७५० पागड़ा-सशा पुं० [हिं० पग ] १ पैर । चरण । उ०-प्रबल पुर पाचक-वि० [सं०] जो किसी कच्ची वस्तु को पचावे या पकावे । असुर जिण लगाया पागडे। -रघु० रू०, पृ० ३१ । २ पचाने या पकानेवाला। रिकाव । ऊँट या घोड़े की काठी का पावदान जिसपर पैर रखकर सवार होते हैं। उ०-ढोलउ हल्लाउ करइ घण पाचक-सज्ञा पुं० १ वह नमकीन या क्षारयुक्त औषध जो भोजन को पचाने और भूख तथा पाचन शक्ति को बढ़ाने के लिये खाई हल्लिवा न देह । झव झव झूबइ पागडइ डबडव नयण भरेह । ढोला०, दू०७०। जाती है ।२ [स्त्री० पचिका] भोजन पकानेवाला । रसोइया । वावर्ची । ३ पाँच प्रकार के पित्तो मे से एक पित्त । पागना-क्रि० स० [सं० पाक ] शोरे या किवाम मे डुवाना। मीठी चाशनी में सानना या लपेटना। उ०-भाखर प्ररथ विशेष-वैद्यक मे इसका स्थान प्रामाशय और पक्वाशय माना मजू मृदु मोदक राग प्रेम पाग पागिहै । —तुलसी (शब्द०)। गया है । यही भोजन को पचाता और उससे उत्पन्न रसवायु, पित्त, कफ, मूत्र, पुरीष आदि को अलग अलग करता है। पागनारे-क्रि० स० किसी विषय में अत्यत अनुरक्त होना । इवना। अपने में स्थित अग्नि द्वारा यह अन्य चार पित्तस्थानो की होना । तन्मय होना। उ०-( क ) तव बसुदेव देवकी क्रियानो में सहायता करता है। निरखत परम प्रेम रस पागे।—सूर (शब्द॰) । (ख) ४ पाचक पित्त में रहनेवाली अग्नि । पिय पागे परोसिन के रस मे बस में न कहूँ बस मेरे रहैं ।- पपाकर ( शब्द०)। विशेष-शरीर की गरमी का घटना बढ़ना इसी अग्नि की सव- लता और निर्वलता पर निर्भर है। पागर-सञ्ज्ञा पुं० [? ] वह रस्सा जिससे मल्लाह नाव को खीचकर नदी के किनारे बाषवे है । गून (लश० ) । पाचन'-सज्ञा पुं० [ १ पचाने या पकाने की क्रिया। पचाना पागर-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पग] रिकाब। घोड़े की काठी का पाय- या पकाना । २ खाए हुए पाहार का पेट में जाकर शरीर के दान । उ०—निज मन आगम जानि मरन्न, पवगम पागर धातुरो के रूप में परिवर्तन । अन्न आदि का पेट में जाकर उस रूप मे आना जिस रूप में वह शरीर का पोषण करता काटि चरन्न । उपानह छडिय चावंड राइ, पवन्नह वेग जव- है। विशेष—दे० 'पक्वाशय' । म्लह धाइ।-पृ० रा०, ६६।१२२ । यौ०-पाचनशक्ति । पागल-वि० [सं०] [ वि० सी० पगली, पागलिनी] १ विक्षिप्त । बौडहा। सनकी। बावला । सिटी। जिसका दिमाग ठीक ३ वह पौषष जो आम अथवा अपक्व दोष को पचावे । न हो। विशेष--पाचन मौषध प्राय काढ़ा करके दी जाती है। यह यौ०-पागलखाना । पागलपन । औषध १६ गुने पानी मे पकाई जाती है और चौथाई रह २ क्रोध, शोक या प्रेम आदि के उद्वग मे जिसकी भला बुरा जाने पर व्यवहार में लाई जाती है । वैद्यक में प्रत्येक रोग के सोचने की शक्ति जाती रही हो। जिसके होश हवास दुरुस्त लिये अलग अलग पाचन लिखा है जो कुल मिलाकर ३०० न हो। आपे से बाहर । जैसे,—(क ) वे उनके प्रम मे से अधिक होते हैं। पागल हो गए हैं। (ख) वे मारे क्रोध के पागल हो गए हैं। ४ प्रायश्चित्त । ५ अम्ल रस । खट्टा रस । ६. अग्नि । ७ मूर्ख । नासमझ । वेवकूफ । जैसे,—तुम निरे पागल हो। लाल एरड । ८ व्रण में से रक्त या मवाद निकालना (को॰) । पागलखाना-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पागल+फा खान ] वह स्थान जहाँ ६ व्रण या घाव का पूरा होना (को॰) । पागलो को रखकर उनका इलाज किया जाता है। पागलो के पाचन'-० १ पचानेवाला । हाजिम । २ किसी विशेष वस्तु रखने का स्थान । के अजीर्ण को नाश करनेवाली औषष । पागलपन-सञ्ज्ञा पुं॰ [हि० पागल+पन (प्रत्य॰)] वह भीषण विशेष-विशेष विशेष वस्तुप्रो के खाने से उत्पन्न प्रजीणं विशेष मानसिक रोग जिससे मनुष्य की बुद्धि और इच्छाशक्ति प्रादि पदार्थों के खाने से नष्ट होता है। जो वस्तु जिसके अजीर्ण में अनेक प्रकार के विकार होते हैं। उन्माद। बावलापन । को नष्ट करती है उसे उसका पाचन कहते हैं । जैसे, कटहल विक्षिप्तता । चित्तविभ्रम । विशेष-दे उन्माद' । २ मूर्खता। का पाचन केला, केले का घी और घी का जंभोरी नीबू वेवकूफी। पाचक है। इसी प्रकार भाम और मात के अजीर्ण का पागली-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० पागल] दे॰ 'पगली' । दुध, दूध फे अजीणं का अजवायन, मछली तथा मास के