पाणिनीय २६३७ पाणिप्रार्थी वाभ्रव्य, गालव, शाकटायन प्रादि प्राचार्यों ने सस्कृत व्याक- पाणिनीय दर्शन-पञ्चा पुं० [सं०] पाणिनि का अष्टाध्यायी रणो की रचना की थी, पर उनके व्याकरण सर्वांगसु दर तो व्याकरण । पाणिनीय व्याकरण के ग्रथो मे प्रतिपादित क्या पूर्ण भी न थे। इन्होने वहे परिश्रम से सब प्रकार के व्याकरण दर्शन। वैदिक और अपने समय तक प्रचलित सव शब्दो को इकट्ठा विशेष-सर्वदर्शनस ग्रह' कार ने पाणिनीय व्याकरण दर्शन को कर उनकी व्युत्पत्ति तथा रूप प्रादि के व्यापक नियम बनाए। भी भारत के प्राचीन दर्शनो मे स्थान दिया है । इस दर्शन के इनकी अष्टाध्यायी' इतनी उत्तम पौर सर्वांगसुदर बनी मत से स्फोटात्मक निरवयव नित्य शब्द ही जगत् का भादि कि आज प्राय ढाई हजार वर्षों से व्याकरण विषय पर कारण रूप परब्रह्म है। अनादि अनत अक्षर रूप शब्द ब्रह्म से सस्कृत में जो कुछ लिखा गया प्राय उसी के भाष्य, टीका जगत् की सारी प्रक्रियाएं प्रथं रूप में प्रवर्तित होती हैं। इस या व्याख्यान के रूप मे लिखो गया, एकाध को छोडकर दर्शन ने शब्द के दो भेद माने हैं। नित्य और अनित्य । नित्य किसी वैयाकरण को नया अथ बनाने की प्रावश्यकता नही शब्द स्फोट मात्र ही है, सपूर्ण वर्णात्मक उच्चरित शाब्द अनित्य जान पडी। अष्टाध्यायी इनके प्रकाड शब्द-शास्त्र-ज्ञान और हैं । प्रथंवोधन सामयं केवल स्फोट में है । वर्ण उस (स्फोट) असाधारण प्रतिभा का प्रमाण है। सस्कृत ऐसी भाषा के की अभिव्यक्ति मात्र के साधन है। अग्नि शब्द मे प्रकार, व्याकरण को जितने संक्षेप में इन्होंने निवटाया है उसे देखकर गकार, नकार और इकार ये चारो वर्ण मिलकर अग्नि नामक शब्दशास्त्रज्ञो को दांतो उंगली दबानी पडती है । अष्टाध्यायी पदार्थ का बोध कराते हैं । अव यदि चारों ही में अग्निवाचकता के अतिरिक्त 'शिक्षासूत्र', 'गणपाठ', 'धातुपाठ' और 'लिंगानु मानी जाय तो एक ही वर्ण के उच्चारण से सुननेवाले को शासन' नामक पुस्तको की भी इन्होने रचना की है । राज अग्नि का ज्ञान हो जाना चाहिए था, दूसरे वणं तक के शेखर श्रादि वई कवियो ने 'जाववतीविजय' नामक पारिणनि उच्चारण की आवश्यकता न होनी चाहिए थी । पर ऐसा के एक काव्य का भी उल्लेख किया है जिससे उद्धृत श्लोक नहीं होता । चारो वर्णों के एकत्र होने से ही उनमे इधर उधर मिलते हैं। अग्निवाचकता पाती हो तो यह भी ठीक नही। क्योकि पर ह्वेनसांग ने इनकी व्याकरणरचना के विषय मे लिखा है कि वण के उत्पत्तिकाल में पूर्व वर्ण का नाश हो जाता है। प्राचीन काल में विविष ऋषियो के पाश्रमो में विविध वर्ण उनका एकत्र अवस्थान सभव ही नहीं। अत मानना पडेगा मालाएं प्रचलित थी । ज्यो ज्यो लोगो की आयुमर्यादा कि उनके उच्चारण से जिस स्फोट की अभिव्यक्ति होती है घटती गई त्यो त्यो उनके समझने और याद रखने में कठिनाई वस्तुत वही अग्नि का बोधक है। एक वर्ण के उच्चारण होने लगी। पाणिनि को भी इसी कठिनाई का सामना से भी यह अभिव्यक्ति होती है, पर यथेष्ट पुष्टि नहीं होती। करना पड़ा। इसपर उन्होने एक सुखलित और सुव्यव- इसी लिये चारों का उच्चारण करना पड़ता है। जिस प्रकार स्थित शब्दशाल बनाने का निश्चय किया। शब्दविद्या की नीले, पीले, लाल आदि रगो का प्रतिविव पडने से एक ही प्राप्ति के लिये उन्होने शकर का पाराधन किया जिसपर स्फटिक मणि मे समय समय पर अनेक रग उत्पन्न होते रहते उन्होंने प्रकट होकर यह विद्या उन्हें प्रदान की। घर माकर हैं उसी प्रकार एक ही स्फोट भिन्न भिन्न वर्गों द्वारा अभि- पाणिनि ने भगवान् पाकर से पढ़ी हुई विद्या को पुस्तक व्यक्त होकर मिन्न भिन्न अर्थों का बोध कराता है। इस स्फोट रूप में निबद्ध किया । तत्कालीन राजा ने उनके ग्रथ का बडा को ही शब्दशास्त्रज्ञो ने सच्चिदानद ब्रह्म माना है। अत शब्द प्रादर किया। राज्य की समस्त पाठशालाओ में उसके पठन- शास्ल की पालोचना करते करते क्रमश अविद्या का नाश पाठन की आज्ञा की और घोषणा की कि जो कोई उसे आदि होकर मुक्ति प्राप्त होती है। 'सर्वदर्शनसग्रह' कार के मत से मत तक पढ़ेगा उसे एक सहन स्वर्णमुद्राएँ इनाम दी से व्याकरण शास्त्र अर्थात् 'पाणिनीयदर्शन' सब विद्याओ से जायेगी। इनके विषय में एक कथा यह भी प्रसिद्ध है कि एक पवित्र, मुक्ति का द्वारस्वरूप और मोक्ष मार्गों में राजमार्ग है। वार ये जगल में बैठे हुए अपने शिष्यो को पढा रहे थे। सिद्धि के अभिलापी को सबसे पहले इसी की उपासना करनी इतने में एक जंगली हाथी पाकर इनके और शिष्यों के बीच चाहिए। से होकर निकल गया। कहते हैं, यदि गुरु और शिष्य के पाणिपल्लव-संशा पुं० [स०] १ उँगलियाँ । २ रपल्लव | पल्लव- बीच मे से जगली हाथी निकल जाय तो वारह वर्ष का रूपी पारिण। अनध्याय हो जाता है -१२ वर्ष तक गुरु को अपने शिष्यो पाणिपीड़न-सज्ञा पुं॰ [स० पाणिपीडन ] १ परिणग्रहण । विवाह । को न पढ़ाना चाहिए। इसी कारण इन्होने बारह वर्ष के २ क्रोध, पश्चात्ताप आदि के कारण हाथ मलना। लिये शिष्यो को पढ़ाना छोड दिया और इसी बीच में अपने प्रसिद्ध व्याकरण की रचना कर डाली। पाणिपुट-सज्ञा पुं॰ [सं०] दे० 'पाणिपुटक' । पाणिनीय-वि० [स०] १ पाणिनिकृत (अथ प्रादि)। २. पाणिनि- पाणिपुटक-संज्ञा पुं॰ [सं०] मजलि । चुल्लू । करपुट [को॰] । प्रोक्त । पाणिनि का कहा हुआ। पारिणनि द्वारा उपदिष्ट पाणिप्रणयिनी-सशा झी० [सं०] पत्नी । ली। (व्याकरण) । ३ पाणिनि में भक्ति रखनेवाला । पाणिनि- पाणिप्रार्थी-वि० पु० [सं० प्राणिप्रार्थिन् ] विवाह करने को ईच्छुक । भक्त । पाणिनि का अथ पढ़नेवाला। उ०-और तुमको मालूम है उसके हर साल एक से एक 1
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२२८
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