पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२३३

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पानशेष २०४२ nita पानशेष-सजा पुः [ स०] रोटी के पूठे टुकड़े आदि जो भोजन के पाथना-क्रि० स० [सं० प्रथन या हिं० थाप (ना) का श्राद्यत उपरात थाली मे वच रहे हो। खाकर छोडा हुआ अन्नादि । विपर्यय] १ ठोक पीटकर सुडौल करना । गढना । बनाना। जूठा । उच्छिष्ट। उ०-लाडली के वरने को नितबन हानि रही रसना कवि जेत पात्रसंस्कार-सज्ञा पुं० [सं०] १ दे० 'पात्रशुद्धि' । २ नदी का के । के नृप सभु जू मेरु की भूमि में रेत के कूर भए नदी सेत वेग या प्रवाह [को०] । के । कै घौं तमूरन के तबला रंगि औंघि घरे करि रमा के लेत के । कंचन कीच के पाथे मनोहर के भरना व मनोज के खेत पात्रासादन-सज्ञा पुं० [सं०] यज्ञपात्रो को यथास्थान रखना। के । -सु दरीसर्वस्व (शब्द०)। २ किसी गीली वस्तु से सांचे पात्रिक'-सज्ञा पुं० [सं०] १ पाव बरतन । २ छोटा पात्र [को०] । के द्वारा या विना साँचे के हाथो से पीट या दवाकर वही वही पात्रिक- वि० १ उपयुक्त। योग्य । उचित । २ किसी पात्र से टिकिया या पटरी बनाना । जैसे, उपले पाथना, इंट नापा हुआ। ३ तोला हुआ [को॰] । पाथना । ३ किसी को पीटना । ठोकना । मारना । जैसे,- पात्रिका, पात्रिकी-सच्चा स्त्री॰ [स०] थाली कटोरा आदि पात्र [को॰] । आज इनको अच्छी तरह पाथ दिया। पात्रिय-वि० [म.] जिसके साथ एक थाली में भोजन किया जा पाथनाथ-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पाथ+सं० नाथ ] समुद्र । सके । जिसके साथ एक ही बरतन में भोजन करना बुरा न पाथनिधि-सज्ञा पुं० [हिं० पाथ+सं० निधि ] दे० 'पाथोनिधि' । ममझा जाय । सहभोजी। पाथर+-सज्ञा पु० [स० प्रस्तर, प्रा० पथ्थर ] दे० 'पत्थर' । पात्रो'–वि.[ स० पानिन् ] १ जिसके पास वरतन हो । पात्रवाला। उ०—एक सेवक लोह पत्र पाथर सो घस्यो तहाँ लोह सोनो २ जिसके पास सुयोग्य मनुष्य हो। (सुवर्ण) भयौ राव जैत को आणि दयौ ।-ह०, रासो, पात्री-सज्ञा स्त्री॰ [ स०] १. छोटे छोटे बरतन । २ एक छोटी पृ० ३३ । भट्ठी जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर ले जा पाथरासि-संशा खी० [सं० पाथ+ हिं० रासि ] जलराशि । सकते हैं। ३ दुर्गा का नाम (को०) । समुद्र । उ०-कुपितम भुजग सिर पग घरै। हाथनि पाथरासि पात्रीण-वि० [सं०] पात्र द्वारा वोया या पकाया हुमा [को०] । पुनि तरै ।-नद० ग्र०, पृ० १४५ । पात्रीय-सज्ञा पुं॰ [सं०] यज्ञ में काम आनेवाला एक वरतन । पाथस्पति-सज्ञा पु० [ स०] वरुण । पात्रीय-वि० पात्र संबंधी। पाथा'-सज्ञा पुं॰ [ स० पाथस् ] १. जल । २ अन्न । ३ प्राकाश । पात्रीर-मज्ञा पुं० [सं०] यज्ञीय वस्तु । यज्ञद्रव्य [को०] । पाथा-सज्ञा पु० [सं० प्रस्थ] १ एक तोल जो एक दोन या कच्चे पात्रेबहुल-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] वह व्यक्ति जो अन्य किसी कार्य में चार सेर की होती है। इसका व्यवहार देहरादून, प्रांत में सहयोग न दे केवल खाने भर के लिये साथ दे । काम से जी अन्न नापने के लिये होता है। २ इतनी भूमि जितनी में चुरानेवाला मात्र भोजन का साथी [को०] । एक पाथा अन्न बोया जा सकता है। ३ एक बड़ा टोकरा पात्रेसमित–सञ्चा पुं० [स०] १. ढोंगी व्यक्ति । कपटी। २ दे० जिससे खलिहान में राशि नापते हैं । 'पात्रेवहुल' (फो। विशेष--प्राय यह टोकरा किसी नियत मान का नहीं होता। पात्रोपकरण-सज्ञा पुं॰ [ स०] कौडी आदि पदार्थ जिन्हें टांककर लोग इच्छानुसार भिन्न भिन्न मानों का व्यवहार करते हैं । वरतनों को सजाते हैं। यह वेत का बना होता है और इसकी वाढ बिलकुल सीधी पात्रीकरण-सज्ञा पु० [ म० ] विवाह [को०] । होती है कही कही इसे लोग चमडे से मढ़ लेते हैं । इसे पाथी और नली भी कहते हैं। पाठ्य-वि० [सं०] दे० 'पात्रिय'। ४ हल का खोंपी जिसमें फाल जसा रहता है। पाथ-सा पुं० [ स०] १ अग्नि । २. जल । ३. सूर्य [को०] । पाथा - सझा पुं० [हिं० पथ ] कोल्हू हाँक्नेवाला । पाथ-सज्ञा पुं० [ म० पाथस् ] १ जल । उ०-प्रानि ठाले होत पाथा - सझा पुं० [सं० प्रथक ] एक छोटा कीडा जो प्रश्न मे सब मिलि वसन टपकत पाय । -घनानंद, पृ० ३०१ । २. लगता है। अन्न । ३ पाकाश । ४ वायु । पाथि- सशा पुं० [सं० पाथिस् ] समुद्र । २ अांख। ३ घाव पर यौ०-पाथोज । पाथोद। पायोधर । पाथोरुह । पाथोधि । की पपडी। खुरड । ४ प्राचीन काल का एक प्रकार का पाथोज । पाथोनिधि । शरवत जो मट्ठे के पानी और दूध घादि को मिलाकर पाथ - राज्ञा पुं० [सं० पथ ] मार्ग। रास्ता | राह । उ०-तेहि बनाया जाता था और जिससे पितृतर्पण किया जाता था। वियोग ते भए प्रनाथा। परि निकुज वन पावन पाथा ।- कबीर (शब्द०)। पाथेय-सचा पुं० [म०] १ वह भोजन जो पथिक अपने साथ मार्ग पाथ-ससा पुं० [स० पार्थ, प्रा० पथ्य ] अर्जुन । पार्थ । उ० में खाने के लिये बांधकर ले जाता है। रास्ते का व लेवा । जुध बेल खगे रिणछोड जहै । तन पाथ जिसौ रुघनाथ तहै । २ वह द्रव्य जो पथिक राहखर्च के लिये ले जाता है। -रा०० पृ०२५॥ सवल । राहखर्च । ३ कन्या राशि । कीलाल ।