पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२८३

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पिडको २६६२ पिकेट पिड़की-सज्ञा श्री० [हिं] दे० पड़की'। पिधारा-मज्ञा पुं॰ [हिं० अप, पिथ>पिय+हा ] दे० 'प्यार' । पिहरी, पिडलो-सञ्ज्ञा स्रो० [सं० पिण्ड] दे॰ 'पिंडली' । पिधारा-वि० [हिं० अप, पिश्र>पिय+दा, हिं० प्यारा ] दे० पिहवाही-मचा स्त्री॰ [2] एक प्रकार का वस्त्र । उ०—पठवहिं चीर प्यारा' । उ०-बचन बज जेहि सदा पिसारा । सहस नयन प्रानि सब छोरी । सारी कचुकि पहिरि पटोरी। दिया परदोष निहारा । -मानस, १।४। और कैसिया राती। छायल पिंडवाही गुजराती।-जायसी पिआसा-सज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'प्यास' । (शब्द०)। पित्रासा-वि० [हिं०] दे० 'प्यासा'। उ०-चात्रिक होहु पुकार पिडिया- संज्ञा स्त्री॰ [स० पिण्डिका] दे० पिडिया' । पिनासा । —जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० २७७ । मि०प्र०—करना ।-बनाना ।-बाँधना। पिउ-सचा पुं० [सं० प्रिय] पति । खाविंद । पिहकारना-क्रि० म० [अनु॰] कोयल, पपीहा, मयूर प्रादि पिउनी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पूनी' । गु दर कठवाले पक्षियो का बोलना । पिहकना। उ० -पपीहे पिउप, पिऊख-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० पीयूप, प्रा० पीउस] दे० 'पियूप' । भी ऋषभ स्वर के साथ पिहकारने लगे।-प्रेमघन॰, भा॰ २, उ०—(क) मृग मद मयूष जनु पिउप पान । -पृ० रा०, पृ०१४॥ ६।३७ । (ख) नाय पिऊखन अमृत चाखै । -दरिया०, पिथ'- वि० [सं० प्रिय] दे० 'प्रिय' । पृ०,६१। पिथ-सञ्ज्ञा पुं० दे० 'पिय' । पिक-तज्ञा पुं॰ [सं०] [स्त्री० पिकी ] कोयल । कोकिल । पिना-क्रि० स० [हिं० पीना] दे० 'पीना' । उ०-पिनत नयन यौ०-पिकबंधुर । पिकवल्लभ । पुट रूप पियूषा । मुदित सु असन पाइ जिमि भूखा ।- विशेष-मीमासा के भाष्यकार शवर स्वामी ने पिक, तामरस, मानस, २।१११। नेम आदि कुछ शब्दों को म्लेच्छ भाषा से गृहीत बतलाया है। पिअर-वि० [सं० पीत ] दे॰ 'पीला'। उ०—(क) पिपर उप- रना काखा सोती । -मानस, १॥३२७ । (ख) परिस पिकप्रिया-मचा स्त्री० [सं०] बडा जामुन । पिचर भए तेहिं वासा । —जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० १६७ । पिकबधु-सज्ञा पुं० [सं० पिकबन्धु] पाम का पेड । पिअरवाई-वि० [हिं०] दे० 'प्यारा'। पिकबधुर-सज्ञा पुं० [सं० पिकयन्धुर] आम का पेड । पिअरवा-सचा पु० दे० 'पति' । पिकबयनीg-[सं० पिक+पचन, प्रा. वयण, हिं० चैन + ई पिअरवा-सञ्ज्ञा स्त्री० [पिपरा( = पीला)] बरतन बनाने की (प्रत्य॰)]कोयल की तरह मीठा वोलनेवाली । मधुभापिणी। उ०—किसी पिकवयनी की आवाज पाकर कान में पडे तो पीले रंग की मिट्टी (कुम्हार)। पिनराई@+-सञ्चा स्त्री [ सं० पीत, हिं० पिथर+आई (प्रत्य॰)] पिकांधव-सश पुं० [सं० पिकवान्धव ] वसत ऋतु [को॰] । पूरा आनद मिले। -श्रीनिवास ग्र०, पृ० २५३ । पीलापन । पिपरिया-सशा पु० [ पिअर (= पीला ) + इया (प्रत्य॰)] पिकनी-वि० [हिं० ] दे० 'पिकवयनी'। उ०राज मृगननी पीले रंग का वैल जो बहुत मजबूत और तेज चलनेवाला पिकवेंनी छविरेनी बोरी लचकत लक छीन कटि सोभा भार होता है। है।-पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३८७। पियरिया-सञ्ज्ञा स्त्री० दे० 'पिमरी"। पिकबनी-वि० [हिं० ] दे॰ 'पिकवयनी' । उ०—मनसङ प्रगम पिअरी'-सज्ञा सी० [हिं० पीली] १ हल्दी के रंग में रंगी हुई समुझि यह अवसरु कत सकुचति पिकवैनी । तुलसी वह घोती जो विवाह के समय में वर या वधू को पहनाई पिकराग-सज्ञा पुं॰ [सं०] आम का पेड । ०, पृ० ३१०। जाती है। २ इसी प्रकार पीली रंगी हुई वह धोती जो प्राय देहाती स्त्रियां पिकवल्लभ-सचा पुं० [ स०] ग्राम का पेट । गगा जी को चढ़ाती हैं। पिकांग-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० पिकार ग] चातक पक्षी। क्रि० प्र०-चढ़ाना। पिकाक्ष-तशा पुं० [सं०] ताल मखाना। विपरी-वि० स्त्री० दे० 'पीला' । उ०—पिपरी झीनी झंगूली साँवरे पिकाक्ष-वि० जिसकी आँखें कोयल के समान हो [को॰] । शरीर खुली वालक दामिनी अोढ़ी मानो बारे बारिघर। पिकानद-सचा पुं० [ स० पिकानन्द ] वसत ऋतु । -तुलसी (शब्द०)। पिको-सञ्ज्ञा सी० [सं०] कोयल । पित्रान-मज्ञा पुं॰ [हिं०] दे० 'प्याज'। पिकेक्षणा-यशा स्त्री० [सं०] ताल मखाना। पियान@t-सज्ञा पुं० [सं० प्रयाण ] दे० 'पयान' । उ०-जल ते पिकेट-सज्ञा पुं० [प्र.] १ पलटनियो का पहरा जो कहीं उपद्रव निकसि जलि किमा पिमाना। -प्राण, पृ० ४४ । होने या उसकी आशका होने पर उसे रोकने के लिये बैठाया पियाना-क्रि० स० [हिं०] दे० "पिलाना'। जाता है। २. किसी काम को रोकने के लिये दिया जाने- पियानो-सक्षा पुं० [हिं०] दे॰ 'पियानो'। वाला पहरा । धरना ।