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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२९२

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1 पितृवंश पितृदेवत' पितृदेवतर- वि० [सं०] दे० 'पितृदेवत' [को॰] । पितृभक्ति-गज्ञा स्त्री० [सं०] १ पिता की भक्ति । पिता में पूज्य पितृदेवत्य-वि० [म०] पितृदेवत । बुद्धि । २ पुत्र का पिता के प्रति कर्तव्य । पितृदेवत्य'-सशा पु० प्रगहन, पूस, माघ और फागुन की कृष्ण पितृभोजन-सज्ञा पुं० [ म०] १ उरद । माप । २. पितगे की भोज्य वस्तु । अष्टमी (अष्टका ) तिथियो को किया जानेवाला पितृकृत्य [को०] । पितृभ्राता--सरा पुं० [ स० पितृभ्रातृ ] चाचा । चचा [को०] । पितृद्रव्य-सचा पुं० [सं०] पैतृक सपत्ति । पितृमदिर-सज्ञा पुं० [सं०] ३० "पितृगृह' [को०] । पितृनाथ-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ यमराज । २. अर्यमा नामक पितर पितृमात्रर्थ-सज्ञा पुं० [म०] वह व्यक्ति जो माता पिता के लिये भीख जो सब पितरो में श्रेष्ठ माने जाते हैं । मांगे (को०] । पितृपक्ष-सञ्ज्ञा पु० [ स०] १ कुमार या पाश्विन का कृष्ण पक्ष । पितृमेध-सशा पुं० [स०] वैदिक काल के प्रत्येमेप्ट कर्म का एक भेद कुमार की कृष्ण प्रतिपदा से अमावास्या का समय । जिसमें अग्निदान और दक्षपिंडदान आदि समिलित होते विशेष-यह पक्ष पितरो को अतिशय प्रिय माना गया है । थे और जो श्राद्ध से भिन्न होता था। कहा जाता है कि इसमें उनके निमित श्राद्ध आदि करने से पितृयज्ञ-सज्ञा पुं॰ [ म० ] तर्पणादि । पितृतर्पण । वे अत्यत सतुष्ट होते हैं। इसी से इसका नाम पितृपक्ष हुआ पितृयाण-सज्ञा पुं० [म.] मृत्यु के अनतर जीव के जाने का वह है। प्रतिपदा से अमावास्या तक नित्य उनके निमित तिल- मार्ग जिससे वह चद्रमा को प्राप्त होता है। वह मार्ग जिससे तर्पण और अमावास्या को पार्वणविधि से तीन पीढी ऊपर जाकर मृत व्यक्ति को निषिचत काल तक स्वग प्रादि मे सुख तक के मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है । भिन्न भिन्न भोगकर पुन संसार मे थाना पडता है। पूर्वजो की मृत्युतिथियो को भी उनके निमित इस पक्ष में विशेप-ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का प्रयास न कर अनेक प्रकार के श्राद्ध करते हैं। पर यह श्राद्ध एकोद्दिष्ट न होकर पुरुषिक अग्निहोत्र प्रादि विस्तृत पुण्यकर्म करनेवाले व्यक्ति जिस ही होता है । इन पद्रह दिनो में आहार और विहार में प्राय मार्ग से ऊपर के लोको को जाते हैं वही पितृयाण है। इसमें अशौच के नियमो का सा पालन किया जाता है। से जाते हुए वे पहले धूमाभिमानी देवतामो को प्राप्त होते हैं। २ पिता की पोर के लोग | पिता के सवधी । पितृकुल । फिर रात्रि, फिर कृष्ण पक्ष, फिर दक्षिणायन पएमास पितृपति-सज्ञा पुं॰ [सं० ] यम । अभिमानी देवतामो को प्राप्त होते हैं। इसके पीछे पितृलोक पितृपद-सज्ञा पुं० [ स०] १. पितरो का देश । पितरो का लोक और वहां से चद्रमा को प्राप्त होते हैं। अनतर वहाँ २ पितर होने की स्थिति या भाव । पितृत्व । पतित होकर ससार मे ३र्मस स्कार के अनुसार किसी। पितृपति-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पितृपितृ ] पितरो के पिता, ब्रह्मा । योनि मे जन्म ग्रहण करते हैं। देवयान अर्थात् ब्रह्मज्ञानो पितृपुरुष-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पितृ + पुरुप ] पूर्वज । पामको के मार्ग से यह उलटा है। दे० 'देवयान'। पितृपैतामह-वि० [स०] जिसका सबध बाप दादो से हो । बाप पितृयान-सञ्ज्ञा पु० [ स० ] दे० 'पितृयाण' । दादो का। पितराज-सज्ञा पु० [स] यम । पितृप्रसू- सज्ञा स्त्री० [सं०] १. दादी । श्राजी बाप की मा । पिता- पिरिष्ट-सा पुं० [ मं० ] फलित ज्योतिप के अनुसार वह यो. मही । २. सध्या। जिसमें बालक का जन्म होने से पिता की मृत्यु होती है। विशेष-पितृकृत्य में सध्यागामिनी अथवा सूर्यास्त समय मे विशेष--भिन्न भिन्न प्राचार्यों के मत से भिन्न भिन्न अब. वर्तमान तिथि ही ग्रहण की जाती है, तथा प्रेतकृत्य मे सध्या मे ऐसे योग पडते हैं। माता के समान उपकार करनेवाली मानी गई है । ये ही दो पितृरूप-सया पुं० [स०] शिव । उसके पितृप्रसू सज्ञा प्राप्त करने के कारण हैं। विशेप-शिव सपूर्ण प्राणियो के पिता माने गए हैं इसी पितृप्राप्त-वि० [सं०] १ पिता से प्राप्त । २ पैतृक धन के रूप उन्हे पितृरूप कहा जाता है । मे प्राप्त को। पितृलोक-मज्ञा पुं० [सं०] पितरो का लोक। यह स्थान त पितृप्रिय-सज्ञा पुं० [सं०] १. भंगरा । भैगरेया। भृगराज । पितृगण रहते हैं। २ अगस्त का वृक्ष। विशेप-छादोग्योपनिषद् मे पितृयाण का वर्णन करते है पितृवंधु-राज्ञा पुं० [सं० पितृवन्धु] १ पिता के पक्ष से होनेवाला पितृलोक को चद्रमा से ऊपर पहा गया है। मधर्ववेद सबध । २ पितामह की वहिन के पुत्र, पितामही की वहिन जो उदन्वती, पीलुमती पौर प्रद्यो ये तीन वक्षाएं गुलोक के पुत्र और पिता के मामा के पुत्र [को०] । कही गई हैं उनमे चद्रमा प्रथम रक्षा में और पितृलोक पितृभक्त-वि० [सं०] पिता की भक्तिभाव से सेवा करने- प्रद्यौ तीसरी कक्षा में कहा गया है। वाला (को०)। पितृवश-सरा पुं० [सं०] पिता का कुल । पितृकुल [फो०] । .