पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३०७

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पीजन ३०१६ पोछ रूई पीजण के कारण, प्रापन राम पठाया । -सु दर ग्र०, पीउ, पीऊ-सज्ञा पु० [हिं०] १० 'पिय'। उ०-तब लगि धीर भा० २,०८६६। सुना नहिं पीक । सुनतहिं घरी रहे नही जीऊ ।-पदमावत, पीजन-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पिञ्जन ] रुई धुनने की क्रिया । पृ० २७२। पीजना-क्रि० स० [सं० पिञ्जन ( = धुनकी ) ] रूई धुनना । पोऊखg - पु० [म. पीयूप] अमृत । पीयूष । सुधा । उ० - उ०-चिह चक्क हक्क घर घरहरत, पिसुन पीजि किज्जय तुअ दरसन विनु तिल प्रो न जीव । जइक कलामति पीऊख पीव ।-विद्यापति, पृ० १६६ । नरम ।-पृ० रा०, ३१५५ । पीक-राजा रसी० [म० पिच (= दवाना, निघोड़ना)] १ यूक से पींजर+-सज्ञा पुं० [सं० पिञ्चर ] दे० पिंजडा' या 'पजर'। मिला हुआ पान का रम। चबाए हुए बोडे या गिलौरी पींजरा-सशा पुं० [सं० पिचर ] दे॰ 'पिंजडा'। का रस । पान के रग से रंगा हुअा थूक । यूक । पोडो-सज्ञा पुं० [सं० पिण्ट ] १ शरीर । देह । पिंड। 30- यो०-पीकदान । पीकलीक । बिन जिव पींड छार करि कूरा। छार मिलावइ सो हित २ पहली वार का रग। वह रग जो कपटे को पहली बार रग पूरा।- जायसी (शब्द०)। २ वृक्ष का घड । वृक्ष देह । में दुवोने से चढता है (रंगरेज)। तना। पेडी। उ०-कटहर हार पीड सो पाके । वडहर पो-2 [म ० पीक (= चोटी) ] ऊंचनीच । ऊबड़ खाबड । सोउ भनूप भति ताके । —जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० १३८ । ३ किसी गीली वस्तु का गोला । पिंड । पिडी। ४ कोल्हू असमतल । नाहमवार (लण०)। के चारो ओर गीली मिट्टी का बनाया हुमा घेरा जिसमें मे ईख पीक-सज्ञा पुं० [अ०] कोना ( लश०)। को अगारिया या छोटे टुकडे छटककर बाहर नहीं निकलने पीक -१० खता। पायम ( लश० ) । पाते । ५ चरखे का मध्य भाग । वेलन । ६ शिरोभूपण । ३० पोको-सज्ञा ग्वी० [P०] दे० 'पीका' । 'पीड' । उ०-(क) शिखी की भांति शिर पीड डोलत मुहा०-पीक फूटना = पनपना । सुभग चाप ते अधिक नवमाल शोभा ।-सूर (शब्द॰) । पीकदान-सज्ञा पुं० [हिं० पीक+फा० दान (= आधार, पात्र)] ( ख ) पीड श्रीखड शिर भेष नटवर फसे मग इक छटा एक विणेष प्रकार का बना हुआ वह वरतन या पात्र जिसमें मैं ही भुलाई।-सूर (शब्द०)। ७. पिंडखजूर नामक पान की पीक थूकी या डाली जाती है । उगालदान । फल । उ०-खरिक दाख मरु गिरी चिरारी। पीड वदाम पोकना-मि० अ० [ म० पिक श्रथवा पपीहे की योली 'पी' से लेत बनवारी।-सूर (शब्द०)। अनुकृत ] पिहिकना। पपीहे या कोयल का बोलना । पीडी-सञ्ज्ञा सी० [सं० पिरिडका] दे० 'पिंडी'। उ०-अब न धीर धारत बनत मुरत विसारी कत। पिक पींडरी-सशा श्री० [हिं०] दे॰ 'पिंडली' । पापो पीकन लगे वगरेउ बाग वसत । -(शब्द०)। पीदुला-सच्चा पुं० [हिं०] दे॰ 'पीढ़ा' । उ०-सासु कू डारयो पीकपात्र-सज्ञा पुं० [हिं० पीक+सं० पान] पीकदान । उगालदान । पीढ़ला, ननद · डारयो मूढ़िला ।—पोद्दार अभि० प्र०, उ०-नट भट विट ठग ठाठ, पीकपात्र है सवन को।- पृ०६१७। प्रज० ग्र०, पृ०६६। पीपर-सशा पुं० [सं० पिप्पन ] दे० 'पीपर'। उ०-पिल्लत पोका-मज्ञा पुं० . [ देश० ] किसी वृक्ष का नया कोमल पत्ता । सिकार पिथ कुंपर उर। पसु पीपर दल थरहरे।-पृ० कोपल । पल्लव । उ०—कहै पद्माकर परागन में पानहू में रा०, ६.१००। पातन में पीकन पलासन पगत है।-पद्माकर ( शब्द०)। पी'-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रिय] दे॰ 'पिय'। उ०-राति अनत बसि मुहा०-पीका फूटना = पनपना। पल्लवित होना। कोपले भोर पी झूमत माए ऐन। निरखि न सोहैं नैन ती करति फेंकना । उ०—जासु चरन जल सीचन पाई। पोका फूटि न सौहैं नैन ।-स० सप्तक, पृ० २५६ । हरित हजाई।-रघुराज ( शन्द०)। पी-सशा स्री० [अनु॰] पपीहे की बोली। उ०-पी पी करत पपीहा पीच'-मचा पु० [सं०] ठड्डी । ठोढ़ी [को०] । पापी प्राण त्याग कर देहो। -श्रीनिवासदास (शब्द॰) । पोच-सज्ञा स्त्री॰ [सं० पिच] १ भात का पसाव । मांड। २ यौ०-पी कहाँ = पपीहे की बोली। पान की पीक । पीअर-सञ्ज्ञा पुं० हिं० पीना] पीले रंग का वस्त्र । पियरी। पोचू-संज्ञा पुं० [दश०] १ एक प्रकार का झाड । चीलू । जरदालू । उ०-ए पिया, हमें पीमरे की साध। पिपरी चों न २ करील का पक्का फल । पक्का कचडा या वेंटी। रंगाइए।-पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ६१४ । पीच्छ!--सज्ञा पुं० [स० पिच्छ] दे० 'पिच्छ'। उ०-सो श्री ठाकुर पीअर२-वि० [सं० पीत] दे० 'पीयर'। उ०-दान देति है मनि जी ने मोर पीच्छ को मुकुट धारन कियो है।-दो सौ गन चौरा। हेम पटबर पीमर चीरा। -भारतेंदु ग्र०, बावन०, भा० १, पृ० ३२६ । भा०२, पृ०५१८ । पीछा-सशा सी० [हिं० पीच] पीच। मांड । पीउ-सज्ञा पुं० [सं० प्रिय ] दे० 'पिय'। पीछ-सचा सी० [हिं० पीछे या पिछला] पक्षियों की दुम । -