पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पीठचक्र २०२१ पीड़न पीठचक-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का रथ । उसे पानी मे न उबालकर केवल भाप पर पकाते हैं। पीठदेवता-सञ्ज्ञा पु० [सं०] आधार शक्ति । प्रादिदेवता । घी में चुपड़कर खाने से यह अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। पीठना-क्रि० स० [सं० पिष्ट, हिं० पीठ+ना ] दे० 'पीसना' । पूरव की तरफ इसको 'फरा या 'फारा' भी कहते हैं। कदाचित् इस नामकरण का कारण यह हो कि पक जाने उ०-एकन आदी मरिच सों पीठा। दूसर दूध खाँड सो पर लोई का पेट फट जाता है और पीठी झलकने लगती है। मीठा ।—जायसी (शब्द॰) । पीठनायिका-संज्ञा स्त्री० [स०] चौदह वर्षीया (मरजस्का) वह पीठा-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पट्ठा' । कुमारी जो दुर्गापूजा के अवसर पर दुर्गा मानकर पूजी पीठाण-सज्ञा पुं० [सं० पौठस्थान (= युद्धपीठ, या रणक्षेत्र) ] जाती है [को०] । युद्धभूमि । रणस्थल । उ०-पाडियो राम दसकठ पीठाण मे सबद जै जै हुवा लोक सारा ।-रघु रू०, पृ० ३१ । पीठनायिका देवो-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १ पुराणानुसार किसी पीठ- स्थान की अधिष्ठात्री देवी । २ दुर्गा । भगवती। पोठि-सचा त्री० [हिं० पीठ ] दे० 'पीठ'। पीठन्यास-सज्ञा पुं० [स०] एक प्रकार का तत्रोक्त न्यास जो प्राय पीठिका-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १ पोढा । २. मूर्ति, खभे आदि का सभी तात्रिक पूजाओं में प्रावश्यक है । मूल या अाधार । ३ अश । अध्याय । ३. पृष्ठभूमि (को०) । ४ तामदान । डाँडी (कौटि०)। पीठभू-सशा पुं० [सं०] प्राचीर के प्रासपास का भूभाग । चहार- दीवारी के आसपास की जमीन । पीठी-सच्चा स्त्री॰ [ स० पिष्ट या पिष्टक, प्रा० पिट्ठ ] पानी मे भिगोकर पीसी हुई दाल विशेषत उरद या मूग की दाल पीठमद-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ नायक के चार सखाप्रो में से एक जो जो वरे, पकौडी आदि बनाने अथवा कचौरी में भरने के काम वचनचातुरी से नायिका का मानमोचन करने में समर्थ हो। में प्राती है। यह शृगार रस के उद्दीपन विभाव के प्रतर्गत है। २ वह नायक जो कुपित नायिका को प्रसन्न कर सके । कि०प्र०-पीसना ।-मरना । मानमोचन में समर्थ नायक । पीठी-सज्ञा स्त्री० [हिं० पीठ ] दे० 'पीठ' । विशेष-सस्कृत के अधिकाश प्राचार्यों ने पीठमदं को नायक का पीड़-सज्ञा पुं० [ देश० ] मिट्टी का प्राधार जिसे घडे को पीटकर भेद भी माना है परतु कुछ रसाचार्यों ने इसकी गणना बढ़ाते समय उसके भीतर रख लेते हैं। सखामो में की है। पीड़-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पापीठ ] सिर या वालो पर बांधा जाने- २ अत्यंत घृष्ट नायक, सखा या अत्यत ढीठ (को०)। ३ नृत्य वाला एक प्रकार का प्राभूषण। उ०—कर घर के घरमैर की शिक्षा देनेवाला व्यक्ति । नृत्यगुरु (को॰) । सखीरी। के सृक् सीपज की बगपगति, के मयूर की पीड पोठयर्दिक-संज्ञा स्त्री० [सं०] वह ली जो प्रिय को प्राप्त करने में पखीरी।-सूर (शब्द॰) । नायिका की सहायता करती है (फो०] । पोद-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पीडा'। उ०-मूये पीड पुकारता, पोठविवर-सञ्ज्ञा पुं० [स०] दे० 'पीठगर्भ' । देव न मिलिया आइ । दादू थोडी बात थी जे टुक दरस दिखाइ।-दादू०, पृ०५६ । पोठसर्प-वि० [सं०] लँगडा। पीड़क-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पीडक ] १ पीडा देने या पहुंचानेवाला । पोठसी-वि० [सं० पीठसर्पिन् ] लँगड़ा । दुखदायी। यत्रणादाता। २ भत्याचारी। उत्पीडक । पीठस्थान-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ दे० 'पीठ'-७ । देवीपीठ। २ सतानेवाला । सिंहासन बत्तीसी के अनुसार 'प्रतिष्ठान' (आधुनिक झूसी) पीढ़न-सचा पुं० [स० पीढन ] [ वि० पीढक, पीढनीय, पीडित ] का एक नाम। १ दबाने की क्रिया। किसी वस्तु को दवाना । चापना । पीठा-सज्ञा पुं० [स० पीठक] दे० 'पीढ़ा' । उ०-भावत पीठा २. पेरना । पेलना । ३ दुख देना । यत्रणा पहुंचाना । तक- बैठन दीन्हों कुशल वृझि अति निकट बुलाई।-सूर लीफ देना। ४ अत्याचार करना । उत्पीडन । उ०-मानव (शब्द०)। के पाशव पीडन का देती वे निर्मम विज्ञापन ।-ग्राम्या, पृ० पोठा-सशा पुं० [सं० पिष्ठक, प्रा० पिठक ] एक पकवान जो आटे २४ । ५ भाक्रमण द्वारा किसी देश को वर्वाद करना । की लोइयो में चने या उरद की पीठी भरकर बनाया ६ फोटे को पीव निकालने के लिये दवाना । ७ किसी प. जाता है। को भली भांति पकडना । ग्रहण करना। हाय मे पकडना । विशेष--पीठी में नमक, मसाला मादि देकर माटे की लोइयो जैसे, पाणिपीडन । ८ सूर्य चंद्र प्रादि का ग्रहण । ६ उच्छेद । मे उसे भरते हैं और फिर लोई का मुंह बदकर उसे गोल नाश । १०. अभिभव । तिरोभाव । लोप । ११ पेरने या चौफोर या चिपटा कर लेते हैं। फिर उन सबको एक दवाने का यत्र (को०) । १२ अनाज को हठल से पीट या बरतन में पानी के साथ माग पर चढ़ा देते हैं। कोई कोई रौंदकर निकालना (को०)। १३. मालिंगनबद्ध करना 1-३८