पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३३७

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लेना । पुनर्गेय २०४६ पुनि पुनर्गेय-वि० [ म०] १ जो फिर से गाया गया हो। २ जो निर्मलु सूचा सच होई, नानक इतरसि पुनर्पि जन्म न होई । फिर से गाया जय । पुन गान योग्य [को॰] । -प्राण, पृ० २३५। पुनर्ग्रहण -मचा पु० [सं०] १ पुनरुक्ति । २ बार बार ग्रहण या पुनर्भव'- सज्ञा पुं॰ [सं०] १ फिर होना । पुनर्जन्म । २ नख । नाखून | ३ रक्तपुनर्नवा। पुनर्जन्म-सचा पुं० [ म० ] मरने के बाद फिर दूसरे शरीर में पुनर्भव-वि० जो फिर हुपा हो । फिर उत्पन्न । उत्पत्ति । एक शरीर छूटने पर दूसरा शरीर धारण । पुनर्भाव-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] नया जन्म । पुनर्जन्म [को०] । पुनर्जन्मा-संज्ञा पुं० [स० पुनर्जन्मन् ] ब्राह्मण [को०] । पुनर्भू-सज्ञा स्त्री० [सं०] वह विधवा स्त्री जिसका विवाह पहले पुनर्जागरण-मज्ञा पुं० [स० पुनर + जागरण ] १ पुन जगना । पति के मरने पर दूसरे पुरुष से हो । पुनरुत्थान । २ युरोपीय इतिहास का एक युगविशेष । प्राचीन विशेप-मिताक्षरा के अनुसार पुन तीन प्रकार की होती हैं। का गौरवगान और उसकी पुन स्थापना इस प्रवृत्ति की प्रमुख जिसका पहले पति से केवल विवाह भर हुमा हो, समागम विशेषता है। न हा हो, दूसरा विवाह होने पर वह अक्षतयोनि स्त्री प्रथमा पुनर्जात-वि० [म० ] फिर से जन्म लेनेवाला [को०] । पुनर्मू होगी। विधवा हो जाने पर जिसके चरित्र के विगहने पुनर्डीन-मशा पुं[म० ] पक्षियो के उडने का एक प्रकार (को॰] । का डर गुरुजनो को हो उसका यदि वे पुनर्विवाह कर दें तो वह पुनर्णव-सचा पु० [ म० ] नख । नाखून । द्वितीया पुनर्मू होगी। विधवा होकर व्यभिचार करनेवाली स्त्री का यदि फिर विवाह कर दिया जाय तो वह तृतीया पुनय-सज्ञा पु० [सं० ] फिर से दे देना। लौटा देना [को॰] । पुनर्मू होगी। पुनर्नव'-वि० [ सं० ] जो फिर से नया हो गया हो। पुनर्भोग-सज्ञा पुं० [सं०] १ पूर्व कर्म के फलो ( सुख दुःख प्रादि ) पुननव-सग पुं० दे० 'पुनर्णव' । का भोग। २ किसी वस्तु का पुन प्राप्त होना [को॰] । पुनर्नदा-सज्ञा ग्मी० [ स० ] एक छोटा पौधा जिसकी पत्तियाँ पुनर्वसु-पज्ञा पुं॰ [ सं० ] सत्ताईस नक्षत्रों में से सातवा नक्षत्र । चौलाई की पत्तियो की सी गोल गोल होती हैं। दे० 'नक्षत्र' । २ विष्णु । ३ शिव । ४ कात्यायन मुनि । विशेप-फूलों के रंग के भेद से यह पौधा तीन प्रकार का होता ५ एक लोक। है-श्वेत, रक्त और नील। श्वेत पुनर्नवा को विषखपरा और पुनर्विभाजन-सचा पुं० [सं०] विभाजित वस्तु को फिर विभाजित रक्त पुनर्नवा को सांठ या गदहपूरना कहते हैं । श्वेत पुनर्नवा या विषखपरे का पौधा जमीन पर फैला होता है, ऊपर की पुनर्वार-क्रि० वि० [सं० पुनर्+वार ] दुवारा । फिर से । उ०- ओर बहुत कम जाता है । फूल सफेद होते हैं । साँठ या गदह- पुनर्वार गाएँ नूतन स्वर, नव कर से दे ताल, चतुर्दिक छा पूग्ना ऊसर और केकरीली जमीन पर अधिक होती है । फूल जाए विश्वास ।-अनामिका, पृ० ६७ । लाल होते हैं, डठल लाल होते हैं और पत्तियां भी किनारे पर कुछ ललाई लिए होती हैं। पुनर्नवा की जड मूसला पुनर्विवाह-सज्ञा पुं० [सं०] फिर से विवाह या परिणयन करना [को०)। होती है और नीचे दूर तक गई होती है। औषध में इसी पुनवतील-वि० वा [ स० पुण्यवती ] पुण्यवाली । भाग्यवाली। जड का व्यवहार अधिकतर होता है पुनर्नवा कडवी, गरम, पुण्यात्मा । उ०—किहि पुनवती सामुहउ, म्हु उपराठउ चरपरी, कसैली, रुचिकारक, पग्निदीपक, रूखी, खारी, आज ।-ढोला०, दु. ३५० । दस्तावर, हृदय और नेत्र को हितकारी, तथा सूजन, कफ, पुनवाँसी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० पूर्णमासी ] पूर्णिमा । पूनो । पूर्णमासी। वात, खांमी बवासीर, सूल, पाडू रोग इत्यादि को दूर करने उ०-खासी परकासी पुनवासी चद्रिका सी जाके, वासी वाली मानी जाती है। नेत्ररोगो में तो यह बहुत उपकारी अविनासी अघनासी ऐसी कासी है। --मारतेंदु ग्र, भा० १, मानी जाती है। इसकी जड़ को पीते भी हैं और घिसकर पृ० २८२। घी श्रादि के साथ प्रजन की तरह लगाते भी हैं। ऐसा प्रसिद्ध पुनश्च-क्रि० वि० [सं० ) पुन फिर [को० । है कि इसके सेवन से प्रांखें नई हो जाती हैं। पुनश्चर्वण-सज्ञा पुं॰ [ स० ] पागुर । पगुरी। जुगाली [को॰] । पर्या--(८) श्वेत पुनर्नवा । श्वेतमूला । कठिल्ल । चिराटिका । पुनाग-सज्ञा पुं० [ सं० पुन्नाग ] दे॰ 'पुन्नाग' ( वृक्ष )। वृश्चीरा । सितवर्षाभू। वांगी । वर्पाही । विसाख । शशि उ०-साल ताल हिंताल तमालन बजुल घवा पूनागा। वाटिका । पृथ्वा । घनपन । शोथनी । दीर्घपत्रिका। -श्याम'०, पू०११८ । (ख) रफ पुननया । रक्तपत्रिका । रक्तकाड । वर्षकेतु । वर्षाभू । पुनाराज-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पुनर्राज] नया नरेश । नया राजा [फो०] । रक्तपप्पा । लोहिता । क्रूरा । मढलपत्रिका | चिकस्वरा। पुनि -क्रि० वि० [सं० पुन १ फिर । तदनतर । उसके बाद । विषघ्नी । सारिणी। शोणपत्र । भौमा । पुनर्भव | नव । नव्य । उ०-(क) पुनि रघुपति बहुविधि समझाए। -मानस, (ग) नीलपुनर्नवा । नीला । श्यामा । नीलवर्षाभू । नीलिनी । ७।६५। पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन समेता।-मानस, ७६८ ॥ पुनर्पिल-प्रव्य [सं० पुनरपि ] फिर । दुवारा। उ०—मनु २ फिर से। दोबारा । करना ।