पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३३८

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मे वडा। पुनिर्म ३०४७ पुरजन मुहा०-पुनि पुनि = बार बार। उ०-पुनि पुनि मोहिं देखाव दिखाता है। वैद्यक मे पुन्नाग मधुर, शीतल, सुगध । कुठारा ।-तुलसी (शब्द०)। पित्तनाशक माना जाता है। पुनिम-गज्ञा स्त्री॰ [ सं० पूर्णिमा ] दे० 'पूर्णिमा' । उ०-उठ पर्या-पुरुपाख्य । रक्तवृत्त । देवयल्लम । पुरुप | तु ग । केस उठ माधव कि सुतसि मद, गहन लाग देख पुनिम क चद । केसरी। -विद्यापति, पृ०६५। २ श्वेत कमल । ३ जायफल । ४ पुरुषश्रेष्ठ । मनु। पुनिमासी-ज्ञा स्त्री० [स० पूर्णिमासी ] दे॰ 'पूर्णमासी' । उ०-चहुआँन राह लग्गन फिरयो, पूरन पुनमासी सगुर । पुन्नाट-सजा पुं० [स०] १ चक्रमदं। चावट का पौधा । -पृ० रा०, १९। १७८ । कर्नाटक के पास एक देश । ३ दिगवर जैन मप्रदाय का । सघ । जैन हरिवश के कर्ता जिनसेनाचार्य इसी सघ के थे। पुनी-सञ्ज्ञा पुं॰ [ मं• पुण्य, हि० + पुन+ई (प्रत्य॰)] पुण्य करनेवाला । पुण्यात्मा । उ०-सब निदंभ, धर्मरत पुनी। पुन्नाड-सञ्ज्ञा पुं॰ [म०] दे० 'पुग्नाट' । नर अरु नारि चतुर सब गुनी।—तुलसी (शब्द०)। पुन्नामा-सज्ञा पुं॰ [ स० पुन्नामन् ] पुन् नाम का एक नरक । पुन्नाग वृक्ष [को० । पुनी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० पूर्ण, या पूर्णिमा ] पूर्णिमा । पूनो । उ.-चित्र में बिलोकत ही लाल को बदन वाल, जीते जेहिं पुन्नि-सझा जी० [सं० पुण्य प्रा० पुन्न ] दे॰ पुण्य । उ०- कोटि चद पारद पुनीन को।-मतिराम ( शब्द० )। असुमेष अग्गि जेई कीन्हा। दाव पुन्नि सरि सेउ न दोन्ह -जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० १३१ । पुनील-कि० वि० [हिं०] दे० 'पुनि' । उ०-मानस वचन काय पुन्निम-सज्ञा स्त्री० [म० पूर्णिमा, प्रा० पुन्निमा] २० 'पूणि मा किए पाप सति भाय राम को कहाय दास दगाबाज पुनी सो। उ०-उद्दित प्रधान सुभ गतनह । जेम जलधि पुति —तुलसी (शब्द०)। वढहि ।-पृ० रा०, १६८४ । पुनीत-वि० [सं०] पवित्र किया हुमा । पवित्र । पाक । पुन्य-सचा पु० [सं० पुग्य] दे॰ 'पुण्य' । पुनीतव-वि० [सं० पुण्यतम या हिं• ] दे० 'पुनीत' । उ०- जरतकार जाजुल्लि परासुर परम पुनीतव । -ह. रासो, पुन्यजन-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पुण्यजन] असुर । राक्षस । उ०-को अन्नप पुन्यजन निकपासुत दुर्नाद ।-अनेकार्थ, पृ०८४ । पृ० १०॥ पुन्नुल-अव्य० [सं० पुन | दे० 'पुन'। उ०—जलो दिठि का पुन्यवाई-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पुण्यता] पुण्यता । पुण्य । ओल एहि मति तोर, पुनु हेरसि फिए परि गोरि ।-विद्या- पुन्यथली-सञ्चा मो० [सं० पुण्य + स्थल ] पुण्यस्थली। पी पति, पृ०२६६ । स्थान । उ०—पुन्यथली तिहिं जागि बिराजे, बात : पुन्ना-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पुण्य, प्रा. पुण्ण, पुन्न] दे० 'पुण्य' । उ०- कछु और ।-सूर०, १०।१७८६ । तिरथ व्रत तप दान पुन्न, होम जज्ञ सोइ ।-जग० श०, पुस्ली-माझी[हिं० पोपला] बाँस की पतली पोली नली। भा०२, पृ० ८१। पुपूषा-सञ्चा मी० [सं०] शुद्ध, स्वच्छ करने की इच्छा को०] । पुन्नक्षत्र-सज्ञा पुं० [स० पुम् + नक्षत्र ] नरा नक्षत्र । वहु नक्षत्र पुष्प, पुप्फ91-सज्ञा पुं० [सं० पुप्प, प्रा० पुप्फ] पुष्प । फुल । उ जिसमें नर सतान की उत्पत्ति हो [को०] 1 (क) अनेक पुष्प बीचि ग्रथि मासित त्रिपडिय।-10 र पुन्नाग-सज्ञा पु० [सं०] १ सुलतान चपा । २५।३१० । (ख) पुप्फ पानि धरि धूप पिथ्थ पाइन विशेप-इसका पेड बडा भोर सदावहार होता है। पत्तियां असह।-पृ० रा०, १९६८६ । इसकी गोल पडाकार, दोनों सिरो पर प्राय घराबर चौडी पुप्फुट-सञ्ज्ञा पुं० [स०] तालु और मसूढो का एक रोग (को०] । पौर चपा को पत्तियो से मिलती जुलती होती हैं । टहनियो पुप्फुल-सगा पुं० [स०] उदरस्थ वायु । जठरवात । के सिरे पर लाल रग के फूल गुच्छो मे लगते हैं । फूलो मे पुप्फुस-शा पु० [सं०] १ पद्मवीज कोश । कंवलगट्टे का छत्त। फेसर होता है जो पुन्नागकेसर कहलाता है और दवा के २ फुप्फुस। काम में आता है। फल भी गुच्छों में ही लगते हैं। इस ऐड की लकडो बहुत मजबूत ललाई लिए बादामी रंग की होती पुव्ब पु-मज्ञा पुं० [सं० पूर्व, प्रा० पु-य] पूर्व । पूर्व दिशा। है। यह इमारतो मे लगती है, जहाज के मस्तुल बनाने, रेल पुन्यता- बी० [सं० पूर्व ] अपूर्वता । अतुल्पता फो पटरी के नीचे देने तपा और बहुत से कामो मे पाती है। पुमान् -सरा पुं० [ 10 ] मर्द । नर । पुरुष । छाल को छीलने से एक प्रकार का रस या गोद निकलता है पुरगपु-वि० [सं० पुर ] मागे। जिसमे सुगध होती है । फलो के वीज से तेल निकलता है। पुरजन-सा पु० [सं० पुरञ्जन] १ जीवात्मा। पेट दक्षिण मद्रास प्रांत मे समुद्रतट पर बहुत विशप-मागवत में विस्तृत रूपकारुवान के रूप शरीर अधिक होते हैं। उडीसा, सिंहल पोर बरमा में भी यह पेड पुर, उसके नवद्वार, त्वामी प्राचीर पोर उममे 'पुरज पापसे माप होता है। समुद्रतट की रेतीली भूमि में जहाँ नाम से जीवात्मा के निवास प्रादि का वर्णन किया गया है मौर कोई पेड नहीं होता वहाँ यह अपने फल फूल की बहार २ हरि । विष्णु (फो०)। पुन्नाग