पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३३९

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पुरजनी ३०४८ पुरखा पुरजनी-सशा झी० [सं० पुरञ्जनी ] बुद्धि । मनीषा [को०] । का निवास । अत पुर । जनानखाना (को०) । १५ कोषागार । भडारघर (को०)। १६ गरिएकागृह । वेश्यालय (को०)। १७ पुरजय-वि० [ स० पुरञ्जय ] पुर को जीतनेवाला। पुष्पगर्भ । पुष्प कोश (को०)। पुरजय-सज्ञा पु० एक सूर्यवंशी राजा । काकुत्स्थ । विशेष-विष्णु पुराण मे लिखा है कि एक वार दैत्यो से हारकर पुर'-वि० [ स०, तुल० फा० पुर ] पूर्ण । भरा हुमा । जब देवता विष्णु भगवान के पास गए तब उन्होंने उनसे पुर-सा पु० [ स० पुर ( = चमडा), या देश० ] कुएं से पानी राजा पुरजय के पास जाने के लिये कहा । भगवान् ने अपना निकालने का चमड़े का ढोल । चरसा। कुछ भश पुरजय मे डाल दिया। पुरजय ने इद्र से वैल पुर–अव्य[सं० पुरस ] भागे । समक्ष । सामने । उ०-राम बनने के लिये कहा । वैल के ककुद (होले) पर वैठकर पुरजय कह्यो जो कळू दुख तेरे । श्वान निशक कहो पुर मेरे ।--राम ने युद्ध किया और दैत्यो को परास्त कर दिया । इसी से च०, पृ०१६६। उनका नाम काकुत्स्थ पडा। पुरअमन-वि० [फा० पुर+प्र० अम्न ] शातिपूर्ण । शाति- पुरजर-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पुरञ्जर ] काँख । कुक्षि । बगल [को॰] । मय (को०)। पुरद-सज्ञा पु० [ म० पुरन्दर ] इद्र । पुरदर। उ०-अनघन पुरअसर-वि० [फा० पुर+म० श्रपर ] असरदार । प्रभावशील । प्रवाह वह पुहवि परि वरष्यो जेम पुरद गति । -पृ० रा०, उ०-कोई पद्रह कहानियाँ उन्होने लिखी, किंतु जो लिखा १४७२। पुरमसर ।-शुक्ल अभि० प्र०, पृ०६३ । पुरंदर-सञ्ज्ञा पु० [ स० पुरन्दर ] १ पुर, नगर या घर को तोड़ने पुरइन+-सज्ञा स्त्री॰ [ म० पुटकिनी, प्रा० पुद्दइनी (= कमलिनी), वाला। २ इद्र (जिन्होंने शत्रु का नगर तोसा था)। ३. पु०हिं० पुरइनि ] १. कमल का पचा। उ०-(क) पुरइन ( घर को फोडनेवाला) चोर। ४ चविका । चव्य । चई। सघन पोट जल वेगि न पाइय मर्म ५ मिचं । ६ ज्येष्ठा नक्षत्र । ७ शिव का एक नाम (को॰) । मायाछन्न न देखिए ८ अग्नि (को०)। ६ विष्णु। जैसे निर्गुण ब्रह्म। —तुलसी (शब्द०)। (ख) देखो भाई रूप सरोवर साज्यो। ब्रज बनिता वर वारि वृद में श्री यौ०-पुरदरक्ष्माधर=महेंद्र पर्वत का नाम । ब्रजराज विराज्यो। पुरइन कपिश निचोल विवध रंग विहसत पुरदरा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० पुरन्दरा ] गगा। सच उपजावै । सूर श्याम प्रानदकद की सोभा कहत न आवै । पुरद्र-सज्ञा पुं० [ स० पुरन्दर ] पुरदर । इंद्र । उ०-इहिं काम —सूर (शब्द०)।२ कमल । उ०—(क) सरवर चहुँ दिति पुरद्र निपाता । भग सहस किए जिहिं गाता ।-सु दर० म० पुरइनि फूली । देखा वारि रहा मन भूली। —जायसी भा०१, पृ० १२४ । (शब्द॰) । (ख) ऊधो तुम हो अति बढ़ भागी। भपरस पुरध्रि, पुरध्रो-सज्ञा स्त्री॰ [ स० पुरन्धि] १ पति, पुत्र, कन्या आदि रहत सनेह तगा ते नाहिन मन अनुरागी। पुरइन पात से भरी पूरी स्त्री। २ स्त्री । औरत । रहत जल भीतर ता रस देह न दागी। ज्यों जल माह तेल पुरः-प्रव्य० [स० पुरस् ] १ मागे । २ पहले। की गागरि वूद न ताको लागो।—सूर (शब्द॰) । यौ०-पुर पाक = जिसकी सिद्धि या पाक सन्निकट हो। पुर पुरइया-सञ्चा सी० [स] तकुना । उ०-मन मेरी रहटा रसना प्रहर्ता = (१) वह जो अग्रिम पक्ति में लड़े। (२) पहले पुरइया । हरि को नाउ ले ले काति बहुरिया ।—कबीर ग्र०, प्रहार करनेवाला । पुर फल = जिसका फल या सिद्धि पृ० १६५। समक्ष हो । पुर सर । पुर स्थ=सामने । समक्ष । पुर स्थायो = पुरकोट्ट-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] नगर की रक्षा के लिये बना दुर्ग (को०] । सामने रहनेवाला । आगे रहनेवाला । पुरखा-सशा पुं० [ स० पुरुप ] । व्यक्ति । पुरुष । पुरःसर-वि० [स०] १ अग्रगता। अगुना । २. सगी। साथी। पुरखव-सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] पौरुष । पुरुषार्थ । उ०-इक्क कहै ३ समन्वित । सहित । युक्त । सौग्रन्न इद्र को पुरखव नखिय । -पृ० रा०, ४१३ । पुर सर-सज्ञा पुं०१ अग्रगमन । २ साथ । पुरखा-सज्ञा पु० [सं० पुरुप] [स्त्री० पुरखिन ] १ पूर्वज । पूर्व- पुर-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स०] [ सी० पुरी ] १ वह बड़ी वस्ती जहाँ कई पुरुष । उत्पत्ति परपरा में पहले पडनेवाले पुरुष । जैसे, वाप, ग्रामो या बस्तियो के लोगो को व्यवहार प्रादि के लिये दादा, परदादा इत्यादि । जैसे,-ऐसी चीज उसके पुरुखो ने पाना पडता हो । नगर । शहर । कसबा । २ आगार । घर । भी न देखी होगी। उ०-चलत लीक पुरखान की करत यौ०-श्रत पुर । नारीपुर। तिनहिं के काज ।-लक्ष्मण (शब्द॰) । ३ गृहोपरि गृह । घर के ऊपर का घर | कोठा । मटारी। ४ मुहा०-पुरखे तर जाना = पूर्वपुरुषो को ( पुत्र प्रादि के कृत्य लोक । भुवन । ५ नक्षत्र । पुज । राशि । ६ देह । शरीर । से) परलोक मे उत्तम गति प्राप्त होना। बडा भारी पुण्य ७. मोथा। ८. चर्म। चमडा। पीली कटसरेया । २० या फल होना। कृतकृत्य होना । जैसे,—एक दिन वे तुम्हारे गुग्गुल नामक गधद्रव्य । ११ दुर्ग। किला। गढ़। १२ घर आ गए, बस पुरखे तर गए । चौगा। १३ पाटलिपुत्र का एक नाम (को०)। १४ स्त्रियों २. घर का बडा बूढ़ा।