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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३५३

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पुलपुला ३०६२ पलिकेशि जाति । पुलपुला-वि० [अनु॰] जिसके भीतर का भाग ठोस न हो। जो खाना जो मांस और चावल को एक साथ पकाने से बनता भीतर इतना ढीला और मुलायम हो कि दबाने से घेस है। मासोदन। जाय । जो छूने में कहा न हो ( विशेषत फलो के लिये )। पुलिंग-तज्ञा पुं० [म० पुल्लिग] दे० 'पु लिंग' । उ०~ोरे रूप जैसे,—ये ग्राम पककर पुलपुले हो गए हैं। पुलिंग सो जानहै उर निरधार ।-पोद्दार अभि० प्र०, पुलपुलाना-क्रि० स० [हिं० पुलपुला ] १ किसी मुलायम चीज पृ०५३० । को दवाना। जैसे, प्राम पुलपुलाना । २. मुंह मे लेकर पुलिंद-मशा पुं० [ नं०] १ भारतवर्ष की एक प्राचीन असभ्य दवाना । चूसना । विना चबाए खाना । जैसे, प्राम को मुह में लेकर पुलपुलाना । विशेष-ऐतरेय ब्राह्मण मे लिखा है कि विश्वामित्र के जिन पुलपुलाहट-सज्ञा मी० [हिं० पुलपुला +हट (प्रत्य॰)] पुलपुला पुत्रो ने शुन शेष को ज्येष्ठ नहीं माना था वे ऋपि के माप होने का भाव । मुलायमियत । से पतित हो गए। उन्ही मे पुलिंद, शवर प्रादि वर्वर जातियों पुलसरात-पुं० [फा० पुल +सरात] मुसलमानो के अनुसार (हिंदुओं की उत्पत्ति हुई । रामायण, महाभारत, पुगण, फाव्य सबमें की वैतरणी वी भौति) एक नदी का पुल जिसे मग्ने इस जाति का उल्लेख है। महाभारत सभापर्व में सहदेव के के उपरात जीवो को पार करना पड़ता है। कहते हैं कि दिग्विजय के संबंध में लिखा है कि उन्होंने भवुक राजामों को पापिर्यो के लिये यह पुल वाल के समान पतला और पुण्या जीतकर वातापिप को वश में किया और उसके पीछे त्माओं के लिये खासी सडक के समान चौडा हो जाता है। पुलिंदो को जीतकर वे दक्षिण की ओर बढ़े। कुछ लोगों के उ०-नासिक पुलस रात पथ चला । तेहि कर मौहें हैं दुइ अतुमान के अनुसार यदि प्रयुग को प्रावू पहाट और वात को पला । —जायसी (शब्द०) वातापिपुगे (वादामी) मानें तो गुजरात और गजपुताने के बीच पुलस्त-सज्ञा पुं॰ [ म० पुलरस्य ] दे० 'पुलस्त्य' । पुलिंद जाति का रथान ठहरता है। महाभारत प्मपर्व) पुलस्ति-सञ्ज्ञा पु० [ स०] पुलस्त्य मुनि । उ०—सो पुलस्ति मुनि मे एक स्थान पर 'मिधुपुलिंदका' भी है इससे उनका स्थान जाइ छोडावा ।-मानस, ६२४ । सिंधु देश के ग्रासपास भी सूचित होता है । वामनपुराण में पुलिंदो की उत्पत्ति को एक कथा है कि भ्रूणहत्या के पुलस्त्य-संश पुं० [स०] १ एक ऋपि जिनकी गिनती सप्तपियो प्रायश्चित्त के लिये इद्र ने कालजर के पास तपस्या की थी और प्रजापतियों में है। और उनके साथ उनके सहचर भी भूलोक में पाए थे। उन्हीं विशेप-ये ब्रह्मा के मानसपुत्रो में थे। ये विश्रवा के पिता सहचरों की सतति मे पुलिंद हुए जो फालजर मोर हिमाद्रि के और कुबेर और रावण के पितामह थे। विष्णुपुराण के चीच वसते थे। अणोक के शहराजगढ़ी के लेख में भी पुलिंद अनुमार ब्रह्मा के कहे हुए आदिपुराण का मनुष्यो के बीच जाति का नाम पाया है। इन्होंने प्रचार किया था। २ शिव का एक नाम । २ वह देश जहाँ पुलिंद जाति बसती थी। ३ जहाज का मस्तूल (को०)। पुलह-सझा पु० [सं०] १ एक ऋषि जो ब्रह्मा के मानसपुत्रो और प्रजापतियो मे से हैं। ये सप्तपियो मे हैं। २. एक गधर्व । ३. पुलिंदा'-यज्ञा पुं॰ [म० पुल (= ढेर), हिं० पूला] लपेटे हुए कपरे, कागज आदि का छोटा मुट्ठा। गड्डी। पूर्वा । गट्ठा । बडल । शिव का एक नाम । जैसे, कागज का पुलिंदा। पुलहना- क्रि० प्र० [सं० पल्लवन] दे० 'पलुहना' । २०-तोहि पुलिंदा-सश सी॰ [ ? ] एक छोटी नदी जो ताप्ती में मिलती देखे, पिउ | पुलहै कया । उमरा चित्त, बहुरि कर मया । -जायसी (शब्द०)। है। महाभारत में इसका उल्लेख है। पुलांग-राज्ञा पुं० देश० ] एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्ते फरेंदे के पुलिकेशि-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ चालुक्यवशीय एफ राजा जिन्होंने पत्ते की तरह और फल गोल होते हैं जिनमें से गिरी ईसा की छठी शताब्दी में पल्लवो पी राजधानी वातापिपुरी निकलती है। इससे तेल निकलता है । यह वृक्ष उडीसा में ( वादामी ) को जीतक दक्षिण में चालुक्य राज्य स्थापित होता है। किया था। २ चालुक्यवशीय एक सबसे प्रतापी राजा जो पुला-पज्ञा स्त्री० [स०] उपजिविका [को०] । सन् ६१० के लगभग वातापितुरी के सिंहासन पर बैठा और पुलाक-मज्ञा पुं० [सं०] १ एक कदन्न । अंकरा । २ उबाला हुमा जिसने मारा दक्षिण और महाराष्ट्र प्रदेश अपने अधिकार चावल । भात। ३ भान का माड । पोच । ४ मासोदन। पुलाव । ५ अल्पता । सक्षेप । ६. क्षिप्रता। जल्दी। विशेप-यह द्वितीय पुलिकेशि के नाम से प्रसिद्ध है। परम प्रतापो हपवर्घन, जिसकी गजसमा में वाणभट्ट थे मौर पुलाकी-मज्ञा पुं० [म० पुलाकिन् ] वृक्ष । जिसके समय में प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन्सांग भारतवर्ष पुलायित-सञ्ज्ञा पुं० [स०] घोडे की एक चाल [को०] । माया था, इसका समकालीन था। हर्षवर्धन सारे उत्तरीय पुलाव-सज्ञा पुं० [म० पुलाक, मि० फा० पलाव ] एक व्यजन या भारत को अपने अधिकार में लाया पर जब दक्षिण की भोर मे किया।