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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३६

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पंपाल २०४५ पचलड़ा से मलयगिरि पर जाकर राम से मिलने का वृत्तात सुग्रीव से पँखुड़ी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पंख ] फूल का दल । पखडी। उ०- कहा था। आजकल श्रावकोर ( तिरुवाकुर ) राज्य मे एक कमल सूख पंखुडी भइ रानी। गलि गलि के मिलि छार नदी का नाम 'पबे' है। यह पश्चिम घाट से निकलती है झुरानी।-जायसी (शब्द॰) । जिसे वहाँवाले 'अनमलय' कहते हैं । अस्तु यही नदी पपा पँखुरी- सज्ञा स्त्री॰ [हिं० पख ] 7 'पंखुडी । उ०—(क) मैं वरजी नदी जान पटती है और ऋष्यमूक पर्वत भी वहीं हो सकता के बार तू इत किंत लेति करोट । पंखुरी गड गुलाब की परिहै है जिससे यह नदी निकली है । गात खरोट ।-विहारी (शब्द॰) । पंपाल-वि० [स० पापालु] पाप या बुरे कर्म करनेवाला । पापी। पंखुरा-सशा पु० [ स० पक्ष, हि० पख ] दे० 'पंखुडा'। पंपासर-सज्ञा पु० [ म० पम्पासर ] दे० 'पपा' । उ०प पासरहि पखेरू-सचा पुं० [ स० पक्षालु ] 7 'पखेरू' । उ०-भएउ अचल धुव जाहु रघुराई । तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।-मानस, ३।३० । जोगि पखेरू । फूलि बैठ थिर जैस सुमेरू। -जायसी ग्र० पंबा-सञ्ज्ञा पु० [फा० पुवा ( = कपास) ] एक प्रकार का पीला रग (गुप्त), पृ० ३१२। जो ऊन रेंगने मे काम आता है । पँगा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उपग' । विशेप-४ छटाँक मोखा हलदी की बुकनी १३ छटाँक गधक के बगरा-सञ्ज्ञा पुं० [ देश ] १ मझोले प्राकार का एक प्रकार का तेजाव मे मिलाई जाती है। हल हो जाने पर उसे ६ सेर उब- कटीला वृक्ष । डौलढाक । ढाक । मदार । लते हुए पानी में मिला देते हैं। इस जल में घुला हुआ ऊन विशेष-यह वृक्ष प्राय सारे भारत मे पाया जाता है। शीत एक घटे तक छाया में सुखाया जाता है। यह रग कच्चा ऋतु मे इसकी पत्तियाँ झड जाती हैं। इसकी लकडी बहुत होता है पर यदि हलदी की जगह अकलवीर मिलाया जाय मुलायम, पर चिमडी होती है और तलवार की म्यान या तो रग पक्का होता है। तस्ते आदि बनाने के काम मे भाती है। पंमार-रज्ञा पुं० [हिं० पँवार ] पवार नाम की क्षत्रिय जाति । दे० 'परमार' । उ०-सपनानुराग वढयो नृपति अरु स्रोतानन पंगला-वि० [ स० पढ्नु + ल ( प्रत्य० ) ] [वि॰ स्त्री० पँगली ] राग भय । पमार मोहि छोरे सलष अनप एन पावू सुलय ।- पगु । लँगडा। पृ० रा०,१२।१३। पंगुला-वि० [म० पङ्गुल] 'पंगुल' । उ०-गूगा हूआ बावरा, पसाखा-मञ्ज्ञा पु० [हि० पनसाखा ] एक प्रकार का मशाल । पाँच वहिरा हूमा कान। पाँयन से पंगुला हुआ, सतगुरु मारा शाखायो का दीपस्तभ या दीपाघार । पनसाखा । उ०-हम वान ।-कबीर सा० स०, पृ०६। खीच खीचकर चरबी पशाखा वालेंगे। -भारतेंदु म० भा० १ पंचकल्यान-सज्ञा पु० [हिं० पचकल्यान ] ० 'पचकल्यान' । उ०- पृ० २६६। पिन्न स दली वीरता, चगर सिराजी हस । पंचकल्यान कुमैत पसाल-अव्य० [सं० पार्च, हिं० पास ] २० 'पास' । उ०- ह्य रोहालिक महिया बस ।-प० रासो, पृ० १३८ । जैसी देह संवारी हसा। तैसी लेहु हमारे पसा।-कबीर पंचकुरी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० पाँच +कूरा ] एक प्रकार की बैटाई सा०, पृ० ५६५ 19२ दे० 'पासा'। जिसमे खेत की उपज के पाँच भागो मे से एक भाग जमीदार पसारी- सञ्चा पु० [स० पण्यशाली ] हलदी, धनिया आदि मसाले लेता है। तथा दवा के लिये जडी बूटी बेचनेवाला बनिया। पंचगोटिया-मज्ञा पुं० [हिं० पाँच + गोटी ] वह खेल जो ५-५ पसासार-मझा पु० [ स० पाशक, हि० पासा +सारि ( = गोटी) ] गोटियो से खेला जाय । पासे का खेल । उ०-अनिरुद्ध जी और राजकन्या निद्रा से पंचमोरिया-वज्ञा पु० [देश०] एक प्रकार का वस्त्र । पचतोलिया। चौंक पसासार खेलने लगे। लल्लू (शब्द०)। उ०-सहज सेत पॅचतोरिया पहिरे अति छवि देत ।--विहारी पंसासारी-सञ्चास्त्री० [म० पाशक, हिं० पासा+सारि( = गोटी)] (शब्द०)। पासे का खेल । उ०-कोउ खेलत कहु पसासारी । खेलत पंचमेल-वि० [हिं० पाँच +मेल] दे० 'पचमेल'। कौतुक की बलभारी।-सबलसिंह (शब्द॰) । पंचमेली-वि० [हिं० पंचमेल] १ पांच चीजो की मेलवाली पंसेरी-सच्चा स्त्री० [हि० पाँच +सेर ] पांच सेर की तौल । (मिठाई आदि) । २ मिश्रित । उ०-पंचमेली भाषा लिखि पखड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पखडी' । जात बरन उन माही।-प्रेमघन०, भा॰ २, पृ०४१६ । पंखिया संज्ञा स्त्री॰ [हि० पख ] १ भूसे या भूसी के महीन टुकडे । पंचरंग-वि० [हिं० पाँच +रंग] १ पांच रग का। उ०-पंचरंग पाँकी । २ पखडी। उ०-देव कडू अपनो बस ना रस लालच सारी मगायो'। बधुजन सब पहरावो।—सूर (शब्द॰) । लाल चितै भइ चेरी। वेगि ही बूडि गई पंखिया अखियाँ २ अनेक रगो का । रगविरग। ३ पाचभौतिक (लाक्ष०)। मधु की मखियां भइ मेरी।- इतिहास, २६६ । उ०-चारु पिछोरी साजि पंचरंग नव चोली है। -द० ग्र०, पंखुड़ा-सज्ञा पु० [सं० पक्ष, हि० पख ] मनुष्य के शरीर मे कधे के पृ० ३८६। पास का वह भाग जहाँ हाथ जुड़ा रहता है। पखोरा । कघे पंचमड़ा-वि० [हिं० पाँच +लड़ ] पाँच लडों का। जैसे, पंच- और बांह का जोड। लहा हार।