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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३७

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पचलड़ी २७४६ पंवार पंचलड़ी-सशा स्त्री० [हिं० पाँच+लढ़ ] गले मे पहनने की पांच राम पंवडा भर लीजै । निर्भर नित प्रानद अगम घर पासण लहों की माला। की।-राम धर्म०, पृ० २४५ । पॅचलरो-सञ्चा बी० [हिं०] दे० 'पंचलही' । पवनारि-सज्ञा स्त्री॰ [स० पद्मनाल] पद्मनाल । कमलदह । उ०- पँचवान-सञ्ज्ञा पु० [म० पञ्चवाण ] राजपूतों की एक जाति । भुज उपमा वनारि न पूजी खीन भई तिहिं चित। -जायसी उ०-पत्ती प्रौ पंचवान वधेले। अगरपार चौहान चंदेले। ग्र० (गुप्त), पृ० १६५। जायसी (शब्द०)। पॅवर'-सज्ञा स्त्री० [हिं०] द० 'पंवरी'। पसर-राज्ञा पुं० [स० पञ्चशर] दे० 'पचशर'। उ०-जव पंवरपुर-सज्ञा पु० [स० प्रभार] सामान । मामग्री। उ०-भसम गग कोउ या तन तनक निहारें। ताकौं निधरक पंचसर मारे।- लोचन अहि डमरू, पचतत्व सूचक अस भौंरू। हर के बस नद० ग्र०, पृ०१२०। पाँचउ यह पंवरू, जिनसे पिंड उरेह । -देवस्वामी (शब्द०)। पंचहरा-वि० [स० पञ्च + स्तर] १ पांच तह या पतं का। पंवरना -क्रि० स० [म० प्लवन] १ तैरना। २ थाह लेना। २ पांच बार का किया हुआ। पता लगाना । उ०—सूकर स्वान सियार सिंह सरप रहहि पचालिका-सञ्ज्ञा सी० [सं० पञ्चालिका] १ नटी। नर्तकी । घट माहिं । कुजर कीरी जीव सब पॅवरहिं जानहिं नाहिं ।- उ०-नाचति मच पंचालिका कर सकलित अपार ।- कवीर (शब्द०)। केशव (शब्द०)। पॅरि-सञ्चा सी० [स० पुर ( = घर ), या पुरस ( = श्रागे )] पंछिराज-सज्ञा पु० [स० पतिराज] दे० 'पक्षिराज'। उ०-अव प्रवेशद्वार या गृह । वह फाटक या घर जिससे होकर किमी कहना कछु नाही, मस्ट भलो छिराज ।-जायसी ग्र० मकान में जायें । ड्योढी। उ०-( क ) पंवरि पँवरि गढ लाग केवारा । श्री राजा सो भई पुकारा ।-जायसी (शब्द०) (गुप्त), पृ० १६८ । (ख) उघरी पंवरि चला सुलताना । —जायसी (शब्द॰) । पॅजड़ी-सज्ञा स्त्री॰ [म० पञ्च, फा० पज] चौसर के एक दाँव का (ग) पंवरिहि पंवरि सिंह लिखि काढ़े।-जायसी (शब्द०)। नाम। पॅजना-फ्रि० क० [सं० पश्रज ( = वृद्ध होना, रुकना)] घातु के पंवरिया-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पावरी, पौरि] १ द्वारपाल । दरवान । बरतन मे टांके आदि द्वारा जोड लगना। झलना। झाल ड्योढ़ीदार । २ पुत्र होने पर या किसी और मगल अवसर पर द्वार पर बैठकर मगलगीत गानेवाला याचक । लगना। पंपरी-सशा स्त्री० [हिं० पौरि] दे० 'पंवरि'। पँजनी@+-सज्ञा स्त्री० [हिं०] 'पैजनी'। उ०-वजनी पंजनी पायलो मन भजनी फुर वाम । रजनी नींद न परति है सजनी पँवरी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० पाव] खडाऊँ । पादत्राण। पांवरी। बिन घनस्याम । -राम० धर्म०, पृ०२३७ । उ०-पायन पहिरि लेहु सव पंवरी। काट न चुभ गई मकरौरी। जायसी (शब्द॰) । पंजरना-क्रि० अ० [स० प्रज्ज्वलन] दे॰ 'पजरना' । पवाड़ा-सञ्ज्ञा पुं॰ [मं० प्रवाद] १ लबी चौडी कथा जिसे सुनते पँजरी-तज्ञा स्त्री० [सं० पञ्जर] १ पसली। पजर। २ अरथी जी ऊवे । कल्पित याख्यान । कहानी। दास्तान । २ वढाई जिसपर जलाने के लिये शव ले जाते हैं। हुई बात । व्यर्थ विस्तार के साथ कही हुई वात । बात का पड़रा-सज्ञा पुं० [?] +० 'पंडवा'। बतषकह । ३ एक प्रकार का गीत जिसमें वश की कीति पॅडरी-सशा स्त्री० [हिं० पड़ना] वह भूमि जो ईख बोने के लिये और शौर्य का वर्णन रहता है। रखी गई हो। उखाँड । पंडुवा। पधार सञ्ज्ञा पुं॰[म० परमार] राजपूतो की एक जाति । दे० 'जाति' । क्रि०प्र०-रखना । छोडना । पंवारना-क्रि० स० [सं० प्रवारण ( = रोकना)] हटाना। दूर करना। पंडा-मचा पु० [२] [स्त्री० पंढरी] दे० 'पॅटवा' । फेंकना। उ०-(क) सावज न होइ भाई सावज न होइ । पडवा-सज्ञा पुं० [२] भैस का बच्चा । बाकी मासु भखै सब कोइ । सावज एक सकल ससारा अवि- पहुवा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० परना] दे० 'पंडरी'। गति वाकी वाता । पेट फारि जो देखिए रे भाई प्राहि करेज पतीजना-फ्रि० स० [म. पिञ्जन (= धुनकी)] रूई से बिनौले न प्रांता। ऐसी वाकी माम रे भाई पल पल मामु विकाई । निकालकर अलग करना । रूई मोटना। पीजना । हाड गोड ले धूर पंवारे पागि घुवां नहिं खाई। कबीर पतीजी-सशा खी० [सं० पिञ्जन (= धुनकी)] रूई धुनने की धुनकी । (शब्द०)। (ख) सुधा मूनाक कठोर पंवारी। वह कोमल उ०-चरख पतीजी चरख चढ़ि ज्यों ढांकत जग सूत ।- तिल कुसुम सँवारी । -जायसी (शब्द॰) । दे० 'पवारना' । वृद (शब्द०)। पॅवार-सज्ञा पुं० [स० प्रवाल] प्रवाल । मूंगा। उ०-देखि पत्यारी-प्रज्ञा स्त्री० [हिं०] पक्ति । श्रेणी । कतार । दशा सुकुमार की युवती सब धाई । तरु तमाल, बूझत फिर पदरोहा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पडोह'। कहि कहि मुरझाई। नंदनदन देखे कहूँ मुरली करघारी। कुडल मुकुट विराज तनु कुडल भारी। लोचन चार विलास नड़ा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'क्वाडा'। उ०-उर विज्ञान जन साथ है नासा अति लोनी। अरुन अधर दशनावली छवि बरवै