पुष्पितामा पुस्त पुष्पितामा-सज्ञा सी० [स०] एक अर्घमम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरण में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दूसरे और चौथे चरण में एक नगण, दो जगण, एक रगण और गुरु होता है। जैसे,-प्रशु सम नहि अन्य कोह दाता । सुधन जु ध्यावत तीन लोक त्राता। सकल असत कामना बिहाई । हरि नित सेवहु मित्त चित्त लाई । पुष्पी-वि० [स० पुदिपन् ] पुष्ययुक्त । जिसमें फूल लगे हो [को०] । पुष्पेपु-सशा पु० [ म०] कामदेव । पुष्पोत्कटा-गशा सी० [ मं०] सुमाली राक्षस की केतुमती भार्या से उत्पन्न चार कन्याप्रो में से एक जो रावण और कुभकर्ण की माता थी। पुष्पोद्गम--संज्ञा पु० [सं०] पुष्प लगना । फूल पाना (को०] । पुष्पोद्यान-शा पुं० [सं०] फुलवारी । पुष्पवाटिका । पुष्पोपजीवी-मज्ञा पुं॰ [ मं० पुप्पोपजीविन् ] माली (को०] । पुष्य-सच्या पुं० [ म०] १. पुष्टि । पोषण । २ फूल या सार वस्तु । ३ अश्विनी, भरणी आदि २७ नक्षत्रो मे से पाठवा नक्षत्र जिसकी आकृति बाण की सी है। सिध्य । तिष्य । ४ पूस का महीना । ५ सूर्यवश का एक राजा । ६ कलिकाल । फलि का युग (को०)। पुष्यनेता-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] वह रात्रि जिसमें बरावर पुष्य नक्षत्र . पुष्यमित्र-सज्ञा पुं० [ स०] मौर्यों के पीछे मगध मे शुग वश का राज्य प्रतिष्ठित करनेवाला एक प्रतापी राजा । विशेप-अशोक से कई पीढियो पीछे प्रतिम मौर्य राजा वृहद्रथ को लडाई में मार पुष्यमित्र मगध के सिंहासन पर बैठा । अपने पुत्र अग्निमित्र को उसने विदिशा का राज्य दिया था। अग्निमित्र का वृत्तात कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक में पाया है। पुष्यमित्र हिंदू धर्म का अनन्य अनुयायी था। इससे बौद्धो की प्रधानता से चिढी हुई प्रजा उसके सिंहासन पर बैठने से बहुत प्रसन्न हुई । वैदिक धर्म और अपने प्रताप की घोषणा के लिये पुण्य मित्र ने पाटलिपुत्र में बड़ा भारी अश्वमेध यज्ञ दिया। लोगों का अनुमान है कि इस यज्ञ में भाष्यकार पतजलि भी पाए थे। ईसा से प्राय दो सौ वर्ष पूर्व पुष्यमित्र मगध मे राज्य करते थे। उसके पीछे उसका पुत्र अग्निमित्र सिंहासन पर बैठा । वि० दे० 'शु ग' ६ । पुष्ययोग-सशा पुं० [सं० ] पुष्य नक्षत्र में चंद्रमा के रहने का समय [को०)। पुप्यरथ-सा पुं० [ म०] फोडा रथ । घुमने, फिरने या उत्सव प्रादि मे निकालने का रथ। (यह रथ युद्ध के फाम का नहीं होता )। पुष्यलक-सज्ञा पु० [सं०] १. कस्तूरी मृग। २ क्षपणक । चंवर लिए रहने वाला जैन साधु । ३ लूटा । फील । पुष्यस्नान-सा पुं० [10] विघ्नशांति के लिये एक स्नान जो ६-४४ पूम के महीने में चंद्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर होता है। विशेप-यह स्नान गजाग्रो के लिये है। कालिकापुराण और बृहत्स हिता मे इस स्नान का पूरा विधान मिलता है। बृहत्स हिता के अनुसार उद्यान, देवमदिर, नदीतट प्रादि किसी रमणीय और स्वच्छ स्थान पर मप बनवाना चाहिए और उसमे राजा को पुरोहितो और अमात्यो के सहित पूजन के लिये जाना चाहिए। पितरो योर देवतायो का यथाविधि पूजन फरके तव गजा पुष्यम्नान करे। जिम कलश के जल से राजा स्नान करनेवाले हो उसमे अनेक प्रकार फे रत्न और मगल द्रव्य पहले से डालकर रखे। पश्चिम भोर की वेदी पर वाघ या सिंह का चमटा विद्याकर उसपर सोने, चाँदी, तांबे या गूलर की लण्डी का पाटा रखा जाय । उसी पर राजा स्नान करे। पुण्या-सच्चा स्त्री० [म० ] पुष्य नक्षत्र (को०] । पुण्यार्क-सक्षा पुं० [सं०] १ ज्योतिष मे एक योग जो कर्क की संक्राति में सूर्य के पुष्प नक्षत्र मे होने पर होता है। यह प्राय श्रावण मे दस दिन के लगभग रहता है । २. रविवार के दिन पडा हुमा पुष्य नक्षत्र । पुस-सशा पु० [अ० पुसी ] प्यार से विल्ली को पुकारने का शब्द । जैसे, आ पुम पुस । पुसकर-सज्ञा पुं० [स०] दे० 'पुष्कर'। पुसकरन-सज्ञा पुं॰ [सं० पुष्कर मारवाडी ब्राह्मणो की एक शाखा। उ०-भारद्वाज गोत्र पुसकरना सेवक जात कहावै ।-पोद्दार अभि ग्र०, पृ० ४२७ ॥ पुसतका-संज्ञा सी० [सं० पुस्तक ] पुस्तक । उ०-पारेवी ज्यू पुसतका, कुकव बाज वस थाप ।-याकी ग्र०, भा०२, पृ०७६। पुसपराग-सया पुं० [हिं०] दे० 'पुष्पराग'। उ०-पुसपराग सम कर लमै नारी रत्नप्रकाश। -व्रजनिधि म०, पु०६६ । पुसाका-सश सी० [हिं० ] ८० 'पोगाक' । उ०-साद खुराका पहिन पुमाका ।-कबीर० श०, पृ० १७ ॥ पुसाना-फि० प्र० [हिं० पोसना] १. पूरा पढना । वन पहना। पटना । २. अच्छा लगना । शोभा देना । उचित जान पडना। उ०-पथिक मापने पच लगी इहो रही न पुसाय । रसनिधि नैन सराय में चस्यो भावतो प्राय । -सनिधि (शब्द०)। पुस्टि-तज्ञा स्त्री० [ म० पुष्टि ] दे॰ 'पुष्टि' (पुष्टिमार्ग) । उ०- पुष्टि म्रजाद भजन, रस मेवा, निज जन पोपन भरन । -नंद० न०, पृ० ३२६ । पुस्त'-सपा पुं॰ [ स०] १ गीली मिट्टी, लकडी, कपडे, घमटे, लोहे, या रत्नो प्रादि से गढ, फाट या छीन दाल- कर बनाई जानेवाली वस्तु। मामान । २ नावट । यारी- गरी । ३ [ग्पी० पुम्नी] पोयी । पुन्नक : वितार । हस्तलेन । पुस्त'-3 मी॰ [फा० पुश्त ] दे॰ 'पुस्त' ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३६०
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