पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३६१

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पुस्तक २०७० पुस्तक-सज्ञा पी० [स०] पोथी । किताब । ग्रंथ । हस्तलेख। पुहर+- सज्ञा पुं॰ [म० प्रहर, हिं० पहर] दे० 'पहर'। उ.-(क) पुस्तकर्म--सज्ञा पुं० [स० पुस्तकर्मन ] १ पलस्तर करने का काम । पुहर पुहर प्रति जागसु इण हर सेवस्य प्रापण नाह।- २ रंगने का काम को०)। बी० रासो, पृ० ४२ । (ख) श्रीजइ पुहरि उलांघियर मास्वता. रठ घट्ट । ढोला०, दू० ४२४ । पुस्तकाकार-वि० [ स०] पोथी के रूप का। पुस्तक के प्राकार का । पुहरा+-सज्ञा पु० [हिं०] दे० 'पहरा' । उ०-दुख सहणा, पुहरा पुस्तकागार-सज्ञा पु [ स० पुस्तक+श्रागार ] पुस्तको का स्थान । दियण, कत दिसाउरि जाइ।-ढोला०, ६० पृ० २३१ । पुस्तकालय । पुहवि-सशा सी० [सं० पृथिवी, प्रा० पुहुन्वि ] दे० 'पृथ्वी'। पुस्तकालय-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] वह भवन या घर जिसमे पुस्तको का उ०-(क) के पति आप्रोव एह परमान, चपके कएल पुहवि संग्रह हो। वह घर जहाँ भनेक विषयो की पोथियाँ इकट्ठी निरमान । -विद्यापति, पृ० २५ । (ख) अन धन प्रवाह वह करके रखी गई हो। पुहवि परि वरप्पी जेम पुरद गति ।-पृ० रा०, ११४७२ । पुस्तकालयाध्यक्ष-सज्ञा पुं॰ [ स० पुस्तकालय + अध्यक्ष ] पुस्तकालय पुहवोपति -सशा पु० [म० पृथ्वीपति ] राजा । बादशाह । उ०- का प्रधान अधिकारी। पुहवीपनि मुरुनान प्रो तुम्हे रायकुमार ।-कीति०, पुस्तकास्तरण-सज्ञा पुं॰ [स०] हस्तलेख का वेष्ठन । पुस्तक का पृ० ६४॥ बेठन [को०] । पुहवै-सग पुं० [सं० पृथ्वीपति, प्रा० पुह + वे] पृथ्वीपति । राजा। । पुरतकी-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] पोथी । पुस्तक । पुहाना -क्रि० स० [हिं० पोहना का प्रेरूप] पिरोने का काम पुरतकीय-वि० [सं० पुस्तक+ईय (प्रत्य॰)] पुस्तक सबधी । पुस्तक कराना । ग्रथित कराना । गुथवाना। का । जैसे, पुस्तकीय ज्ञान । पुहुप-सज्ञा पुं॰ [ ग० पुप्प ] फूल । उ०-अक्षत पुहुप ले विप्र पुस्तवात-सज्ञा पुं० [सं०] जिसकी जीविका पुस्तको पर निर्भर हो। भुलाई ।-कवीर सा०, पृ० १६१ । पुस्तकें बनाकर जीविका कमानेवाला [को०] । पुहुपराग-मश पुं० [हिं० ] दे० 'पुष्पराग'। पुस्तशिवी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म० पुरतशिम्पी] एक प्रकार की सेम । पुहुपित-च० [सं० पुष्पित, या हिं० पुहुप + इत ] दे० 'पुष्पित' । पुस्तिका-सज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी पुस्तक । उ०-पुहुपित पेखि पलास बन, तब पलास तन होइ। भव पुस्ती'-सज्ञा स्त्री० [मं०] पोथी । पुस्तक । किताव । मधुमास पलास भो, सुचि जवास सम सोइ ।-स० सप्तक, पुस्ती-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा० पृरताह का स्त्री० या फा० पुश्ती ( = टेक, पृ० २३६ । श्राश्रय ) ] दे० 'पुश्ती' । उ०-उनकी जिंदगी की रेलगाडी पुहुमि, पुहुमीg-भज्ञा स्त्री॰ [ सं० भूमि या पृथिवी, प्रा. पुहुवी ] पूरी रफ्तार से दौडकर समाज के विश्वास और निश्चय की पृथ्वी । भूमि । उ०—(क) लक पुमि प्रस माहि न काहूँ।- मजबूत पुस्तियो से टकराकर चूर चूर हो जाती है। -अभि जायसी ग्र० ( गुप्त), पृ० १६७ । ( ख ) जोधा पागे उलटि शप्त, पृ०७६ । पुलटि यह पृहमी करते ।-धरम० श०, पृ०८४। पुहकर-सज्ञा पु० [ सं० पुष्फर, प्रा० पुहकर ] दे॰ 'पुष्कर'। । यौ०-पुहुमीपति = पृथिवीपति । राजा। पुहकरमूल-सशा पु० [ स० पुष्करमूल ] दे० 'पुष्करमूल' । पुहुरेनु -सज्ञा पुं० [ सं० पुप्परेणु ] फूल की धूल । पराग । पुहंचावना- क्रि० स० [ हिं० ] दे० 'पहुँचाना' । उ०-चल्यो पुहुवी-सशा स्त्री० [ स० पृथिवी ] भूमि । पृथ्वी । व्याहि संभरिधनी मगन भए निहाल । पुहचावन धन संग भए, नृप गुन चर्वे रसाल ।-पृ० रा०, १४ । १२८ । पूँगना-क्रि० प्र० [हिं० पूजना ] पूरा होना। पूजना । ३०- नव दिन पूंगा नउरता बलि वाकुल पूजा रचौ ठाई ।-वी. पुहत्तना-क्रि० अ० [ स० प्र०+भू, प्रा० पहुच्च (वि० पहुत्त)] रासो, पृ० ५०। द० 'पहुंचना'। उ०-ढोलइ दातण फाडता, आई पुहत्तउ पूंगरण- कौर ।- ढोला०, दू० ४०० । -सशा पुं० [ स० पुग (= राशि या. समूह) ] सामान्य वस्त्र । कपडा । (हिं०)। पुहना-मि० अ० [हिं० पोहना ] गुथना । उ०—झालरो मे मजु पूंगरा-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'पोगड' । उ०—कबीर पूगरा मुक्ता है चुहे, मांग मे जिस भांति जाते हैं गुहे।-साकेत, राम अलह का सव गुरु पीर हमारे ।-कवीर प्र०, पृ०१६ । पृ० २६७। पुहप--सज्ञः पुं० [सं० पुष्प] पुष्प । फूल । उ०-सुरपुर सब हरपे, पूंगा'-सचा ५० [ देश० ] वह कीडा जो सीप के भीतर होता है । पुहपनि वरपे दुंदुभि दीह बजाए ।-केशव (शब्द०)। सीप का कीडा। पुहप्पल-सज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ पुष्प' । उ०-सुदेव जय जय नपि पूँगा-सया स्त्री० [हिं० पोंगी ( = छोटा चोगा) ] संपेरो का पुहप्प। -पृ० रा०,१२।३३४ । वाजा। महुवर। पुहमि-सञ्ज्ञा स्त्री० [ हिं० ] दे० 'पुहमी' । उ०–दल न समात पूँछ–सञ्चा रखी० [ सं० पुच्छ ] १. मनुष्य से भिन्न प्राणियों के शरीर पुहमि सब हेरिव ।-ह. रासो, पृ०७४ । का वह गावदुमा भाग जो गुदा मागं के ऊपर रीढ़ की हड्डी