पूर्णबीज ६०८१ पूर्णात्मावसान इस दशन के अनुसार यह निखिल जगत् प्रनत समुद्रशायी पूर्णयोग-सज्ञा पुं॰ [ म० ] वाहुयुद्ध का एक मेद । भगवान् विष्णु से उत्पन्न हुपा है। चित् और अचित् सपूर्ण विशेष-महाभारत के अनुसार भीम और जरासध मे यही पदार्थ उनके शारीररूप हैं । पुरुषोत्तम, वासुदेवादि बाहयुद्ध हुआ था। उनकी संज्ञाएं हैं। उपासको को यथोचित फल देने के पूर्णरथ-सज्ञा पुं॰ [स०] पूरा वीर । पूर्ण योद्धा [को०] । लिये लीलावश वे पांच प्रकार की मूर्तियां धारण पूर्णलक्ष्मीक-वि० [सं०] श्री और स पत्ति से सपन्न [को॰] । करते हैं। प्रथम अर्च अर्थात् प्रतिमादि, द्वितीय पूर्णवर्मा-सञ्ज्ञा पु० [ स० पूर्णवर्मन् ] मगध का एक बौद्ध राजा जो विभव अर्थात् रामादि अवतार, तृतीय वासुदेव, सवर्षण, प्रद्युम्न सम्राट अशोक के वश में अतिम था। पौर अनिरुद्ध ये चार सज्ञाकात व्यूह, चतुर्थ सूक्ष्म और सपूर्ण विशेष-गौडराज शशाक ने बोधिगया के जिस बोधिवृक्ष को वासुदेव नामक परब्रह्म, पचम तर्यामी सकल जीवो के नियता नष्ट कर दिया था उसे इसने फिर से स जीवित किया । हन- उपासक क्रम से पूर्व मूर्ति की उपासना द्वारा पापक्षय करके सांग के भ्रमणवृत्तात से ज्ञात होता है कि उसके आगमन के परमूर्ति की उपासना का अधिकारी होता है । अभिगमन, पहले ही यह सिंहासन पर बैठ चुका था। उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग नाम से भगवान की पूर्णवर्ष-वि० [सं०] पूरे बीस वष की प्रायु का [को०। उपासना के भी पांच प्रकार हैं। देवमदिर का मार्जन, पूर्णविराम-पज्ञा ० [सं०] लिपिप्रणाली में वह चिह्न जो वाक्य अनुलेपन प्रादि अभिगमन हैं, गध पुष्पादि पूजा के उपकरणो के पूर्ण हो जाने पर लगाया जाता है। वाचक के लिये सबसे का प्रायोजन उपादान, पूजा ज्या, अर्थानुसधान के सहित वडे विराम या ठहराव का चिह्न या सकेत । मत्रजप, स्तोत्रपाठ, नामकीर्तन पोर तत्व प्रतिपादक शास्त्रो विशेष-अगरेजी पादि अधिकाश लिपियो में, और उन्हीं के का अभ्यास स्वाध्याय, और देवता का अनुसघान योग है। अनुकरण पर मराठी आदि में भी, यह चिह्न एक बिंदु .., इन उपासनाओं के द्वारा ज्ञानलाभ होने पर भगवान् उपासक के रूप में होता हैं, परतु नागरी, बैंगला आदि मे इसके लिये को नित्यपद प्रदान करते हैं । इस पद को प्राप्त होने पर भग- खही पाई ।' का व्यवहार होता है। वान् का यथार्थ रूप में ज्ञान होता है और फिर जन्म नहीं लेना पडता । पूर्णप्रज्ञ के मत से भगवान विष्णु की सेवा तीन पूर्णविषम-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] ताल ( सगीत ) मे एक स्थान जो कभी कभी सम का काम देना है। प्रकार को है अ कन, नामकरण और भजन । गरम लोहे से दागकर शरीर पर शख, चक्र आदि के चिह्न उत्पन्न करना पूर्णवैनाशिक-सज्ञा पु० [ स० ] सर्वशून्यवाद को माननेवाला। सर्वशून्यवाद सिद्धात को माननेवाला बौद्ध (को०] । मंकन है; पुत्र पौत्रादि के केशव नारायण प्रादि नाम रखना नामकरण । भजन के कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से पूर्णशैज-सज्ञा पुं० [स०] एक पर्वत जिसका उल्लेख योगिनी तीन प्रकार हैं। फिर इनफे भी कई कई भेद हैं,-कायिक के तत्र में है। दान, परित्राण और परिरक्षण, वाचिक के सत्य, हित, प्रिय पूर्णश्री–वि० [स०] श्रीसपन्न । सौभाग्ययुक्त [को॰] । और स्वाध्याय, और मानसिक के दया, स्पृहा और श्रद्धा । पूर्णहोम–सशा पुं० [०] पूर्णाहुति । पूर्णबीज-सज्ञा पुं० [ सं० ] विजौरा नीवू । पूर्णांक -संज्ञा पुं० [स० पूर्णाङ्क] १ पूर्ण स ख्या। २ गणित की पूर्णभद्र-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] एक नाग जिसका उल्लेख महाभारत में है । वह संख्या जो विभक्त न हो सके। ३ प्रश्नपत्र मे निर्धारित पूर्णमा-सञ्ज्ञा स्त्री० [म०] पूर्णिमा । पूर्णमासी । पूरे प्रक को पूर्णमानस-वि० [स०] सतुष्ट । परितुष्ट (को॰] । पूर्णागद-सज्ञा पुं० [सं० पूर्णाङ्गद ] महाभारत में उल्लिखित पूर्णमास'-सचा स्त्री॰ [ म० पूर्णमास् ] १ पूणिमा। २ सूर्य । एक नाग। ३. चद्रमा। पूर्णाजलि-वि० [सं० पूर्णाञ्जलि ] अ जुलि भर । जितना अंजुली पूर्णमास-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ प्राचीन काल का एक योग जो में भा सके। पूर्णिमा को किया जाता था। पौर्णमास योग। २ धाता का पूर्णा-वज्ञा स्त्री० [सं०] १ पचमी, दशमी, अमावस, और पूर्णिमासी एक पुत्र जो उसकी अनुमति नाम की स्त्री से उत्पन्न हुआ था। की तिथियाँ। २. चद्रमा की पद्रवी कला या लेखा (को०)। पूर्णमासी-सच्चा स्त्री० [सं०] चद्रमास की प्रतिम तिथि । शुक्लपक्ष ३'दक्षिण भारत की एक नदी। का प्रतिम या पद्रहवां दिन । वह तिथि जिसमें चद्रमा अपनी पूर्णाघात-सशा पुं० [स०] ताल (संगीत) में वह स्थान जो अनाघात सारी कलाओं से पूर्ण होता है। पूर्णिमा । के उपरात एक मात्रा के बाद प्राता है। कभी कभी यह पूर्णमुख-सञ्ज्ञा पु० [स० ] एक नाग जो जनमेजय के सर्पसत्र में स्थान भी सम का काम देता है। पूर्णात्मावसान-सशा पुं० [ स० पूर्ण+पारमा+अवसान] प्रात्मा पूर्णमैत्रायनीपुत्र-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध भगवान के अनुचरों मे से एफ का पूर्ण उत्सर्ग । प्रात्मा का पूर्ण विलीनीकरण । उ०-कला- विशेष-ये पश्चिम भारत के सुरपाक नामक स्थान मे रहते थे। कार की प्रगति निरतर आत्मोत्सर्ग अथवा पूर्णात्मावसान में सूत्र का मभ्यास करनेवाले बौद्ध इनकी उपासना करते थे। ही है।-पा० सा०सि०, पृ०५६ । जखाया गया था।
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