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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३८३

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पेंशनर ३०१२ पेखन कुदरू पेंशनर-सा पुं० [०] दे० 'पेन्शनर'। पैड की-सज्ञा स्त्री० [हिं० पिराक ] पिराक या गुझिया नाम का पेंस-ज्ञा पुं० [अ० ] एक अ ग्रेजी सिक्का। पेनी। पक्वान्न । दे० 'गुझिया'। पेंसिल-सच्चा स्त्री [अ० ] दे० 'पेनसिल' । पैडुली-तज्ञा स्त्री० [ स० पिण्डिला ] ककडी । पिडिला । 4-सज्ञा पु० [ अनु० ] पें पे का शब्द, जो रोने, बाजा फुकने पैदरा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पेंदा या पेड ] पेड़ । घादि से निकलता है। पैदा-सज्ञा पुं॰ [सं० पिण्ड ] [ स्त्री० अत्पा० पेंदी ] किसी वस्तु का निचला भाग जिसके आधार पर वह ठहरती या रखी पर-सव्य० [हिं०] दे० 'पै'। उ०-- निमित्त गिरद्वीप तरु पुष्कर मुख हरि सार ।-नद० ग्र०, पृ०६८। जाती हो। विल्कुल निचला भाग । जैसे, लोटे का पेदा । पैग-सज्जा स्त्री० [हि० पटेंग, पट ( = पटड़ा )+वेग अथवा स० जहाज का पेंदा। प्लवङ्ग ] हिंडोले या झूले का झूलते समय एक भोर से दूसरी मुहा०-पेंदे के बल वेठना = (१) चूतद देकर बैठना। पलयी मारकर बैठना । ( व्यग्य )। (२) हार मानना। दवना । ओर को जाना। मुहा०-पेंग मारना = झूले पर झूलते समय उसपर इस प्रकार पेंदे का हलका = जिसका विकास न किया जा सके। प्रोडा । जोर पहुँचाना जिसमें उसका वेग बढ़ जाय और दोनो मोर पैदी-सज्ञा स्त्री० [हिं० पेंदा ] १ किसी वस्तु का निचला भाग। वह दूर तक झूले। उ०-भोजाइन बैठाय पेंग मारत मुहा०-वे पेंदी का लोटा=अस्थिर व्यक्ति । ढुलमुल नीति का देवर गन । -प्रेमधन०, भा० १, पृ० १०। पेंग बढ़ाना या व्यक्ति । ऐसा व्यक्ति जो कभी एक पक्ष का अनुयायी हो, चढ़ाना= दे० 'पेंग मारना' । पेंग वदना =जोर वढना । कभी दूसरे का। अधिकता होना । उ०—अब सुनिए कि नशेवाजी के पेंग २ गुदा । गांड । ३. तोप या बंदूक की कोठी । ४ गाजर या वढे पहले तो सिर्फ एक कोठी से लेन देन शुरू हुआ। मूली ग्रादि की जड। -फिसाना०, भा० ३, पृ० १५३ । पैना-वि० [हिं० ] दे० पैना' । उ०-भोकुटिल कमान सी सर पग-सशा पु० [देश॰] एक प्रकार का पक्षी । से पेंने नेन । -पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ४२५ । पंगिया मैना-सञ्ज्ञा स्त्री० [हि० पेंग+मैना ] एक प्रकार की मैना पैदृटुला-सञ्ज्ञा पु० [हिं० पेठा या पिण्डिला ( = ककरी ) ]१ ( पक्षी ) जिसे सतभैया भी कहते हैं । दे० 'सतभइया' । कघरी या पेठा नामक लता । २. इस लता का फल जो घट-सज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार का पक्षी जिसका शरीर मट के आकार का होता है और जिसकी तरकारी तथा कचरी मैले रग का, प्राँसे लाल और चोंच सफेद होती है। वनती है। विशेष—दे० 'कचरी'। पैधा-सपा पुं० [ देश० ] दे० 'पेंघट'। पे-सज्ञा स्त्री० [अ०] तनखाह । वेतन । महीना । जैसे,—इस पंच-सज्ञा पुं॰ [फा० पेच ] चालबाजी । चक्कर । दे० 'पंच' उ.- महीने की पे तुम्हें मिल गई। सावधान हो पेंच न खैयो रहियो आप संभारी।-चरण. क्रि० प्र०-देना ।-मिलना ।-लेना । घानी०, पृ०६७ । पेभान-सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रयाण, प्रा. पयाण ] दे० 'प्रयाण' । पंचक-सज्ञा पु. [ स० पेचक ] दे० 'पंचक' । उ०-ब्रह्मलोक ब्रह्म असथाना। तहाँ काल फिरि रे पंचकश-सञ्ज्ञा पुं॰ [ फा० पेचकश ] दे० 'पेचकश' । पेयाना।-स० दरिया, पृ०४ । पंच का घाट-सञ्ज्ञा पुं० [हि० पेंच + घाट ] जहाजो के ठहरने का पेठा-सचा पुं० [सं० पीयूप ] दे० 'पैउसी' । पक्का घाट । (लश०)। पेउसा-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पीयूप, पेऊस ] दे० 'पेउसी' । पैजनी-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'पैजनी'। पेउसरी-सशा स्त्री० [सं० पीयूप, प्रा० पेऊस ] दे० 'पेउसी' । पेठ-सज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'पैठ'। पेउसी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पीयूप, प्रा० पेऊस+ई (प्रत्य॰)] पैड़-तज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का सारस पक्षी जिसकी चोच १ व्याई हुई गाय या भैस का पहले दिन का अथवा पहले पीली होती है। सात दिन का दूध जो बहुत गाढा और कुछ पीले रंग का पड़र-सचा पु० [म. पिण्ड ] १ दे० 'पेड' । उ०-हलत पेंड होता है । यह दूध पीने के योग्य नहीं होता। इसे तेली भी रच्चयो अरुन्न नील कच्चयो।-पृ० रा०,२५.१३३। २. दे० कहते हैं । २ एक प्रकार का पकवान जो उक्त दूध मै सोठ 'पॅड' । उ०-नसिप्प मोर कथ्थि थोर कालकोर कलकरी। और पाकर आदि डालकर पकाया और जमाया जाता प्राहुट्ठ पेड मोम पड, छोडि छड उरवरी।-पृ० रा०, है । यह स्वादिष्ट और पुष्टिकर होता है । इदर । इन्नर । २।२२४ । पेखक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रेषक, 'प्रा० पेक्खक ] देखनेवाला । पड़ना-क्रि० स० [ देश० ] दे० 'वेडना' । दर्शक । उ०-व्योम विभाजन विबुध बिलोकत खेलक पेखक पेंड की-सज्ञा स्त्री० [सं० पण्डक ] १ पडुक पक्षी । फाखता । २ छांह छए।—तुलसी (शब्द०)। सुनारो का वह पौजार जिससे फूककर वे आग सुलगाते हैं । पेस्खन-सञ्ज्ञा पुं० [ स० प्रेक्षण, प्रा० पेक्खण, पु० हिं० पेखण] फॅकनी। १. देखने की किया। प्रेक्षण। २. वह जो कुछ देखा जाय ।