पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पेखना ३०४३ पेचकश तमाशा । दृश्य । उ०-जगु पेखन तुम देखनिहारे। विधि परिवर्तन करने की शक्ति होना। प्रवृत्ति मादि वदलने का हरि शंभु नचावनि हारे ।-मानस, २११२७ । सामर्थ्य होना। पेखना-क्रि० स० [ स० प्रक्षण, प्रा० पेक्खण ] देखना । ८ वह कोल या काटा जिसके नुकोले प्राधे भाग पर चक्करदार गहारियाँ बनी होती है और जो ठोककर नहीं बल्कि घुमाकर अवलोकन करना। उ०-धमकण सहित श्याम तनु देखे। जहा जाता है । स्कू। कहें दुख समउ प्राणपति पेखे ।-तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०-कसना |-खोलना ।-जड़ना।-निकालना। पेखना-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० प्रेक्षण ] १ वह जो कुछ देखा जाय । ६ पतग लड़ने के समय दो या अधिक पतगो के डोर का एक दृश्य । उ०-रगभूमि पाएँ दसरथ के किसोर हैं। पेखनो सो पेखन चले हैं पुर नर नारि बारे बूढे अध पंगु करत दूसरे में फंस जाना। क्रि० प्र०-डालना। निहोर हैं।-तुलसी ग्र०, पृ० ३०६ । २ देखने का भाव । प्रेक्षण । उ०-सखि सबको मन हरि लेति, ऐन मैन मनो मुहा०-पेच काटना= दूसरे की गुड्डी या पतंग की डोर में पेखनो। नद० ग्रं०, पृ० ३८५ । अपनी डोर फंसाकर उसकी डोर काटना । गुड्डी या पतंग पेगबरी-सञ्ज्ञा पुं० [स० पैगामयर, पैग़बर ] दे० 'पंगवर ।' उ.- काटना। पेच लड़ाना = दूसरे की पतंग काटने के लिये उसकी डोर में अपनी डोर फंसाना । पेच छुटाना=दो पतंगों जाप का पेगंबर प्राप का दरियाव । ताप का सेस ज्वाल की फंसी हुई डोर का अलग अलग हो जाना। दाप का कुरराव |--रा० रू०, पृ० ६७ । १० कुश्ती में वह विशेष क्रिया या घात जिससे प्रतिद्वंद्वी पछाडा पेग-सञ्ज्ञा पुं० [अ० ] उतनी शराब जितनी एक बार मे सोडावाटर जाय । कुश्ती में दूसरे को पछाडने की युक्ति । उ०-इक डालकर पीते हैं। शराब का गिलास । शराब का प्याला । एक पुहमि पछार देत उछारि पुनि उठि पाय । रह सावधान जैसे-एक प्रोर साहब लोग बैठे हुए पेग पर पेग उडा बखान करि पूनि गॅसन पेच लगाया।-रघुराज (शब्द॰) । रहे थे। कि० प्र०-चलना।-मारना ।—लगाना । पेगर-सज्ञा श्री० [हिं० पेंग ] दे० 'पंग' । उ०-लेत खरी पेगें छवि ११ युक्ति । तरकीव । छाजे उसकन मैं । -भारतेंदु ग्र०, भा० १, पृ० ३६० । क्रि० प्र०-निकालना। पेच-सञ्ज्ञा पुं० [फा०] १ घुमाव । फिराव । लपेट । फेर । चक्कर । १२. तवले के किसी परन या ताल के बोल में से कोई एक २ उलझन | मझट । बखेडा। कठिनता। उ०—कागज टुकड़ा निकालकर उसके स्थान पर ठीक उतना ही बहा दूसरा करम करतूति के उठाय धरे पचि पचि पेच मे परे हैं प्रेतनाह कोई टुकडा लगा देना। अव ।-पद्माकर.(शब्द०)। कि० प्र०-लगाना। क्रि० प्र०-डालना। पढ़ना। १३. एक प्रकार का आभूषण जो टोपी या पगडी में सामने की विशेष-उक्त दोनों अर्थों में कही कही लोग इसको स्त्रीलिंग ओर खोसा या लगाया जाता है। सिरपेच। १४ सिरपेच भी बोलते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक स्थान पर की तरह का एक प्रकार का प्राभूषण जो कानो में पहना इसका व्यवहार स्त्रीलिंग में ही किया है। यथा-सोचत जाता है । गोशपेच । उ०-गोशपेच कुडल कलेंगी सिरपेच जनक पोच पेच परि गई है ।-तुलसी ग्र०, पृ० ३१३ । पेच पेचन ते बचि बिन बेंचे वारि पायो है।-पनाकर ३ चालाकी । चालबाजी । धूर्तता । (शब्द०)। १५ पेचिश । पेट का मरोड । दे० 'पचिश'। क्रि० प्र०-पड़ना ।-चलना । कि० प्र०-उठना। पढ़ना । ४. पगडी का फेरा । पगडी की लपेट । १६. दे० 'पेचताब'। क्रि० प्र०-कसना-बाँधना-देना । पेचक-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा०] १. वटे हुए तागे को गोलो या गुच्छी। ५ किसी प्रकार को कल । यत्र । मशीन । जैसे, रूई का पेच । २ वटा तथा लपेटा हुआ महीन तागा जिससे कपडे सीते हैं। ६ यत्र का कोई विशेष प्रग जिसके सहारे कोई विशेष पेचकर-सञ्ज्ञा पुं० [स०] [ग्नी० पेचिका ] १ उल्लू पक्षी । २ फार्य होता हो। मशीन का पुरजा । ७ यत्र का वह विशेष जू । ३. बादल । ४ पलंग। चारपाई। ५ हाथी की पूछ अग जिसको दबाने, घुमाने या हिलाने प्रादि से वह यत्र की जह । ६ सडक पर का विश्रामालय (को॰) । अथवा उसका कोई भश चलता या रुकता हो । पेचकश-सज्ञा पुं० [फा०] १ बढ़इयो मौर लोहारो मादि का क्रि० प्र०-घुमाना।-चलाना ।-दबाना । वह प्रौजार जिससे वे लोग पेच (स्क्रू) जयते पयवा मुहा०-पेच घुमाना = ऐसी युक्ति करना जिससे किसी के विचार निकालते हैं। या कार्य प्रादि का रुख बदल जाय । तरकीव से किसी का विशेष—यह पागे से चपटा और कुछ मुकीमा लोहा होता है मन फेरना । पेच हाथ में होना = किसी के विचारो को जिसके पिछले भाग में पकडने के लिये दस्ता जड़ा रहता है। ६-४७