पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३८५

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रेट' 1 पेचकी २०६४ २ लोहे का बना हुआ वह घुमावदार पेच जिसकी सहायता से पेचु,पेचुक-तज्ञा पुं० [सं०] एक शाक [फो०] । वोतल का काग निकाला जाता है। पेचुलो-सञ्चा जी० [सं०] एक प्रकार का शाक । विशेप-इसे पहले घुमाते दुए काग में फंसाते हैं मोर जब यह पेज'सगा स्त्री० [सं० पेय ] रवढी । वसौंधी। कुछ अदर चला जाता है तब ऊपर की ओर खीचते हैं जिससे पेज---स.मा पु० [अ०] १ पुस्तक का पृष्ठ । वरक । सफहा । पन्ना । काग बोतल के बाहर निकल भाता है। २ सेवक । पनुचर। विशेषकर बाल अनुचर जो किसी पद पेचको-सज्ञा पुं० [सं० पेचकिन् ] हाथी को०] । मर्यादावाले या ऐश्वर्यशाली व्यक्ति की सेवा में रहता है। पेचताब-सज्ञा पुं० [फा०] वह क्रोध जो विवशता आदि के कारण जैसे,-दिल्ली दरवार के अवसर पर दो देशी नरेशों के पुत्रों प्रकट न किया जाय । वह गुस्सा जो मन ही मन में रह को महाराज जार्ज के पेज' बनने का समान प्रदान किया जाय और निकाला न जा सके। गया था जो महाराज का जामा पीछे से उठाए हुए चलते थे। क्रि० प्र०-खाना। ३ वह वालक या युवा व्यक्ति जो किसी व्यवस्थापिका पेचदार'-वि० [फा०] १ जिसमें कोई पेच लगा हो। जिसमें परिषद्को अधिवेशन में सदस्यो और अधिकारियो की सेवा कोई कल लगी हो । पेचवाला। २ जिसमें कोई उलझाव मे रहता है। हो । उलझाववाला। कठिन । दे० 'पेचीला'। पेज-संशा प्री० [० प्रतिमा, प्रतिज्ञा, प्रा० पइज्जा, अप० पइज्ज, पेचदार-सज्ञा पुं० एक प्रकार का कसीदे का काम जिसमें काढ़ते हिं० पैज ] पंज। प्रतिज्ञा। उ०-बल को भीम, पेज को समय फदे लगाए जाते हैं। परशुराम, चाचा को युधिष्ठिर तेज प्रताप को। भान । -प्रवरी०. पृ० १०६ । पेचना-क्रि० स० [फा० पेच ] दो चीजो के बीच में उसी पेट'-सा पुं० [सं० पेट ( = थैला)] १ शरीर मे थैले के प्राकार प्रकार की एक तीसरी पीज इस प्रकार घुसेड देना जिससे का वह भाग जिसमे पहुंचकर भोजन पचता है । उदर । साधारणत वह दिखाई न पड़े। इस प्रकार लगाना जिसमें विशेप-बहुत ही निम्न कोटि के जीवो मे गले के नीचे का प्राय पता न लगे। पेचनी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० पेच ] चिकन या फामदानी के काम मे सारा भाग पेट का ही काम देता है । कुछ जीव ऐसे भी होते हैं जिनमें किसी प्रार की पाचन क्रिया होती ही नहीं मौर एक सीधी लकीर पर काढा हुआ कसीदा। इसलिये उनमे पेट भी नहीं होता। पर उच्च कोटि के जीवो पेचपाच-सज्ञा पुं० [फा० पेच + अनु० पाच ] दे० 'पेच'। उ०- के शरीर के प्राय मध्य भाग में थैले के आकार का एक छोड दे पेचपाच की पादत । बीच का खीचतान कर दे कम । विशेष मग होता है जिसमे पाचन रस बनता मोर भोजन -चुभते०, पृ० ३४। पचता है। मनुष्यो और चौपायो आदि मे यह अग पसलियों पेचवा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] पगडी यादि की लपेट पर का एक के नीचे और जननेंद्रिय से कुछ कपर तक रहता है। पाचक घाभूपण । पेच । उ०—कर साफ अतर से मुखडे पर, वेतरह रस बनाने और भोजन पचानेवाले सब मग, जैसे, भामाशय, पेचवा डाली है ।-पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ३६३ । पक्वाशय, जिगर, तिल्ली, गुरदे प्रादि इसी के प्रतर्गत रहते पेचवान-सज्ञा पुं॰ [फा०] १ वही सटक जो फर्शी या गुहगुडी में हैं। इसी के नीचे का भाग कटोरे के साकार का होता है लगाई जाती है । २. वडा हुक्का। जिसमें प्रांत और मूत्राशय रहता है । कुछ जीवो, जैसे पक्षियो पेचा-सञ्चा पु० [सं० पेचक ] [ स्त्री० पेची ] उल्लू पक्षी । मादि, में एक के बदले दो पेट होता है। पेचिका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म०] उल्लू पक्षी की मादा। मुहा०-पेट थाना = दस्त पाना । ( क्व. )। पेट का कुत्ता पेचिल-सज्ञा पुं० [सं०] हाथी (को०] । जो केवल भोजन के लालच से सब काम करता हो। केवल पेचिश-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] १ पेट की वह पीड़ा जो प्राव होने के पेट के लिये सब कुछ करनेवाला। पेट कटना खाने को कारण होती है । मरोड । २ भाव के कारण ऐंठन होने से कम मिलना। भूखे पेट रहना । उ.-पेट कटता देख जव रो वार बार पाखाना जाने का रोग (को०)। पोटफर । लोग पीटा ही करेंगे छातियो ।-चुभते० पृ० ३६ । पेट काटना= बचाने के लिये कम खाना । जान बूझकर कम पेचीदगी-सञ्चा स्त्री॰ [फा०] १ पेचीला होने का भाव । घुमाय दार होने का भाव । २ उलझाव । खाना जिसमें कुछ वचत हो जाय । पेट का घधा = (१) भोजन बनाने का प्रबंध। रसोई बनाने का झझट । (२) पेचीदा-वि० [ फा० पेचीदह ] १ जिसमें बहुत कुछ पेच हो। रोजी रोजगार हूँढने का प्रबंध । जीविका का उपाय । (३) पेचदार । २. जो टेढ़ा मेढ़ा और कठिन हो । उलझावदार । हलका कामकाज । मेहनत मजदूरी। पेट का पानी न मुश्किल । ३ लिपटा हुआ (को०)। पचना- रहा न जाना। रह न सकना । जैसे,—विना सब पेचीला-वि० [हिं० पेच+ ईक्षा (प्रत्य॰)] १ जिसमें बहुत पेच हाल कहे तुम्हारे पेट का पानी न पचेगा। पेट का पानी हो। घुमाव फिराववाला। २. जो टेढा मेढा और कठिन हिलना = परिश्रम होना । मिहनत पड़ना। उ०-हिल गए हो । उलझावदार। मुश्किल । दिल भी न हिलना चाहिए। जायें हिल क्यो पेट का पानी