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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४२४

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प्रकोर्णफेशी प्रकृति फुटकर पाप । ६ फुटकल सग्रह । ७ तुरगम । पश्व । घोडा (को०)। ८ घोडो के सिर पर लगनेवाली कलगी (को॰) । प्रकीर्णकेशी-सञ्चा पी० [सं०] दुर्गा । प्रकीर्तन-सञ्चा पुं० [ स०] १ जोर जोर से कीर्तन करना। २ यश गान करना । ३ घोषणा करना। प्रकीर्तना-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] नाम निर्देश करना। नामलेना । उल्लेख करना [को०] । प्रकीर्ति-सचा स्त्री० [स० प्रकीर्ति ] १ घोषणा । २ प्रसिद्धि । ख्याति । . मिजाज। जैसे,—वह बडी खोटी प्रकृति का मनुष्य है जगत् का मूल बीज। वह मूल पाक्ति अनेक रूपात्मक । जिसका विकास है । जगत का उपादान कारण । कुदरत विशेष-साख्य में पुरुष और प्रकृति से अतिरिक्त और तीसरी वस्तु नही मानी गई है। जगत् प्रकृति का ही १ अर्थात् अनेक रूपों मे प्रवर्तन है। प्रकृति की विकृति परिणाम ही जगत् है। जिस प्रकार एकरूपता या नि शेषता से परिणाम द्वारा अनेकरूपता की ओर सगा- गतिहोती है उसी प्रकार फिर अनेकरूपता से उस एकरूपता की ओर गति होती है जिसे स +4t प्रलयावस्था या स्वरूपावस्था कहते हैं। प्रथम प्रकार गतिपरपरा को विरूप परिणाम और दूसरी प्रकार गतिपरपरा को स्वरूप परिणाम कहते हैं। स्वरूपावस्था प्रकृति प्रव्यक्त रहती है, व्यक्त होने पर ही वह कहलाती है। इन्हीं दोनो परिणामो के अनुसार ज. बनता और बिगडता रहता है। प्रकृति के परिणाम का इस प्रकार कहा गया है-प्रकृति से महत्तत्व ( बुद्धि महत्तत्व से अहकार, अहकार से पचतन्मात्र (शब्द तन: रस तन्मात्र इत्यादि), पंचतन्मात्र से एकादश इद्रिय ( ज्ञानेंद्रिय, पच कमेंद्रिय और मन) और उनसे फिर महाभूत । इस प्रकार ये चौबीसो तत्व जिनसे ससार बना प्रकृति ही के परिणाम हैं। जो क्रम कहा गया है वह 14 परिणाम का है। स्वरूप परिणाम का क्रम उलटा होता अर्थात् उसमें पंचमहाभूत एकादश इद्रिय रूप में, फिर इस तन्मात्र रूप में, तन्मात्र प्रहकार रूप मे-इसी क्रम से जगत् फिर नष्ट होकर अपने मूल प्रकृति रूप में प्रा न है। विशेष दे०-'साख्य'। ४ राजा, प्रामात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, दड और मित्र इन पगो से युक्त राष्ट्र या राज्य । विशेष-इसी को शुक्रनीति में 'सप्ताग राज्य' कहा है। उ राजा की सिर से, प्रामात्य की प्रांख से, मित्र की कान कोश की मुख से. दह या सेना की भुजा से, दुर्ग की हाथ और जनपद की पैर से उपमा दी गई है। ५, राज्य के अधिकारी कार्यकर्ता जो पाठ कहे गए हैं। . दे० 'प्रष्ट प्रकृति'। ५ परमात्मा (को०)। ६ नारी । (को०) । ७ स्त्री या पुरुष को जननेंद्रिय (को०)। ८ मत जननी (को०) 16 माया (को०) । १० कारीगर ।। ११ एक छद जिसमें २१, २१ अक्षर प्रत्येक चरण में हो (को० १२ प्रजा (को०) । १३ पशु । जतु (को०) । १४ . . . वह मूल शब्द जिसमें प्रत्यय लगाते हैं। १५ जीवनक्रम (को० १६ ( गणित मे ) निरूपक । गुणक (को०)। १७ पर जगत् (को०)। १८. सृष्टि के मूलभूत पाँच तत्व । प्रकीर्तित-वि० [स०] १ कथित । घोपित । २. प्रथित । प्रसिद्ध । ख्यात । ३. प्रशसित [को०] । प्रकीर्य-सज्ञा पु० [म०] [ स्त्री० प्रकीर्या ) १ दुगंधवाला करज । २ रीठा करज। प्रकोर्य-वि॰ [स० ] प्रकिरण के योग्य । बिखेरने योग्य [को०] । प्रकुच-सज्ञा पु० [ स० प्रकुञ्च ] पाठ तोले या एक पल का मान । प्रकुज-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रकुज्ज ] दे० 'प्रकुच' । प्रकृथित-वि० [सं०] दूषित । दूषणयुक्त (को०] । प्रकुरित-वि० [म०] १. जिसका प्रकोप बहुत बढ़ गया हो। जैसे, प्रकृपित कफ। २ हिलाया हुअा। कपित । क्षोभित (को०)। ३ जो बहुत क्रुद्घ हो। उ०-पहुंचे पुर मे प्रकुपित होकर धन्वी लक्ष्मण चारुचरित्र ।-साकेत, पृ० ३८७ । प्राप्त-वि० [सं०] दे० 'प्रकुपित' । प्रकुल-सज्ञा पुं० [सं०] सांचे में ढला हुपा शरीर । सौंदर्ययुक्त शारीर [को०)। प्रकुष्मांडी-सज्ञा स्त्री० [सं० प्रकुष्माण्टी ] दुर्गा [को०] । प्रकूष्मांडी-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० प्रकूप्माएछी ] दुर्गा (को॰] । प्रकृत'–वि० [सं०] १ जो विशेष रूप से किया गया हो । पारब्ध । २ वास्तविक । यथार्थ । असली। सच्चा । ३. जो बनाया गया हो। पूरा किया हुमा । रचा हुमा। ४ जिसमें किसी प्रकार का विकार न हुमा हो । विकाररहित । अविकृत । ५ प्रकरणप्राप्त। प्रसगप्राप्त (को०)। ६. अपेक्षित । माका- क्षित । इच्छित (को०)। ७ स्वभाववाला । प्रकृतिवान् । ८ नियुक्त (को०)। प्रकृत-सज्ञा पु० श्लेप मलकार का एक भेद । प्रकृतता-सा पु० [स०] १ प्रकृत होने का भाव । २. यथार्थता । असलियत । प्रकृतत्व-सशा पुं० [स०] १ प्रकृत होने का भाव । २ यथार्थता । भसलियत । प्रकृति-सझा सी० [स०] १. स्वभाव । मून या प्रधान गुण जो सदा बना रहे। तासीर । जैसे,-भालू की प्रकृति गरम है। २. प्राणी की प्रधान प्रवृत्ति । न छूटनेवाली विशेषता । स्वभाव । ६-५२ - भूत (को०)।