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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४७२

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२१८१ प्रभात प्रश्वत दीप्त । राज नृप, कहो चद कपि सब्य । होतु सुकातिक मास महि, प्रभविता-मज्ञा पुं॰ [स० प्रभवित ] प्रभु । प्रधान पासक गोला। दीपमालिका प्रब्ब ।-पृ० रा०, २३।१ । प्रभविष्णु-वि० [ म०] १. प्रभावशील । अग्रगमय । उ०-व्यक्ति प्रयत-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पर्वत] दे० 'पर्वत' । उ०-(क) घरि कच्छ को समाज में सफल, प्रानंदपूर्ण, प्रमविष्णु एव पालारमक रूप सरूपय । धरि मद मब्बत पुठ्ठय !-पृ० रा०, २०१०६ । जीवन जीने की कला सीखना होगा ।-स० दशन, पृ० (ख) सिर नाइ घाइ नरनाह तब प्रब्बत सम प्रब्बत भिरे । ११० । २ शक्तियुक्त । ताकनवर । समयं । शपत (ले०) । -पृ० रा०, ७.५२ प्रभविष्णु-तचा ५०१ प्रभु । स्वामी । अघोश्वर । २. विष्णु । प्रभग-सज्ञा पुं० [म० प्रभग ] १. तोड़ना । विदलित करना । २ प्रभविष्णुता-सज्ञा सी० [सं०] प्रभावित करने की शक्ति । प्रमाया- पूर्णत पराजय । ३ वह जो तोड़े फोडे या विदलित त्मकता । दूसरों पर असर डालने का सामर्थ्य । १०-पूर्ण करे (को०)। प्रभविष्णुता के लिये काव्य मे हम भी सत्वगुण की सत्ता प्रभंजन-सका पु० [स० प्रभजन] १ तोड फोड । उखाड पखाड । पावश्यक मानते हैं ।-रस०, पृ०६६। नाण । उ०-त्रिविधि प्रभजन चलि सुरभि करत प्रभजन धीर । प्रभाजन-सज्ञा स्त्री॰ [म० प्रभाम्जन ] पोभाजन । सहजन का पेठ । तन मन गजन अलि प्रभृत बिन मनरजन वीर ।-स० सप्तक, प्रभा-श श्री० [ स०] १ दीप्ति । प्रकाश । प्राभा । चमक । पृ० २५० । २:प्रचड वायु । महावात । प्राधी । ३. हवा । २ किरण । रश्मि । ३ सूर्य का वित्र । ४. सूर्य की एक वायु । उ०-विविध प्रभजन चलि सुरभि करत प्रभजन धीर । पत्नी । ५ एक अप्सरा का नाम । ६ एक द्वादशाक्षर वृत्ति -स० सप्तक, पृ० २५० । जिसे मदाकिनी भी कहते है । ७ दुर्गा (ले०)। ८ कुवेर की यौ०-प्रभंजनसुत - हनुमान । पुरी । अलका (को०)। ८ एक गोपी का नाम (को०) । ६ ४ मणिपुर का राजा ( महाभारत )। स्वर्भानु की कन्या का नाम जो नहुप की माता थी (को०)। प्रभजन-वि० नष्ट करनेवाला । तोडफोड करनेवाला [को०] । यौ..-प्रभाकर | प्रमाकरी। प्रभाकीट | प्रभापल्लवित प्रभा प्रभ-वि० [सं०] प्रभायुक्त । प्रकाशमय । चमकदार (समासांत में से व्याप्त । जिसपर प्रभा फैली हो । प्रभाप्रमु। प्रयुक्त) जैसे, नीलाजनप्रभ । उ०—जहाँ चहकते विहग, प्रभाप्ररोह - प्रकाशरश्मि । प्रभाभिद् = अत्यंत बदलते क्षण क्षण विद्युत्प्रभ धन ।-ग्राम्या, पृ० १५ । प्रभामढल । प्रभालेपी। मभग्न-वि० [सं०] १ तोडा हा । चूर चूर किया हुमा । २. प्रभाउ पु-सज्ञा पुं० [सं० प्रमाव] दे० 'प्रभाव' । उ०-तिमिर ग्रसित पराजित (को०] । सब लोक भोक लखि दुखित दयाकर । प्रगट कियो अद्भुत प्रभत--ज्ञा स्त्री० [सं० प्रभ ? ] प्रभुत्व । प्रशंसा। श्रेष्ठता । प्रभाउ भागवत विमाकर ।-नंद० प्र०, पृ०४। शोभा । शाबाशी। उ~-वस राखो जीभ कहै इम घाँको फड़या प्रभाफर-सा पुं० [स०] १. सूर्य । २ चद्रमा । ३. पग्नि | ४ बोल्या प्रभत किसी।-बाँकी० ग्रा, भा० ३, पृ० १०३ । मदार का पौधा। पाक । ५ समुद्र । ६ एक नाग का प्रभद्र-सज्ञा पुं० [सं०] नीम । नाम । ६. माकंडेय पुराण के अनुसार पाठवें मन्यतर फे प्रभद्रक'-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] पंद्रह प्रक्षरो का एक वर्णवृत्त । ३० 'प्रभद्रिका'। देवगण फे एक देवता। ८ एक प्रसिद्ध मोमानक । कुशद्वीप के एक वर्ष का नाम | १० शिव का एक नाम प्रभद्रक-वि० अत्यत सुदर । मतीव सलोना [को०] । (को०) । ११ एक रत्न । पन राग (को०)। प्रभद्रा-सशा स्त्री॰ [सं०] प्रसारिणी लता। म.] स्थाएवीवर ( थानेसर ) के प्रभद्रिका-सज्ञा स्त्री० [सं०] पंद्रह अक्षरों की वर्णवृत्ति जिसके प्रभाकरवर्द्धन-सञ्ज्ञा पुं० एक राजा जो विक्रम संवत् ६०० के पूर्व राज्य करते थे। प्रत्येक चरण में नगण, भगण फिर जगण और अंत में विशेप-इन्ही के पुत्र महाप्रतापी हपंवद्धन हुए जिनकी राजधानी रगण होता है । जैसे,—निज भुज राघवेंद्र दससीस ढाइ हैं । कान्यकुब्ज थी और जिनके सभाकवि वाणभट्ट थे। प्रभव-सहा पुं० [स०] १ उत्पत्ति का कारण । उत्पत्तिहेतु । २. ये सूर्योपासक थे। उत्पत्तिस्यान । भाकर । ३ जन्म । उत्पचि। ४. सृष्टि । प्रभाकरी-सहा पी० [ म०] बोधिसत्वों की तृतीय पयस्या जो ससार । ५ जल का निर्गम स्थान । वह स्थान जहाँ से कोई प्रमुदिता पौर विमला के उपरात प्राप्त होती है। नदी मादि निकले । उद्गम । ६ प्रभाव । पराक्रम । ७ साठ सवत्सरो में एक संवत्सर । इस सवत्सर मे वृष्टि अधिक होती प्रभाकीट-पञ्चा पुं० [ 10 ] खद्योत । जुगुन् । है और प्रजा निरोग पौर सुखी रहती है। ८. विष्णु का प्रभाग-पज्ञा पुं० [सं०] १ विभाग का विभाग। २ भिन्न वा भिन्न । जैसे, इत्यादि । एक नाम (को०)। मूल (को०)। १० ऋद्धि । सौभाग्य । उदय । अभ्युदय (को०)। प्रभाव'-सा पुं० [म.] १. प्रातः काल । नौरा । २ एक देवता प्रभवन-सक्षा। पुं० [ रा०] १. उत्पत्ति । २ पाकर । ३. मूल । जो सूर्य मोर प्रभा से उत्पन्न माना गया है। यो०-प्रभातकरणीय = वे कार्य जिन्हें प्रात पाल करना उचित १-५८ - ४ अधिष्ठान ।